स्मृति शेष : तपन में वातानुकूलन थे
हम बुद्धिकर्मिंयों हेतु मीडियास्वामियों के जगत में सुब्रत रॉय सहाराश्री एक धूमकेतु के मानिंद थे। एकदम भिन्न अलामत वाले। उनकी अपनी पहचान रही। बजाय वंशानुगत या कौटुंबिक उद्योगपति के, वे एक स्वयंभू उद्यमी थे। प्रथम पीढ़ी के उद्यमी मगर खुद को कहते थे प्रबंधकत्र्ता। यह हम श्रमजीवियों के नजरिए से तनिक अलग ही परिभाषा थी। इन श्री सुब्रत जी से मेरी कई यादें जुड़ीं हैं।
स्मृति शेष : तपन में वातानुकूलन थे |
एक श्रमजीवी के नाते, मेरा सुब्रत जी से पहला संपर्क लखनऊ के अमौसी हवाई अड्डे पर हुआ था। मजदूर साथी उमाशंकर मिश्र और शिवगोपाल मिश्र के साथ मैं उमरावमल पुरोहित (अब स्व.) को लेने गया था। पुरोहित जी हिन्द मजदूर सभा के महासचिव और ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन के अध्यक्ष थे। वे समाचारपत्र कर्मिंयों के राष्ट्रीय कन्फेडरेशन के भी अध्यक्ष रहे थे। उसी जहाज से सुब्रत जी भी उतरे। उन्होंने वहां मजदूरों का हुजूम देखा। उस दौर में स्थानीय दैनिकों में हमारी कार्मिंक यूनियन बड़ी सबल तथा व्यापक थी। सुब्रत जी ने स्पष्ट कर दिया था कि वे सहारा संस्थान में कोई यूनियन नहीं स्वीकारेंगे। उनका तर्क था वहां सभी कर्त्तव्ययोगी हैं, अत: वर्गीकरण क्यों? उन्होंने अपने कर्मिंयों को कहीं अधिक सुविधाएं भी दी थीं। उस वक्त लखनऊ के तपते और शीतकालीन मौसमों में राष्ट्रीय सहारा का कार्यालय वातानुकूलित था। बाकी मुनाफाखोर प्रकाशकों के संस्थानों में पंखे तले ही काम चलता था। इसमें बाद में सुधार आया।
सुब्रत जी का पहला मीडिया प्रयोग था साप्ताहिक ‘शाने-सहारा’ जो सुंदरबाग में था। उसमें वेतन पर विवाद उठा था। उमाशंकर मिश्र बताते हैं कि तब सुब्रत जी ने ग्रेच्युटी मिलाकर तीन गुना मुआवजा दिया था। मीडिया पर उनकी सोच अत्यंत गौरतलब रही। वे समाचार को दो शीषर्कों में बांटते थे : मनचाही और अनचाही। उनकी प्राथमिकता पाठक को हर प्रकार की भली सूचनाएं ही देने की रही। टीवी में भी यही उनका प्रयास रहा। वे ‘खटाखट खबरों’ पर बल देते थे। खटाखट का मतलब शीषर्कों और सूक्तियों में समाचार दिए जाएं। यह न्यूज फ्लैश था। उनका आग्रह होता कि हर खबर में आंकड़े हों, जिससे उनमें अधिक प्रमाणिकता आए। खबरों में उनका जोर ‘क्या’ के बजाय ‘क्यों’ पर होता था। उनका सुझाव था कि पांच हेडिंग बनाओ। फिर उनमें से एक श्रेष्ठतम को चुनो। उन्हें शब्दों में अश्लीलता बर्दाश्त नहीं थी-‘चूना लगाना’ मुहावरा वर्जित था। प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण का युग चलाया। यह सुब्रत जी की ही सोच का फल था कि राष्ट्रीय सहारा के प्रसिद्ध परिशिष्ट ‘हस्तक्षेप’ में सरकार की आर्थिक नीतियों की सिलसिलेवार समीक्षाएं प्रकाशित होती रहीं थीं। बाद में उनका संकलन ‘भारत गुलामी ओर’ शीषर्क से किताब के रूप में प्रकाशित हुआ था। इस पर भी हमने हरिद्वार में अपने फेडरेशन की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में विस्तृत चर्चा की थी। ‘हस्तक्षेप’ ने कांग्रेस की अर्थनीति को लोक-विमर्श में ला दिया था।
उसी दौर में लखनऊ में अखबारी आजादी पर एक अवांछित प्रहार हुआ था। राष्ट्रीय सहारा के कपूरथला रोड पर स्थित कार्यालय में अचानक यूपी पुलिस घुस आई थी। इससे मीडिया में हड़कंप मच गया था। ऐसे वाकयात तो इंदिरा गांधी के इमरजेंसी काल में होते थे, जैसे दिल्ली के बहादुरशाह मार्ग पर निर्मिंत समाचारपत्रों की बिजली काट लेना, छापामारी, धरपकड़ आदि। लेकिन अब यूपी में यह सब? तब कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। उनकी इस पुलिसिया कार्रवाई की र्भत्सना करते हुए फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते मेरा बयान प्रसारित हुआ था। लोग चकित थे-श्रमिक यूनियन का व्यक्ति एक मालिक के पक्ष में? मुख्यमंत्री का फोन आया। मित्रवत थे, मगर क्षुब्ध। मेरा सवाल सीधा और सरल था : ‘आपकी पुलिस इतनी निरक्षर, अज्ञानी है कि संपादकीय कार्यालय और व्यावसायिक विभाग में अंतर नहीं कर सकी? भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 के कुछ अर्थ हैं, उसकी मान्यता है।’ कल्याण सिंह ने बाद में उत्पीड़कों की खबर ली। पर यह समूचा हादसा टाला जा सकता था।
श्री सुब्रत जी संपादकीय मसलों में अमूमन अतिक्रमण नहीं करते थे। जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने फूलन देवी के खिलाफ सारे मुकदमे वापस ले लिए थे। स्थानीय संपादक योगेश मिश्र ने इसकी आलोचना करते हुए एक संपादकीय लिखा था। पर सुब्रत जी ने योगेश मिश्र को कुछ नहीं कहा, उन पर लेशमात्र भी आंच नहीं आने दी। योगेश स्वयं इसका जिक्र करते हैं। मुलायम जी के संदर्भ में एक बात और याद आती है। श्रीलंका प्रेस एसोसिएशन के निमंतण्रपर उसकी जयंती अधिवेशन में पचास-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल कोलंबो जा रहा था। देश के अधिकतर आंचलिक पत्रकार प्रतिनिधिमंडल में थे। मेरा आग्रह था कि मुलायम जी सहारा एअरलायंस से रियायती वापसी टिकट दिलवा दें ताकि इन पत्रकारों को एशियायी गणराज्यों के अध्ययन का समुचित अवसर मिले। मुख्यमंत्री के आग्रह पर सुब्रत जी ने तत्काल आधे दाम पर टिकट दिलवा दिए। नतीजतन, कई पत्रकार श्रीलंका में अशोक वाटिका देख सके जहां मां सीता कैद रही थीं।
पत्रकारिता प्रशिक्षण के क्षेत्र में श्री सुब्रत जी की अत्यधिक रुचि थी। सहारा संपादकीय विभाग में कार्यरत उपेंद्र मिश्र (अब स्व.) का चयन हुआ था-प्राग (चेकोस्लोवाकिया) जाने हेतु। साथ में, अमर उजाला के विपिन धूलिया भी थे। उपेंद्र को सहारा प्रबंधन से सवैतनिक अवकाश मिला। विपिन बाद में सहारा टीवी में भी रहे। वे बताते हैं कि उनके समाचार संप्रेषण में सहारा प्रबंधन ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। ऐसे भी अवसर आए जब पत्रकारिता और व्यापारिक हितों में विरोधाभास पैदा हुआ। पर धूलिया को उनके अपने निर्णयों से हटने को कभी नहीं कहा गया। एक साधारण श्रमजीवी की दृष्टि में सहारा प्रबंधन काम के प्रचुर अवसरों को मुहैया कराने में अग्रणी रहा। इस बंगभाषी बिहारी (अररिया में जन्मे) सुब्रत जी ने पहले गोरखपुर को और बाद में लखनऊ को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। फिर उस नन्ही सी कंपनी सहारा इंडिया को भारत का सर्वाधिक रोजगार देने वाला सहारा इंडिया परिवार बना डाला। इसकी समता केवल भारतीय रेल से की जा सकती है।
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