सामयिक : बजट और राष्ट्रवादी विमर्श

Last Updated 18 Mar 2023 01:52:49 PM IST

आज सूचना के तमाम माध्यम इस लॉन्चिंग सिंड्रोम या फिनोमेना के शिकार हैं। यही कारण है कि सरकारों की नीति, राजनेताओं के वक्तव्य सब आज इंस्टेंट वेल्यू के साथ परोसे जा रहे हैं।


सामयिक : बजट और राष्ट्रवादी विमर्श

आज हमारा कालबोध इतना इकहरा हो गया है कि हम किसी बात के संदर्भ को उसके उत्स और विकास प्रक्रिया के साथ देखना या तो भूल गए हैं, या फिर इसे गैर-जरूरी मान बैठे हैं। देश में बजट का मौसम चल रहा है। केंद्र और राज्यों के बजट प्रस्तावों के इर्द-गिर्द जो चर्चा इन दिनों चल रही है, उसका कंपास एक बार फिर तात्कालिकता के जोर पर ही तय हो रहा है। विचार के नाम पर बजट प्रस्तावों के विश्लेषण भर सामने आ रहे हैं, और इसी के साथ सामने आ रहा है फौरी अर्थबोध का कमजोर मानसिक ढांचा। इस बीच, जो बात उभर कर सामने आ रही है, वह यह कि बजट और सरकारों की आर्थिक प्राथमिकता अब ज्यादा केंद्रीय हैं। इस बात का महत्त्व इस अर्थ में समझना जरूरी है कि राजनीतिक विचार और वक्तव्यों के आधार मात्र पर हम सरकारों की कार्यनीति को समझने की भूल करेंगे तो बड़ी गलती होगी। तुर्रा यह कि राजनीतिक द्वेष, विरोध  और प्रतिद्वंद्विता से अलग बजटीय विमर्श को जो कुछ केंद्रीय शब्द-पद चुंबकीय आकषर्ण और नियामकीय अनुशासन दे रहे हैं, वे कमोबेश एक से हैं। अगर इनके बीच कोई फर्क है तो वह यह कि इस आकषर्ण और अनुशासन के पीछे का मानस और प्रतिबद्धता कितना सघन या लचर है। केंद्रीय बजट के राष्ट्रीय महत्त्व से आगे आज देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के सालाना बजट प्रस्तावों की चर्चा हो रही है तो इसलिए कि विकास और उदारीकरण के दौर के जो पहिए रास्ते में कहीं थक गए थे, वे फिर से रफ्तार भर रहे हैं। अर्थ और विकास का समावेशी तकाजा आज सर्वसमावेशी दरकार से जुड़े पैकेजिंग तक पहुंच गया है। इसी तरह गांव और शहर के बीच फासला कम करने के लिए तमाम प्रस्ताव लाए जा रहे हैं, जिनमें किसानों, पशुपालकों, महिलाओं को लेकर ही नहीं, अलग-अलग वगरे और श्रमिक तबकों के लिए घोषणाओं का तकरीबन अंबार खड़ा किया गया है।
अंग्रेजी का एक अखबार जब उत्तर प्रदेश सरकार के सालाना बजट पर लिखता है कि संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास के लिए जब ‘लीव नो वन बिहाइंड’ का लक्ष्य सामने रखा होगा तब शायद किसी के ध्यान में नहीं आया होगा कि यह विकास के नवउदारवादी दौर का नया मार्गदशर्क सिद्धांत भी बन जाएगा। दिलचस्प यह कि इस सिद्धांत को अपने आर्थिक नवाचार और प्राथमिकता में उतारने में जो सबसे आगे है, वह देश का ऐसा राज्य है जिसके बारे में विमर्श के हमारे कीर्वड्स आज भी जाति, वर्ग और सामाजिक विभेद ही हैं। संभव है कि राजनीतिक समझ और विमर्श का यह बहुप्रचारित पिछड़ापन इस सूबे को अर्थ और विकास के नये देशकाल को रचने में मददगार भी साबित हो रहे हों। ऐसा नहीं होता तो फिर वहां योगी आदित्यनाथ की सरकार दोबारा चुनकर नहीं आती क्योंकि सामाजिक गठजोड़ के बूते उन्हें घेरने की कोशिश पिछले विधानसभा चुनाव में खूब हुई थी। आज अगर केंद्र की मोदी सरकार को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने देश में मतदाताओं की सबसे बड़ी गोलबंदी को लाभार्थी समाज के रूप में नई और कारगर शक्ल दी है, तो एक श्रेय योगी आदित्यनाथ की सरकार को भी जाता है कि केसरिया रंग में उनकी राजनीति से ज्यादा गहरी है उनकी विकासवादी दृढ़ता। देश का प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश को एक्सप्रेसवे स्टेट कहता है, और सूबे की एक जिले एक उत्पाद की नीति को पूरा देश अपनाता है तो ये तथ्य किसी मामूली बदलाव के नहीं हैं। 6,90,242.43 करोड़ रुपये का मेगा बजट और नई योजनाओं पर 32,721.96 करोड़ के नये बजट खर्च का एकमुश्त प्रस्ताव कोई राज्य कर रहा है तो यह कोई सामान्य घटना नहीं है।
दरअसल, भारत अब वाकई कंपटीटीव और कॉपरेटिव फेडरलिज्म के दौर में पहुंच चुका है। बजट से पहले यूपी में बहुप्रचारित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में देश का शीर्ष कारोबरी यह कहने से अपने को नहीं रख पाता कि यह विकास का महाकुंभ है, और उत्तर प्रदेश पुण्य भूमि तथा प्रभु श्रीराम की भूमि है। जिन लोगों को डबल इंजन सरकार और ग्रोथ के ऑल इन्कलूसिव होने जैसे राजनीतिक-आर्थिक तकाजों से चिढ़ है, उन्हें नये बनारस और अयोध्याधाम के दशर्न और नये तार्किक बोध के साथ न सिर्फ  उत्तर प्रदेश, बल्कि उसके साथ बदलते भारत की आर्थिक और राजनीतिक दिशा को लेकर अपनी नई समझ विकसित करनी चाहिए। समझ की यह दरकार देश में बजट के बहाने बन रही नई स्थिति को देखने-समझने के लिए इसलिए भी जरूरी है क्योंकि देश स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे करने के साथ वाकई विलक्षण दौर में पहुंच गया है।
कुछ समय में नये भवन में न सिर्फ  देश की सबसे बड़ी निर्वाचित पंचायत बैठने लगेगी, बल्कि इसके साथ ही वह दशक भी पूरा हो जाएगा जिसमें बहुत कुछ बदल गया है। बदलाव की इस मुख्यधारा से वही लोग बेखबर हैं, जो एक तरफ देश के एक छोर से दूसरे छोर को पैदल नापने का धैर्यपूर्ण उपक्रम कर रहे हैं, वहीं उनके दल के मुख्यमंत्री विधानसभा में बजट की प्रस्तुति के प्रति इतने गंभीर दिखे कि पिछले साल का बजट पढ़ने लगे। इतिहास में थोड़ा-पीछे लौटें तो बदलाव की ये रेखाएं ज्यादा गहरी दिखेंगी। गौरतलब है कि जिस द इकोनमिस्ट अखबार को आज भी अर्थ क्षेत्र में विमर्श और विश्लेषण का सबसे प्रामाणिक आधार माना जाता है, उसके संस्थापक जेम्स विल्सन ने भारत का पहला बजट 1859 में पेश किया था। 1857 के विद्रोह से आर्थिक तौर पर घबराई ब्रितानी हुकूमत ने विल्सन के बहाने भारत में आर्थिक अनुशासन और भावी दिशा को फिर से गढ़ना चाहा। वे कुछ हद तक सफल भी रहे पर आगे के करीब नौ दशक भारतीय उद्यम, पुरुषार्थ और संघर्ष का सबसे सुनहरा कालखंड साबित हुआ। इस दौरान देश ने विकास के राष्ट्रवादी मॉडल को जहां खड़ा होते देखा, वहीं हम आजादी पाने में भी सफल रहे। हालिया कुछ वर्षो में राष्ट्रवाद के साथ राष्ट्रीय विकास का जो नया फलसफा देश से लेकर राज्यों तक लोकतांत्रिक अनुमोदन प्राप्त कर रहा है, वह स्वाधीन भारत की बड़ी परिघटना है।

प्रेम प्रकाश


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