सामाजिक बदलाव : लोकतांत्रिक पद्धति से तय हो जीवन की राह

Last Updated 17 Dec 2023 01:41:37 PM IST

अनेक स्तरों पर बढ़ती समस्याओं के बीच आज विश्व में ऐसे बदलाव की जरूरत बहुत व्यापक स्तर पर महसूस की जा रही है, जिसमें अनेक जटिलताओं के बीच कहीं उम्मीद की बड़ी किरण नजर आए। यह आशा कहीं पर्यावरण रक्षा के कुछ प्रयासों में नजर आती है, तो कहीं समता और न्याय के प्रयासों में तो, कहीं शांति के अन्य प्रयासों में।


सामाजिक बदलाव : लोकतांत्रिक पद्धति से तय हो जीवन की राह

ये सभी प्रयास अपने स्तर पर महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं पर इनकी एक बड़ी ताकत और समाज में बड़ा बदलाव लाने की क्षमता तभी बढ़ती है, जब इनमें आपस में समन्वय हो, ये एक दूसरे को साथ लेकर बढ़ें। न्याय और समता, अमन-शांति और पर्यावरण की रक्षा-ये तीनों एक बेहतर दुनिया के लिए बहुत जरूरी हैं पर इन्हें अलगाव में देखने से बदलाव लाने की इनकी क्षमता कम होती है। अत: जहां इन बहुत सार्थक उद्देश्यों से जुड़े लोगों को एकता से कार्य करना चाहिए, वहीं यह भी जरूरी है कि इन तीनों मूल उद्देश्यों को लेकर मानव जीवन की और उसमें सार्थक बदलाव की समग्र सोच विकसित की जाए।

कोई भी जटिल समस्या सामने आने पर सही समाधान प्राप्त करने में बड़ी मदद मिलेगी यदि समता और न्याय, अमन-शांति तथा पर्यावरण रक्षा के समग्र दृष्टिकोण से समाधान के विषय में विचार किया जाए। अनेक दुविधाओं और जटिलताओं के बीच इस आधार पर सही मार्ग-दर्शन हो सकता है, और हम सही राह तलाश सकते हैं। यदि इसी सोच को सरलीकृत रूप देना है तो हम कह सकते हैं कि न्याय, समता, अमन-शांति और पर्यावरण रक्षा के आधार पर हमें समस्याओं के समाधान प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। यदि इन सिद्वांतों के प्रथम अंग्रेजी अक्षरों को जोड़ा जाए तो इसे जेप्प सोच कहा जा सकता है, जो इस सोच की सरलीकृत पहचान का शब्द हो सकता है।

यह ऐसी सोच है जो विभिन्न तरह की समस्याओं के समाधान में सहायक सिद्ध हो सकती है पर इसका विशेष महत्त्व इक्कीसवीं शताब्दी के मौजूदा दौर में इस कारण बढ़ गया है क्योंकि धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही संकट में हैं। धरती पर बहुत विविध तरह के पनपने वाले जीवन के अस्तित्व यानी सरवाइवल का संकट अब मौजूद है। दूसरे शब्दों में इस बड़े संकट का समाधान अमन-शांति, न्याय एवं समता तथा पर्यावरण, जैव विविधता की रक्षा के सिद्धांतों के आधार पर इनमें समन्वय के आधार पर करना होगा। इस तरह जैप्प की सोच जब सरवाइवल यानी अस्तित्व मात्र की रक्षा में उपयोग होती है, तो इसे जैप्पस कहा जा सकता है। इस समग्र प्रयास को लोकतांत्रिक, अहिंसक और पारदर्शिता के तौर-तरीकों से आगे ले जाना होगा जिससे कि अधिक से अधिक लोग इससे जुड़ सकें। जितने भी लोगों के रचनात्मक सुझावों से सही राह निकालने या तलाशने की मदद मिले उन सभी का स्वागत होना चाहिए। किसी कड़े अनुशासन के स्थान पर स्वतंत्र माहौल में विचारों के आदान-प्रदान, पारदर्शिता, सहनशीलता, एक-दूसरे से सीखने की क्षमता और खुले माहौल की अधिक जरूरत है। कुछ पुरानी संकीर्ण सोच और सभी को कड़े अनुशासन में बांध कर रखने की सोच को, या इतिहास और भविष्य को संकीर्ण सिद्धांतों में बांध कर चलने की सोच को त्यागना अधिक उचित होगा।

आज दुनिया में युद्ध और महाविनाशक हथियारों के खतरे बहुत बड़ी चुनौती बन चुके हैं। दूसरी ओर जलवायु बदलाव और उसके जैसी अन्य विश्व स्तर की बड़ी पर्यावरणीय समस्याओं के असर से अनेक बड़ी आपदाएं पहले से भी भयंकर रूप में मानव-जीवन और अन्य तरह के जीवन को क्षतिग्रस्त और संकटग्रस्त कर रही हैं। जहां जरूरत इस बात की है कि इन पर्यावरणीय समस्याओं और  आपदाओं का सामना करने के लिए मानवता अमन-शांति की राह पर आए, वहीं दूसरी ओर कभी यूक्रेन तो कभी मध्य-पूर्व में हिंसक युद्धों का विध्वंस बढ़ रहा है, जिनके बारे में चेतावनी कई बार मिली है कि ये युद्ध अधिक बड़े और व्यापक युद्धों की ओर बढ़ सकते हैं।

इन तरह के बहुत गंभीर संकट उत्पन्न हो रहे हैं, और कहा जा सकता है कि इतनी गंभीर, धरती की जीवनदायिनी क्षमता को मानव-निर्मित कारणों से संकटग्रस्त करने वाली स्थिति पहले कभी नहीं देखी गई। इसके बावजूद विश्व के अधिकांश लोग इन बड़े संकटों से बेखबर अपनी अपेक्षाकृत छोटे स्तर की समस्याओं और सरोकारों में उलझे हुए हैं। कोई यह नहीं चाहता है कि धरती संकटग्रस्त हो, भावी पीढ़ियों के लिए, हमारे बच्चों के लिए जीवन अधिक संकटग्रस्त बने। बावजूद इसके कि कोई यह चाहता नहीं है, धरती संकटग्रस्त होती जा रही है और लगभग सभी वैज्ञानिक अध्ययन मान रहे हैं। इस स्थिति में कहीं न कहीं अधिकांश लोगों के अलगाव को समाप्त कर उन्हें व्यापक स्तर पर धरती के सबसे बड़े सवालों से जुड़ना होगा और मौजूदा समय में सही सामाजिक बदलाव की यही सबसे बड़ी अभिव्यक्ति है। न्याय और समता, अमन-शांति और पर्यावरण संरक्षण के जो छोटे-छोटे प्रयास हो रहे हैं, वे सभी समाज के दुख-दर्द को कम करने में सहायक हैं, पर इसके साथ यह भी कहना होगा कि इन्हें एक कहीं अधिक व्यापक मुहिम, जन-आंदोलन या जन-अभियान में बदलना भी जरूरी है, जो अहिंसक और पारदर्शिता भरे तौर-तरीकों से अधिक व्यापक सामाजिक बदलाव की तैयारी भी करे। यह हमारे समय की मांग है, यह इक्कीसवीं शताब्दी की जरूरत है।

जलवायु बदलाव के नवीनतम आंकड़े बता रहे हैं कि सुर्खियों और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के बावजूद ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में जो कमी आनी चाहिए थी, उसके लक्ष्यों में मानवता पीछे छूट रही है। जहां तक महाविनाशक हथियारों के खतरों को कम करने के समझौतों का सवाल है, तो इसमें भी सबसे बड़ी सैन्य ताकतें विशेषकर अमेरिका और रूस हाल के समय में आगे बढ़ने के स्थान पर पीछे हटे हैं। दूसरे शब्दों में, यदि हम पिछले तीन-चार दशकों के इतिहास को देखें तो जहां सबसे खतरों के बारे में वैज्ञानिक जानकारियां बढ़ी हैं, वहीं ये खतरे कम नहीं हुए हैं अपितु बढ़ ही गए हैं। केवल सबसे बड़ी गंभीर समस्याओं की जानकारी बढ़ा देने का क्या लाभ होगा यदि इन जानकारी का उपयोग इन समस्याओं को कम करने के लिए नहीं हो पाता है, और ये समस्याएं बढ़ती जाती हैं।

अत: अब किसी ऐसे बड़े लोकतांत्रिक उभार का समय आ गया है जो विश्व स्तर पर केवल सतही बदलाव से न जुड़ा हो, बल्कि अधिक बुनियादी बदलाव लाने में सक्षम हो। बड़ा सामाजिक बदलाव लाने में अनेक छोटे-छोटे प्रयास भी मददगार सिद्ध होंगे और जरूरत इस बात की है कि अनेक छोटे पर सोचे-सुलझे, सार्थक प्रयासों से बड़े बदलावों की ओर बढ़ने की राह तलाशी जाए। इतना निश्चित है कि हम महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दौर में जी रहे हैं, और यह समय बड़ी जिम्मेदारियों से बचने का नहीं अपितु उन्हें संभालने का वक्त है।

भारत डोगरा


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