POCSO : बचपन बचाने की गंभीर चुनौती
भारत में यौन शोषण के शिकार बच्चों को इंसाफ दिलाने के लिए 2012 में पॉक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेस) (The Protection of Children from Sexual Offences) एक्ट लागू किया गया था लेकिन इसे लागू हुए एक दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी अधिकांश राज्यों में बच्चों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा।
![]() पॉक्सो : बचपन बचाने की गंभीर चुनौती |
विश्व बैंक की संस्था के साथ विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा किए गए एक अध्ययन में पिछले दिनों चौंकाने वाले तथ्य सामने आए कि भारत में यौन शोषण के मामलों में सजा पाने वाले दोषियों से करीब तीन गुना ज्यादा संख्या बरी होने वालों की है।
पॉक्सो एक्ट के तहत नाबालिग के प्रति यौन उत्पीड़न तथा यौन शोषण जैसे अपराध और छेड़छाड़ करने के मामले में कार्रवाई की जाती है। इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा का निर्धारण किया गया है। बारह वर्ष तक की बच्ची के बलात्कार के दोषियों को इसके तहत मौत की सजा भी सुनाई जा सकती है। बच्चों को यौन शोषण तथा अश्लीलता से बचाने के लिए यह कानून 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों पर लागू होता है। 2007 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा बाल शोध अध्ययन रिपोर्ट जारी करते हुए बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए सख्त कानून लागू करने की सिफारिश की गई थी, जिसके बाद पॉक्सो एक्ट-2012 नाम से कानून बनाया गया था। इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य चाइल्ड पोर्नोग्राफी सामग्री पर रोक लगाते हुए 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को यौन दुर्व्यवहार तथा लैंगिक हमलों से सुरक्षा प्रदान करना है। भावी पीढ़ी को शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक और सामाजिक विकास सुनिश्चित करने का अवसर देना भी इस एक्ट में शामिल है। लेकिन चिंता का विषय है कि पॉक्सो एक्ट लागू होने के 10 साल बीतने के बाद भी इसके तहत दर्ज मामलों के निपटारे में अत्यधिक शिथिलता देखी जा रही है। इस कानून के तहत जितने दोषियों को सजा मिल रही है, उससे तीन गुना ज्यादा रिहा हो रहे हैं। सबसे बुरा हाल आंध्र प्रदेश का है। वहां पॉक्सो एक्ट के सबसे ज्यादा आरोपी बरी हो रहे हैं। वहां एक मामले में आरोपी दोषी ठहराया जाता है, तो सात मामलों में आरोपी बरी हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल में भी एक मामले में आरोपी दोषी ठहराया जाता है, तो पांच में आरोपी बरी हो रहे हैं। देश भर में करीब 94 फीसद मामलों में ऐसा ही हो रहा है।
देश की पॉक्सो अदालतों में लंबित मामले प्रति वर्ष 20 फीसद से भी ज्यादा की दर से बढ़ रहे हैं। 2012 में बच्चों से दुष्कर्म के 8541 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2021 में इनकी संख्या 83348 हो गई। सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में लंबित हैं, जहां नवम्बर, 2012 से फरवरी, 2021 के बीच पॉक्सो के तहत दर्ज मामलों में से 77.77 फीसद मामले लंबित पाए गए। देश में सर्वाधिक लंबित पॉक्सो मामलों वाले पांच जिलों में से भी चार जिले (लखनऊ, बदायूं, प्रयागराज और हरदोई) उत्तर प्रदेश के हैं जबकि पांचवां जिला पश्चिम बंगाल का हावड़ा है। पॉक्सो एक्ट के तहत वारदात से लेकर अदालत के फैसले तक के लिए एक वर्ष की अधिकतम अवधि तय की गई है, लेकिन चंडीगढ़ तथा पश्चिम बंगाल ही ऐसे राज्य हैं, जहां एक साल में केस निपटाए जा रहे हैं वरना तो पॉक्सो का एक मामला निपटाने में औसतन 510 दिन का समय लग रहा है। 10 फीसद से ज्यादा मामलों में तो तीन साल से भी ज्यादा समय लग रहा है, और राजधानी दिल्ली में ऐसे मामलों को निपटाने का औसतन समय देश में सर्वाधिक करीब साढ़े तीन माह (1284 दिन) हैं, जहां औसतन 593 दिन तो सबूत जुटाने और पुष्ट करने में ही लग रहे हैं।
दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा पिछले दिनों आयोजित पॉक्सो10 कॉन्फ्रेंस में यह खुलासा भी हुआ कि दिल्ली में पॉक्सो के करीब 88 फीसदी मामले लंबित हैं। सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स एंड सिविक डेटा लैब (HAQ) के अध्ययन ‘अनपैकिंग ज्यूडिशियल डेटा एंड ट्रैक इम्प्लीमेंटेशन ऑफ द पॉक्सो एक्ट इन असम, दिल्ली एंड हरियाणा’ के अनुसार 2012-20 के बीच 19783 मामलों को ट्रैक किया गया और अध्ययन में असम में 74 फीसद तथा हरियाणा में 60 फीसद पॉक्सो के लंबित मामलों को दिखाया गया। 2012 से 2021 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि बच्चों के यौन शोषण के मामलों में 94 फीसद आरोपी पीड़ित या उसके परिवार के परिचित होते हैं, केवल 6 फीसद मामलों में ही आरोपी ने वारदात से पहले बच्चे को कभी नहीं देखा था। बच्चियों के यौन शोषण के मुकदमों में तो 48.66 फीसद परिचत आरोपी पाए गए। बच्चों पर यौन हमले के प्रभाव के बारे में यूनिसेफ इंडिया में बाल संरक्षण प्रमुख सोलेदाद हेरेरो का कहना है कि जिन वयस्कों ने बचपन में यौन शोषण का सामना किया है, उनमें वयस्कता में हिंसा करने की संभावना सात गुना और आत्महत्या करने की संभावना 30 गुना ज्यादा होती है।
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