तेलंगाना : बीआरएस की दोतरफा मुश्किलें
सात से 30 नवम्बर के बीच होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव कई मायनों में दिलचस्प होंगे।
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मगर सबसे रोचक चुनाव तेलंगाना का होगा जहां भाजपा और कांग्रेस, ये दोनों राष्ट्रीय पार्टयिां एक ऐसे क्षेत्रीय दल को चुनौती दे रही होंगी जिसके नेतृत्व ने कुछ वर्ष पूर्व ही क्षेत्रीय से राष्ट्रीय दल बनने की मंशा से अपनी पार्टी का नाम बदला है।
ध्यान रहे कि के. चंद्रशेखर राव ने ‘तेलुगू देशम पार्टी’ से इस्तीफा देकर एकसूत्री एजेंडा ‘अलग तेलंगाना राज्य’ के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति की स्थापना की और 2014 में तेलंगाना के अलग राज्य बनते ही के. चंद्रशेखर राव वहां के पहले मुख्यमंत्री बने और फिर 5 अक्टूबर, 2022 को दल के अखिल भारतीय विस्तार की योजना के तहत ‘तेलंगाना राष्ट्र समिति’ का नाम ‘भारत राष्ट्र समिति (भारस-बीआरएस)’ हो गया यानी इस नये नाम से पार्टी का यह पहला चुनाव होगा। लगातार तीसरी जीत की तलाश में चुनाव में उतर रही बीआरएस को कमजोर नहीं कहा जा सकता क्योंकि अपनी सत्ता के दौरान उसने अपनी योजनाओं में विभिन्न वगरे के लिए कई कल्याणकारी कार्य किए और नकद लाभ सुनिश्चित किए।
चुनाव में जितना भारस का दांव पर लगा है, उतना ही भाजपा और कांग्रेस का भी लगा है। दक्षिण के राज्यों में कर्नाटक को छोड़ कर भाजपा का आधार कहीं और मजबूत नहीं है, और अभी की परिस्थिति, जिसमें कर्नाटक में कांग्रेस काबिज है, भाजपा के लिए जरूरी हो जाता है कि दक्षिण के अन्य राज्यों में अपनी संभावनाओं को टटोले ताकि लोक सभा चुनाव में उसके राज्यवार प्रदशर्न में भले ही जो भी बदलाव आए, मगर क्षेत्रीय स्तर पर दक्षिण भारत में उसके सांसदों की संख्या कम नहीं हो।
वर्तमान में भाजपा के पास तेलंगाना में ज्यादा सीट भले न हों लेकिन उसका वोट प्रतिशत लगातार बढ़ा है। 2019 के लोक सभा चुनाव में तेलंगाना में भाजपा का अच्छा वोट शेयर (19.65%) रहा और यह 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के वोट शेयर (6.98%) के विपरीत सकारात्मक पक्ष पेश करता है। 2016 के नगर निकाय चुनाव में भाजपा की चार सीटें ही आई थीं वहीं 2021 में नगर निकाय चुनाव में भाजपा ने 11 गुना बढ़ोतरी के साथ 44 सीटों पर जीत दर्ज की। दूसरी ओर सत्ताधारी पार्टी, जिसने 2016 के चुनाव में 99 सीटें जीती थीं, 2021 में 55 पर सिमट गई।
ऐसा नहीं है कि भारस इन आंकड़ों को ध्यान में नहीं रख रही होगी। मगर ओडिशा के अनुभव से दोनों ही पार्टियां, बीआरएस और बीजेपी, यह भी समझती हैं कि लोक सभा के वोट विधानसभा के वोट से ज्यादा मेल खाएं यह जरूरी नहीं है, और वह भी तब जब बीजेपी के पास राज्य में कोई बड़ा चेहरा नहीं है। लेकिन सिर्फ इस बात को ध्यान कर चंद्रशेखर राव के लिए भाजपा की चुनौती को कम करके देखना गलती होगी क्योंकि भाजपा अपनी कमी को बूथ स्तर के सूक्ष्म-प्रबंधन की ताकत पर जोर देकर पूरा करने की तैयारी करती दिख रही है। दरअसल, भाजपा अपना आधार मजबूत करने और बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संबद्ध संगठनों के सहयोग से कई स्तर पर कार्य करती है, और इसी कारण कई बार चौंकाने वाले नतीजे देने में सफल होती है। तेलंगाना में पार्टी की कोशिश कुछ ऐसी ही दिख रही है, और शायद यही कारण है कि पार्टी ने राष्ट्रीय मंत्री सुनील देवधर, जो संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं, को तेलंगाना की जिम्मेदारी दी है।
भारस के लिए दूसरी चुनौती कांग्रेस की है। तेलंगाना को अलग राज्य बनाने में कांग्रेस का भी साथ मिला था लेकिन इसका राजनीतिक लाभ चंद्रशेखर राव ही उठा सके। तेलंगाना की 119 सदस्यीय विधानसभा में मात्र 5 जीत पाने वाली कांग्रेस के लिए एक तरफ अस्तित्व की लड़ाई है तो वहीं कई ऐसे पहलू भी हैं जो कांग्रेस के पक्ष में दिखते हैं। कई ओपिनियन पोल के मुताबिक, तेलंगाना में कांग्रेस की सीटें बीआरएस से ज्यादा आती दिख रही हैं। हाल में कर्नाटक में कांग्रेस ने जिस मॉडल के सहारे सफलता प्राप्त की है, वो मॉडल तेलंगाना में लागू करने की कोशिश फिर से पार्टी करेगी।
कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति के आलोक में देखें तो कांग्रेस वैसे भी दक्षिण भारत में भाजपा के मुकाबले ज्यादा मजबूत रही है। ऐसे में पार्टी भाजपा पर इस बढ़त को बनाए रखना चाहेगी वहीं चुनाव को अपने गठबंधन में खुद और अपने नेता का कद ऊंचा करने के अवसर के रूप में भी देख रही होगी। ध्यान रहे कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण में अधिक सफल रही थी। कुल मिला कर बीआरएस के लिए चुनाव दोतरफा मुश्किलों वाला है। उसे दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के जोर से एक साथ निपटना होगा। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि चंद्रशेखर राव भाजपा के सूक्ष्म-प्रबंधन और कांग्रेस के उत्साहित कार्यकर्ताओं से कैसे निपटते हैं।
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