मध्य पूर्व : चीनी घुसपैठ के मायने

Last Updated 19 Apr 2023 01:44:14 PM IST

मध्य पूर्व में चीन अपने आर्थिक सहयोग मॉडल वन प्लस टू प्लस थ्री (one plus two plus three) को नई रफ्तार देने में कामयाब हो गया है।


मध्य पूर्व : चीनी घुसपैठ के मायने

इसमें सबसे पहले ऊर्जा, दूसरे क्रम पर बुनियादी ढांचे के निर्माण, व्यापार और निवेश को बढ़ावा देना तथा अंत में नाभिकीय ऊर्जा, एयरोस्पेस सैटेलाइट्स और नई ऊर्जा जैसे हाई-टेक क्षेत्रों में अहम कामयाबियों का नंबर आता है। इन सबके बीच अमेरिकी कूटनीतिक नाकामियों वाले इलाकों पर इस समय चीन की गहरी नजर है, और मध्य पूर्व में उसके आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं भी नजर आती हैं।

कई वर्षो से चीन (China) अपनी महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना (Belt and Road Project) के तहत कई देशों में करोड़ों डॉलर का निवेश करता रहा है। चीन और खाड़ी देशों के बीच मुक्त व्यापार को लेकर वार्ताएं करीब एक दशक से चल रही है। चीन इस इलाके में शांति स्थापित करके न केवल अपने व्यापरिक साम्राज्य को बढ़ाने को कृतसंकल्पित है, बल्कि वह सामरिक बढ़त भी लेना चाहता है। वैश्विक स्तर पर इस सहयोग का व्यापार से ज्यादा कूटनीतिक प्रभाव देखने को मिल सकता है।

दरअसल, मध्य पूर्व में महाशक्तियों के बहुत सारे हित हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति (International politics) में शक्ति संतुलन को लेकर एक महत्त्वपूर्ण मान्यता है जिसके अनुसार राष्ट्रों के महत्त्वपूर्ण हितों को या तो खतरा उत्पन्न होता है, या उनके लिए संकट की सम्भावना हमेशा बनी रहती है। ऐसा न होता तो राष्ट्रों को उनकी रक्षा के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती। महाशक्तियों के हित और शक्ति संतुलन के बीच तेल संपदा का भी एक महत्त्वपूर्ण द्वंद्व है, जो शह और मात के खेल को पश्चिम एशिया तक खींच लाता है। ये महाशक्तियां मध्य पूर्व की राजनीति, कूटनीति और आर्थिक नीति को रणनीतिक रूप से प्रभावित करने के लिए शह और मात का खेल खेलती रही हैं। इसमें तेल की राजनीति के साथ मजहब की जोर आजमाइश को बढ़ावा दिया गया है।

विश्व के संपूर्ण उपलब्ध तेल का लगभग 66 प्रतिशत ईरान की खाड़ी (Gulf of Iran) के आसपास के इलाकों, जिनमें मुख्य रूप से कुवैत, ईरान और सऊदी अरब में पाया जाता है। सोवियत संघ और अमेरिका तो तेल के मामले में आत्मनिर्भर हैं, लेकिन यदि यूरोप को इस इलाके से तेल प्राप्त होना बंद हो जाए तो उसके अधिकांश उद्योग-धंधे बंद हो जाएंगे और इस प्रकार दुनिया के सबसे बड़े विकसित यूरोप महाद्वीप की औद्योगिक और सामरिक क्षमता बर्बाद हो जाएगी। यही कारण है कि पश्चिमी देश मध्य पूर्व पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं। इस स्थिति को चीन ने बदलने की ओर मजबूती से कदम बढ़ाए हैं। अमेरिका (America) और यूरोप (Europe) खाड़ी देशों के मध्य विवाद को बढ़ाकर अपना प्रभाव कायम किया वहीं चीन की नीति थोड़ी अलग है। चीन नकारात्मक संतुलनकारी उपायों यानी एक पक्ष के साथ रिश्ते खराब होने के डर से दूसरे पक्ष के साथ सहयोग को सीमित करने की कवायदों से परहेज करना चाहता है क्योंकि इस तरह इलाके में चीन की गतिविधियों का दायरा सीमित हो जाएगा। चीन सभी को साथ लेकर ही अपनी आर्थिक गतिविधियों को बढ़ा सकता है। इसके लिए जरूरी था ईरान और सऊदी अरब की प्रतिद्वंद्विता को रोकना, अब इस कठिन और दुष्कर कार्य को करने में सफल होकर चीन में अहम बढ़त हासिल कर ली है।

2011 की अरब क्रांति के बाद मध्य पूर्व के कई देशों में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है, और इसका व्यापक असर ईरान और सऊदी अरब (Saudi Arab) की प्रतिद्वंद्विता पर हुआ है। इन स्थितियों में नये राजनीतिक और सामरिक समीकरण भी बने और दुश्मन का दुश्मन दोस्त की तर्ज पर इस्राइल (israel) तथा सऊदी अरब के संबंधों में अप्रत्याशित रूप से ईरान के विरोध को लेकर लगातार एकरूपता दिखाई दी थी। यह ईरान और सऊदी अरब की दुश्मनी को बढ़ाने का अमेरिका का तरीका था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद खाड़ी के देशों में आपसी संघर्ष लगातार बढ़ा पर इसे रोकने में न तो अमेरिका ने दिलचस्पी दिखाई और न ही यूरोप ने कोई प्रभावी प्रयास किए। इसके विपरीत खाड़ी देशों के तेल संसाधनों के दोहन में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई गई। गहरे धार्मिंक और सामरिक मतभेदों के चलते ईरान और सऊदी अरब को साथ ले आना बेहद अकल्पनीय माना जाता था जिसे चीन ने अब संभव कर दिखाया है। 

इसका फायदा पाकिस्तान (Pakistan) को मिल सकता है पर भारत की चिंताएं बढ़ सकती हैं। ईरान (Iran) भारत के लिए सामरिक और आर्थिक रूप से बेहद अहम है। यह यूरेशिया और हिन्द महासागर (Eurasia and the Indian Ocean) के मध्य ऐसा प्रवेश द्वार है जहां से भारत की पहुंच यूरोप और रूस (Europe and Russia) के बाजारों तक आसानी से हो सकती है।  दो दशक पहले एक उत्तर दक्षिण कॉरिडोर के निर्माण का जो सपना भारत ने देखा था, वह ईरान के सहयोग के बिना कभी पूरा हो ही नहीं सकता। 2014 में भारत ने उत्तर दक्षिण पारगमन गलियारे के आसपास एक सफल ट्रायल रन का आयोजन किया था। भारत अफगानिस्तान और मध्य एशिया क्षेत्र के लैंड लॉक्ड  देशों के साथ संपर्क बढ़ाने की नीति पर लगातार काम कर रहा है। पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के लिए भी ईरान भारत का मददगार है। पाकिस्तान की भारत के साथ सबसे लंबी सीमा रेखा है वहीं इसके बाद अफगानिस्तान और ईरान हैं। ये तीनों राष्ट्र पाकिस्तान की सामरिक घेराबंदी कर पाकिस्तान पर दबाव डाल सकते हैं। इस प्रकार ईरान भारत के लिए सामरिक और आर्थिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण देश है।

अब मध्य पूर्व में चीन की बढ़ती भूमिका से भारत के आर्थिक और सामरिक हित प्रभावित होने की आशंका तो बढ़ी ही है वहीं यूरोप और अमेरिका की मुश्किलें भी बढ़ सकती हैं। तेल के भंडार वाले इन देशों को अपने प्रभाव में लाकर चीन यूरोप के व्यापारिक ढांचे को अस्त-व्यस्त कर सकता है। वैश्विक स्तर पर डॉलर पर आधारित व्यवस्था को चीन चुनौती देना चाहता है, और ऐसे में युआन उसका बड़ा विकल्प हो सकती है। यूक्रेन रूस संघर्ष (Ukraine Russia conflict) के बाद चीन और रूस के बीच व्यापार में युआन को प्राथमिकता देना महज संयोग नहीं है। जाहिर है चीन, रूस, ईरान जैसे अमेरिकी विरोधी गठबंधन में अमेरिका के मित्र राष्ट्र सऊदी अरब और कतर भी शामिल हो जाएं तो यह नई विश्व व्यवस्था के उभरने के संकेत हैं।

डॉ. ब्रहमदीप अलूने


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