मौलाना आजाद जयंती : देशज पसमांदा और मौलाना आजाद

Last Updated 11 Nov 2023 08:59:58 AM IST

भारतीय मूल के मुसलमान जिन्हें आजकल देशज पसमांदा कहा जा रहा हैं उनके विरोध की जड़ें बहुत पुरानी हैं। सल्तनत काल और मुगल काल से ही पसमांदा की अनदेखी और उपेक्षा का सिलसिला शुरू हो गया था।


मौलाना आजाद जयंती : देशज पसमांदा और मौलाना आजाद

जो स्वतंत्रता संग्राम के समय भी जारी रहा। इस दौरान शासक वर्गीय अशराफ मुस्लिमों के नेतृत्व में सरगर्म मुस्लिम लीग और उसके द्विराष्ट्र सिद्धांत का आसिम बिहारी के नेतृत्व में विभिन्न पसमांदा जातियों पर आधारित संगठन पुरजोर विरोध कर रहे थे। इस द्वंद्व और पहले से चली आ रही उपेक्षा और भेदभाव में मौलाना आजाद भी भागीदार बन कर सामने आते हैं। अग्रलिखित विवरणों से यह बात पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है।

मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिर्वसटिी के पूर्व कुलाधिपति (चांसलर) और मौलाना आजाद के पोते फिरोज बख्त अहमद ने उर्दू में लिखित अपने लेख ‘मुसलमानो के मजीद पसमांदा होने का अंदेशा’ (मुसलमानो के और अधिक पिछड़ने का डर) जो राष्ट्रीय सहारा (उर्दू) में 26 जून 2005, को छपा था, में लिखते हैं-‘सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बतौर चेयरमैन अल्पसंख्यक सुरक्षा कमेटी जब ड्राफ्ट कांस्टीट्यूशनल कमेटी के लिए रिजर्वेशन के मामले को जेरे बहस रखा तो 7 मेंबरों की कमेटी में से 5 ने इसके खिलाफ अपना वोट दिया, ये मेंबर थे- मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना हिफ्जुर्रहमान, बेगम एजाज रसूल, हुसैनभाई लालजी, तजम्मुल हुसैन।’

लगभग ऐसी ही बात बख्त ने हिंदुस्तान टाइम्स (अंग्रेजी) के अपने लेख च्द्यदृद्र द्यठ्ठत्त्त्दढ़ ग्द्वद्मथ्त्थ््रद्म ढदृद्ध ठ्ठ द्धड्ढद्मड्ढद्धध्ठ्ठद्यत्दृद द्धत्ड्डड्ढ में भी लिखा था जो 13 सितम्बर 2015 को छपा था। ज्ञात रहे कि उस समय तक 1935 के भारत सरकार एक्ट के अनुसार 1936 में बनी लिस्ट में बहुत सी देशज पसमांदा जातियों को आरक्षण का लाभ मिल रहा था, इस प्रकार पसमांदा आरक्षण के विरोध में वोट करके मौलाना आजाद ने मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के सवाल से मुंह मोड़ लिया। 1950 के प्रेसिडेंसियल ऑर्डर जिसके कारण मुस्लिम धर्मावंलबी दलित, अनुसूचित जाति के आरक्षण से बाहर कर दिए गए हैं, मौलाना आजाद के मंत्रित्व काल में ही आया था, इसके विरुद्ध भी मौलाना आजाद के विरोध का कोई साक्ष्य इतिहास में नहीं मिलता है, जबकि इस अध्यादेश के सालों बाद तक जीवन पर्यत सरकार में बतौर मंत्री रहे।

मौलाना आजाद का लोकतंत्र विरोधी नजरिया उस समय भी सामने आता है जब संविधान सभा में वयस्क मताधिकार विषय पर बहस के दौरान उन्होंने वयस्क मताधिकार को अगले 15 वर्षो के लिए स्थगित करने की वकालत की थी। वो तो भला हो डॉ. राजेंद्र प्रसाद एवं जवाहरलाल नेहरू का जिन्होंने जोरदार ढंग से उनका विरोध कर वयस्क मताधिकार के पक्ष में अपना समर्थन दिया था। वर्ना आजादी के बाद एक लंबे समय तक देशज पसमांदा मुसलमान जो कुल मुसलमानों का लगभग 90 फीसद है, वोट देने के अधिकार से वंचित रह गया होता।

कांग्रेस के बड़े नेता होने के नाते और गांधी, नेहरू द्वारा महत्त्वपूर्ण स्थान दिए जाने के नाते उनके पास मुसलमानों में सामाजिक न्याय के मुद्दों को उठाने का पूरा मौका था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 1946 के चुनाव के बाद जब बिहार मंत्री परिषद का गठन होने लगा, और द्विराष्ट्र सिद्धांत के विरोध में आसिम बिहारी के नेतृत्व में पसमांदा आंदोलन के महत्त्वपूर्ण भूमिका के देखते हुए, आंदोलन की ओर से लोकप्रिय निर्भीक और युवा एवं जननेता अब्दुल कय्यूम अंसारी को सरकार में शामिल करने की चर्चा होने लगी तो मौलाना आजाद ने इसका विरोध किया। ऐसे समय में सरदार पटेल और डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मौलाना आजाद के भारी विरोध के बावजूद एक गैर कांग्रेसी (ज्ञात रहे कि उस समय की प्रथम पसमांदा आंदोलन जामियतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) ने मुस्लिम लीग के विरुद्ध जाकर सम्मानजनक सीटें हासिल की थी) के समर्थन में हस्तक्षेप करते हुए न सिर्फ  अब्दुल कय्यूम अंसारी को मंत्री बल्कि नूर मुहम्मद को पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी बनवा कर पसमांदा आंदोलन का उत्साहवर्धन कर अपने न्यायिक चरित्र परिचय दिया।

भारत में अशराफ हित सुरक्षित रहे इसके लिए अशराफ का एक स्टैंड बंटवारे के विरोध का भी था कि यदि बंटवारा हुआ तो ठीक और नहीं हुआ तो फिर अशराफ का एक गुट नायक बनके उभरेगा। इसीलिए जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर चढ़ कर जो भाषण मौलाना आजाद ने दिया था जिसमें वो अशराफ का आह्वान करते हैं। जामा मस्जिद की मीनार का हवाला देते हैं, जिन पूर्वजों के साहसिक कार्यों का उदाहरण देते हैं वो सब अरबी ईरानी मूल के मुस्लिमों का उदाहरण है न कि भारतीय मूल के मुसलमानों का। जिससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने अशराफ मुस्लिमों को ही संबोधित दिया था।

डॉ. फैयाज अहमद फैजी


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