जेल नीति : एकरूपता के लिए तत्परता

Last Updated 28 Sep 2023 01:32:15 PM IST

गृह मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति ने देश भर की जेलों के हालात और उनमें सुधार को लेकर अक्टूबर, 2020 में अध्ययन शुरू किया और 21 सितम्बर, 23 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी।


जेल नीति : एकरूपता के लिए तत्परता

इससे पहले 26 नवम्बर, 2022 में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने उन्हीं सवालों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित संविधान दिवस के मौके पर उठाया था जिन पर यह रिपोर्ट आई है। राष्ट्रपति ने न्यायाधीशों के सामने सवाल किया था कि हम विकास कर रहे हैं, तो जेल खत्म होनी चाहिए न कि उनकी संख्या बढ़ाने की बात सोची जाए।  

संसदीय समिति ने भी भारत में जेलों में बढ़ती भीड़ की समस्या पर अपनी सिफारिशें दी हैं। समिति बताती है,‘पिछले कुछ वर्षो में भारतीय कारागारों की अवसंरचना में कुछ बदलाव हुए हैं, लेकिन कई कमियां बनी हुई हैं। कई कारागारों में भीड़भाड़ की समस्या है, जिससे संसाधनों पर दबाव पड़ता  है, जीवन स्तर में कमी होती है और कैदियों के बीच तनाव बढ़ता है, पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं, स्वच्छता और पोषण की कमी,जीर्ण-शीर्ण इमारतें,मनोरंजक गतिविधियों तक सीमित पहुंच, पर्याप्त मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी होती है,कारागारों में विचाराधीन कैदियों की बहुत अधिक संख्या, अपर्याप्त कारागार कमर्चारी और शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए सीमित सुविधाएं हैं। ये कमियां समाज में कैदियों के सुधार और इनके समाज में शामिल होने में बाधा डालती हैं, जिनसे अपराध और अपराध की पुनरावृत्ति का चक्र कायम रहता है। इन संस्थानों के भीतर र्दुव्‍यवहार, हिंसा और मानवाधिकारों के उल्लंघन की रिपोटरे ने भी कैदियों के उपचार और कल्याण के बारे में गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।’

भारत में 1319 कारागार हैं, जिनकी कुल क्षमता 4,25,609 कैदियों की है। हालांकि, वास्तविकता में 5,54,034 कैदी हैं। विचाराधीन कैदियों की संख्या 4,27,165 है, और अपराध-सिद्ध कैदियों की संख्या 1,22,852 है। पहले की तुलना में कारागारों में महिला कैदियों की संख्या भी बढ़ी है। कारागार में आवश्यक संख्या से लगभग 30 फीसद कम कर्मचारी हैं। स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की कमी और स्वास्थ्य एवं स्वच्छता पर अपर्याप्त ध्यान भी कारागारों की खराब स्थिति में योगदान देते हैं। कुल मिलाकर भारतीय कारागार पण्राली कई समस्याओं का सामना कर रही है,जिन पर ध्यान देने की अवश्यकता है,और कैदियों के रहने की स्थिति, स्वास्थ्य देखभाल और पुनर्वास कार्यक्रमों में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। भारत की जेलों में यह कोई नई स्थिति नहीं है। राष्ट्रपति मुर्मु ने भी गरीबी और जेल में कैदियों की बढ़ती संख्या के बीच रिश्ता जाहिर किया था।

मेरी टाइटलर ने ‘भारतीय जेलों में पांच साल’ नाम से चर्चित पुस्तक 1970 के दशक में लिखी थी। इसके बाद जो भी लिखने-पढ़ने वाले लोग जेलों में बंद किए गए उनमें से कइयों ने जेलों की स्थिति, र्दुव्‍यवहार, प्रताड़ना, शोषण, दमन के रोंगटे खड़े करने वाले हालात उजागर किए। इनमें कविता कृष्णन से लेकर सीमा आजाद, अमिता शीरीन, मनीष आजाद और भी दसियों लेखक हैं। ऐसी किताबों की एक साथ प्रदर्शनी और उन पर चर्चा हो तो भारतीय जेलों के हालात पर एक मुक्कमल रिपोर्ट तैयार हो सकती है। पूरी दुनिया में जेलों में बंद कैदियों के जीवन को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। भारत में ये नहीं के बराबर हैं। राजनैतिक कैदियों को लेकर जरूर अभियान की स्थिति दिखती है।

अमेरिका की प्रोफेसर एक्टीविस्ट एंजेला य्वान डेविस एक साल जेल में रहने के बाद जब 1972 में आरोप मुक्त हुई तो उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य जेलों को खत्म करने का अभियान ही बना लिया। पूरी दुनिया में यह अध्ययन करें तो आरोप भर के कारण लोग वर्षो जेलों में बंद रहते हैं। संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा विचारधीन कैदी वाले राज्यों में लक्षद्वीप है, जहां 100 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में 91 प्रतिशत और बिहार में 89 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। उत्तर प्रदेश में धारा 436 ए के तहत 30415 कैदी जमानत के पात्र थे लेकिन इनमें 711 ही रिहा किए गए। इससे न्याय, गरीबी, जेल में बंदी के रिश्ते स्पष्ट किए जा सकते हैं। भारत में जाति, धर्म और साक्षरता से भी कैदखाने की भीड़ का रिश्ता जुड़ा माना जाता है। 2015 में देश भर की जेल में बंद कैदियों में 55 फीसद विचाराधीन कैदी मुस्लिम, दलित या आदिवासी बताए गए थे। उस दौरान विचाराधीन कैदियों की कुल संख्या 2,82,076 में 80,528 निरक्षर पाए गए। इसके बाद यह संख्या पहले की तुलना में बढ़ी है। 2021 में तो संसद में बंदियों की संख्या जातिवार पूछी गई तो इसे सांप्रदायिक रंग देने के लिए प्रचारित किया गया कि जेलों में 67 फीसद से अधिक हिन्दू कैदी हैं यानी दलितों,  आदिवासियों को तब हिन्दू के रूप में पेश कर दिया गया जबकि संसद में धर्मवार कैदियों के आंकड़े मांगे नहीं गए थे।

समिति की रिपोर्ट जेलों में सुधार के तहत कैदियों की जीवन दशा में बदलाव करने और उनकी भीड़ कम करने के प्रयास नहीं दिखते। उसके राजनैतिक निहितार्थ भिन्न दिखते हैं। अंग्रेजों के जमाने से जेलों में ढांचागत बदलाव को लेकर समितियां बनाई गई हैं, और केंद्र सरकार ने भी समिति बनाई हैं। जस्टिस एएन मुल्ला समिति (1980) आरके कपूर समिति (1986) और न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर समिति (1987) प्रमुख हैं। अय्यर समिति ने महिला कैदी पर ध्यान केंद्रित किया लेकिन समितियों के सुझावों का रिश्ता जेलों में भीड़ को कम करने से नहीं जुड़ता। भीड़ के नाम पर असुरक्षा और सख्ती के इंतजाम पर जोर ज्यादा होता है। इस लेखक ने प्रारंभिक वर्षो में जेलों से निकलने वाले विचाराधीन कैदियों के पास इतने संसाधन देखे हैं, जिनसे वे कुछ दिनों तक भरण-पोषण अपने बूते कर सकते थे। हालात इस कदर बदतर हुए कि जेलों में गरीब, पिछड़े, दलित, आदिवासी बंदियों की लगातार होने वाली मौतों पर कई खबरें लिखनी पड़ी हैं। संसदीय समिति की रिपोर्ट का आखिरकार लक्ष्य भारत की जेलों पर केंद्र के हस्तक्षेप की गुंजाइश विकसित करना ज्यादा दिखता है। 1935 से जेलों का विषय राज्यों के अधीन है। इस रिपोर्ट में इस बात पर जोर है कि भारतीय कारागार नीति उसके बाद एकरूप नहीं रही। अंग्रेजों के समय की व्यवस्थाओं को गणतंत्र के अनुरूप नहीं मानने और गणतंत्र में राज्यों की स्वायत्तता एवं विविधता की विशेषताओं के बरक्स एकरूपता पर राजनीतिक दिशा का जोर है।

अनिल चमड़िया


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