विमर्श : बाबाओं की दुनिया
संस्था या संगठित धर्म से पाखंड अथवा मिथ्याचार का एक संबंध रहता है। जो संस्था जितनी पुरानी है, उसमें उतना ही पाखंड। इससे मुक्ति का एक ही उपाय है कि संस्थाओं का निरंतर परिमार्जन होता रहे।
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जैसे सुथरा बने रहने के लिए नित-निमज्जन अपरिहार्य है, वैसे ही संस्थाओं के लिए सतत परिमार्जन। इसके अभाव में संस्थाएं अश्लील और पुरातन होने लगती हैं। उनकी प्रणवता (नित नया होने की प्रवृत्ति) का अंत हो जाता है। भारतीय मनीषा में ईर को प्रणव कहा गया है, तब इसके अर्थ हैं। ईर को थका-हारा और विवश देखना ऋषियों को स्वीकार नहीं था। यह हमारे भारत का आध्यात्मिक नजरिया रहा है।
हर धर्म में परिमार्जन की प्रवृत्तियां रही हैं। सनातन हिंदू धर्म के बीच ही कई बार कई लोगों ने परिमार्जन किया। बुद्ध वगैरह पर मतभेद हो सकता है, लेकिन वसवन्ना, नानक, कबीर पर कोई मतभेद नहीं होगा। उन्होंने हिंदू धर्म को संवारा। आधुनिक जमाने में राममोहन राय, विद्यासागर, दयानन्द, जोतिबा फुले, रामकृष्ण, विवेकानंद जैसे लोगों ने इसे संवारा। इस्लाम के बीच सूफीवाद का विकास हुआ। ईसाईयों के बीच प्रोटोस्टेंट आए। इन तमाम धर्मो के सुधार आंदोलनों से संबद्ध धर्मो को नई ऊर्जा मिली। जैसे कोई सर्प अपनी केंचुली उतार कर ऊर्जावान होता है, कुछ वैसे ही, लेकिन कुछ लोगों को सनातनता बहुत प्रिय है। इसलिए कि इसमें उनके निहित स्वार्थ सुरक्षित होते हैं। पुराने खोल में जीने का भी अपना आनंद होता है। आर्कीडिया-विलास का अपना सुख होता है। शहरों के वातानुकूलित कैफेटेरिया में बैठ कर अमराई और धान के बिचड़े गोड़ती महिलाओं पर कविताएं लिखना लोगों को अच्छा लगता है। गांव के कीचड़-कादो उन्हें उत्साहित करते हैं, लेकिन रहना वे चाहेंगे महानगर में ही। इसी तरह कुछ लोग तमाम तरह के आधुनिक सरअंजामों-सुविधाओं और विचारों के बीच सनातन का एक स्वांग सजा कर रखना चाहते हैं। विकास के दौर में पुरानी दुनिया तेजी से छूट रही है उतनी ही तेजी से उसके प्रति एक नॉस्टेल्जिया विकसित हो रहा है।
हमारे जो लोग विदेशों में हैं, उनके मन में अपने किस्म का एक डायस्पोरा संस्कृति विकसित हो रही है। गंगाजल, हनुमान चालीसा, बाबा, मंत्र, भभूत उन्हें कुछ ज्यादा रोमांचित करते हैं। मैं पिछले दिनों एक बाबा को लेकर कोहराम देख रहा था। मेरे ध्यान जाने का एक कारण यह रहा कि यह कोहराम हमारे नौबतपुर में हो रहा था, जहां मेरा बचपन गुजरा है, आरंभिक पढ़ाई -लिखाई हुई है। वह मेरा कस्बा है। सुना है लाखों की भीड़ एक बाबा को देखने-सुनने के लिए उमड़ी पड़ी थी। हमारा इलाका इतना बाबा प्रिय कभी नहीं रहा था। पुराने दिन याद आए जब हम युवा थे। हमारा नौबतपुर स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन का इलाका था। बगल में बिहटा है, जहां स्वामी जी का आश्रम था। हमारे युवा काल में नौबतपुर में मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी थी। मैं कम्युनिस्ट पार्टी का अठारह की उम्र होते सदस्य बना था, जब कि मेरे पिता कांग्रेस नेता थे। याद है हम लोगों ने रामचरितमानस की चार सौवीं जयन्ती समारोह, जो रामायण मेला के रूप में आयोजित होने जा रहा था, नहीं होने दिया था। आयोजकों में मेरे पिता भी थे। हमें अपने नौबतपुर पर थोड़ा गुमान रहता है, लेकिन उसी नौबतपुर को आज एक बाबा ने अपने कोहराम से रौंद दिया। सुना वहां धूल के बगूले उठ रहे थे। खाने-पीने की सामग्रियों का अभाव हो गया था। सैकड़ों लोग भीषण गर्मी से गश खाकर बीमार पड़ गए। इन सब के बीच से बाबा का उद्घोष हुआ है कि पांच करोड़ लोग जिस रोज तिलक लगा कर कूच कर जाएंगे, उसी रोज यह भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा।
ओह ! बिहार में युवकों को रोजगार नहीं है। किसानों को खाद-पानी-बाजार की सुविधा नहीं है, स्कूल और अस्पताल बदहाल हैं, लेकिन कुछ लोगों को हिंदू राष्ट्र की पड़ी है। उसमें भी तब जब हमारे बगल में एक मुस्लिम राष्ट्र में रोटियों के लाले पड़े हैं। वहां जनता तबाह है। राजनीतिक तौर पर अफरा-तफरी की स्थिति है। क्या हिंदू भारत मुस्लिम पाकिस्तान का ही प्रतिरूप नहीं होगा? गांधी-नेहरू-आंबेडकर-पटेल जैसे लोग न होते तो यह पाकिस्तान के साथ ही हिंदू राष्ट्र बन गया होता। और अब तक भीख का कटोरा लिए अमीर देशों के दरवाजे पर खड़ा होता, जैसे आज पाकिस्तान है।
बाबाओं और मुल्लाओं के पीछे एक बड़ी साजिश हमेशा रही है। इसे समझा जाना चाहिए। धार्मिंकता और आध्यात्मिकता के औचित्य से इनकार नहीं करता हूं। बल्कि व्यक्ति स्तर पर मैं थोड़ी रुचि रखता हूं। बौद्ध दर्शन के प्रति मेरा आकषर्ण है, जिसे मैं हिंदुत्व का ही विकास मानता हूं। संस्कृत और पाली-प्राकृत के प्रति भी मेरा वैसा ही आकषर्ण है जैसा कुछ लोगों का ग्रीक और लैटिन के प्रति। लेकिन हर अंधविास का मैं विरोध करता हूं, क्योंकि यह हमारी चेतना को बाधित करता है। धर्म आडम्बर की चीज नहीं, धारण करने की चीज है। मनुष्यता का पहला धर्म है कि वह अन्य यानी दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करें। पारसी लोग धर्म पालन करने में सबसे कट्टर होते हैं, लेकिन वे अपने होने और दूसरों पर लादने का कोहराम नहीं करते। अपने में डूबे होते हैं। धर्म चिल्लाने की चीज नहीं है। प्रशांत होने की एक प्राविधि है। अपने में डूबने की एक युक्ति। इसके द्वारा हम अपने अंतर्मन को संवारते हैं, प्रणव होते हैं।
आखिर क्यों हो रहे हैं मूर्खता के ये महाआयोजन? कौन है इन सब के लिए जिम्मेदार। हम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। देश जब आजाद हुआ था, तब हमारे यहां एक रामराज परिषद् नाम की पार्टी बनी थी 1948 में। करपात्रीजी उसके नेता थे। प्रथम आम चुनाव के बाद संसद में उसके तीन सदस्य थे। सुना था एक बार प्रधानमंत्री नेहरू के रास्ते पर करपात्री जी ने धरना दिया था। लेट गए थे। रु तबा ऐसा था कि पुलिस उन्हें छूने से डर रही थी। नेहरू अपनी कार से उतरे खींच-घसीट कर करपात्री को किनारे लगाया और निकल गए। ऐसे हमारे प्रधानमंत्री थे। और उन दिनों बुद्धिजीवी-लेखक भी आज की तरह के नहीं थे। करपात्री ने एक किताब लिखी थी- ‘मार्क्सवाद और रामराज’। तब राहुल सांकृत्यायन थे। उन्होंने इसके जवाब में एक किताब लिखी ‘रामराज और मार्क्सवाद’। करपात्री के विचारों और उनके रामराज की अवधारणा की धज्जियां उड़ा कर रख दीं। आजकल तो हमारे लेखक इन विषयों पर टिप्पणी करना अपनी तौहीन समझते हैं।
और राजनेता! वे बाबाओं के दरबार में हाजिरी लगाएंगे, मजारों पर चादरपोशी करेंगे, सरकारी धन से सरकारी जमीन पर हज भवन बनवाएंगे, सरकारी धन से इफ्तार करेंगे, अरबी टोपी पहिन कर नमाज का स्वांग कर मुसलमानों को रिझाएंगे। ऐसे लोग ही बाबाओं के लिए भी जमीन तैयार करते हैं। मुसलमानों को रिझाने के लिए आप करोगे तो कोई हिंदुओं को रिझाने के लिए करेगा ही। यह सेकुलर चरित्र नहीं है। नेहरू, सुभाष पटेल ने ऐसी नौटंकियां नहीं की थीं। इसीलिए वे लोग हिंदू महासभा, आरएसएस और मुस्लिम लीग की मजहबी राजनीति से टकरा सके थे। देश में वैज्ञानिक चेतना का विकास हो इसकी कोशिश होनी चाहिए। नेहरू इसे साइंटिफिक टेम्परामेंट कहते थे। धर्म-अध्यात्म को भी हम इसी परिदृष्टि से देखें। लोहिया ने पौराणिकता की भी खूबसूरत व्याख्या की थी। उनके चेलों में उसके विकास करने की कुव्वत नहीं हुई। होनी चाहिए थी। नई पीढ़ी को इन सब से सीखना चाहिए। अब तो उन्हीं के हाथों में इस देश का भविष्य है।
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