सामयिक : वामपंथ, हमास और मुस्लिम
इजराइल और हमास (Israel Hamas War) के बीच का जंग देखने में लगता है कि दो देशों के बीच का संघर्ष है, लेकिन इन दोनों के तनाव ने अंतरराष्ट्रीय संबंध और दूसरे देशों की घरेलू राजनीति को भी प्रभावित किया है।
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भारत ने भले ही इजराइल का समर्थन किया हो लेकिन भारत के विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में एक राय नहीं है। कुछ अपने आप को इजराइल के साथ रखते हैं, तो कुछ फिलिस्तीन (Palestine) के समर्थन में। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। हां, इतना जरूर है कि सरकार पहले फिलिस्तीन के साथ हुआ करती थी, आज इजराइल (Israel) के साथ है। समर्थन और विरोध में विविधता कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता व्यक्ति का संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है। भारत जैसे देश में आश्चर्य की बात यह है कि इस समर्थन और विरोध में किसी खास संगठन के हितैषी साबित करने के चक्कर में कुछ लोग आतंकवादी गतिविधियों के समर्थन तक में उतर आए हैं। केरल के एर्नाकुलम जिले में कुछ दिन पहले ब्लास्ट हुआ था। उसके बाद केरल के कोच्चि में यहोवा विटनेस समुदाय के कन्वेंशन में तीन दिवसीय प्रार्थना के अंतिम दिन ब्लास्ट हुए। यहोवा विटनेस समुदाय यहोवा को ही ईर मानते हैं, और उसी की प्रार्थना और राज्य के लिए गीत, चाहे वह राष्ट्रगान ही क्यों न हो, गाने को मान्यता नहीं देते हैं।
ज्ञात हो कि 16 अक्टूबर को जमाते ए इस्लामी हिन्द (Jamaat e Islami Hind) के प्रेसिडेंट सैयद सदातुल्ला हुसैनी (Syed Sadatullah Hussaini) एक डेलीगेशन के साथ फिलिस्तीन के राजदूत से मिले थे। उसके करीब दस दिनों बाद जमाते इस्लामी के स्टूडेंट विंग ने फिलिस्तीन के समर्थन में मल्लापुरम में रैली की जिसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पूर्व हमास नेता और उसके संस्थापक सदस्य खालिद मशाल (Khalid Mashal) ने संबोधित किया। उसके एक दिन बाद कलमश्शेरी की घटना हुई। केरल की वामपंथी सरकार जहां इस तरह की घटनाओं पर नजर रखने में उदासीन रही वहीं केरल में ऐसी घटना एक जटिल नेक्सस की तरफ इशारा करती है। ऐसा कैसे संभव है कि इतना सब बिना राज्य सरकार की जानकारी के हो गया हो। अगर सरकार को यह जानकारी नहीं थी तब तो प्रश्न उठता है कि राज्य सरकार की खुफिया एजेंसी और सुरक्षा तंत्र पर आम नागरिक कैसे भरोसा करे क्योंकि राज्य सरकार लॉ एंड ऑर्डर के लिए आम नागरिकों के प्रति गंभीर नहीं है। दूसरी ओर, अगर सरकार इन सब घटनाओं पर नजर रखे हुई थी तो यह घटित कैसे हो गया। उस पर भी वामपंथी कम्युनिस्ट विचारधारा वाली सरकार के शासन-प्रशासन की मौन सहमति कहीं न कहीं वामपंथ की वोट बैंक राजनीति को दर्शाती है। यह मुसलमानों की धार्मिंक भावनाओं को भुनाने का एक तरीका भी है। क्या वामपंथी सरकार भी हमास को फिलिस्तीन की एकमात्र आवाज साबित करना चाहती है?
अशराफ मुसलमानों के संगठन जमाते-ए-इस्लामी और उसके छात्र विंग सॉलिडेरिटी यूथ मूवमेंट का फिलिस्तीन के लिए रैली करना तो समझ आता है लेकिन क्या हमास लीडर खालिद मशाल को आमंत्रित करना भारत के लिए ठीक है? हालांकि पसमांदा मुसलमानों, जो मुस्लिमों की आबादी का पिचासी फीसदी हैं, ने मान लिया है कि इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष भारतीय मुसलमानों का कोई मुद्दा नहीं है। उनका मुद्दा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व है, जो संवैधानिक तरीके से हल किया जाना चाहिए। ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज ने भारत सरकार की स्ट्रेटजी और स्टैंड का यह कहते हुए सपोर्ट किया कि इजराइल में मारे गए निर्दोष लोगों के प्रति उसकी संवेदना है, और वे किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करते। उनका मानना है कि यह समस्या संवाद और चर्चा के जरिए हल होनी चाहिए। इस मसले पर उन्होंने यह भी कहा है कि भारत सरकार राष्ट्रीय हितों के लिए जो भी कदम उठाएगी, उसमें वे साथ हैं। 2024 लोक सभा का चुनाव करीब है। धार्मिंक संगठनों का इतना ज्यादा पूरे पिक्चर में आना गंभीर मुद्दा है। पांच राज्यों में चुनाव हैं, जिनमें मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हैं। ऐसे में क्या चुनावी ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही है? मुददे को ज्यादा तूल दिया जा है। यह भी प्रश्न है कि केरल सरकार इस तरह की घटनाओं को हल्के में क्यों ले रही है। हमास और फिलिस्तीन को एक ही मान लेना मसले को और पेचीदा बना देता है। इसलिए समर्थन और विरोध में न्याय से ज्यादा धार्मिंक भावना हावी है।
यही कारण है कि लोग इसे यहूदी और मुसलमानों के बीच का भी संघर्ष मानते है, जिसका मतलब है कि राजनीतिक के साथ-साथ धार्मिंक संघर्ष भी संभव है। एक तरफ जहां वामपंथी कम्युनिस्ट धर्म और राजनीति को अलग करके देखते हैं, अपने आप को पंथनिरपेक्ष मानते हैं, और धर्म को उत्पीड़क हथियार के रूप में देखते हैं तो दूसरी तरफ, व्यावहारिक रूप में धार्मिंक तुष्टीकरण को लेकर भी चलते हैं अन्यथा चीन के उईगुर मुसलमानों पर भारत के वामपंथियों का कोई स्टैंड नहीं है क्योंकि कम्युनिस्ट चीन का साम्राज्यवाद इनको स्वीकार है। भारत के वामपंथियों को भी साम्यवाद के नाम पर मुसलमानों का उत्पीड़न स्वीकार है।
वास्तव में वैश्विक स्तर पर भी ‘ट्रू बिलीवर’ और ‘नॉन बिलीवर’ का एक पावर-मैट्रिक्स काम करता है। ईसाई, यहूदी और मुसलमानों में अपने आप को ईर का सबसे सच्चा अनुयायी साबित करने की होड़ भी है। इसमें भारत का वामपंथ उनके साथ है जिससे उसका सबसे ज्यादा फायदा है। यहोवा विटनेस और यहूदी, कहीं से भी केरल की राजनीति को, वोट बैंक को प्रभावित नहीं कर सकते। इसलिए वामपंथ ने अपने आप को इनसे दूर रखा है। भारत का वामपंथ इजराइल विरोध के नाम पर हमास के समर्थन में खड़ा हो गया है। जिस तरह से उन्होंने हमास के आतंकी हमले पर चुप्पी साथ ली है, वह विचारणीय है। भारतीय वामपंथ को इजराइल और फिलिस्तीन के मामले को भारतीय मुसलमानों का मुद्दा बनाने से बचना चाहिए। सरकार को भी अपने स्टैंड को जन सामान्य में और बेहतर तरीके से लाना चाहिए ताकि राष्ट्रीय हितों के नजरिए से लोग इसको देख सकें। सरकार की एक कमी संभवत: यह रह गई कि कैसे इजराइल के साथ खड़ा होना राष्ट्रीय हितों के लिए ज्यादा सुरक्षित है, यह समझाने में बात बहुत आगे नहीं बढ़ पाई।
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