जाति जनगणना : तार्किक और समसामयिक भी
बिहार में जातिगत सर्वे की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। वैसे समूचे देश में इस कवायद की मांग कुछ राजनीतिक दल कर रहे हैं।
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बिहार ने इस दिशा में पहल कर दी है, जिसे लेकर पक्ष-विपक्ष में राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का रण चरम पर है। बिहार में जातिगत सर्वेक्षण को दो चरणों में पूरा किया जाएगा। पहले चरण में हर एक घर और घर में रहने वाले सदस्यों की उपस्थिति दर्ज होगी; और दूसरे चरण में 26 सवालों के माध्यम से हरेक व्यक्ति के सामाजिक-आर्थिक आंकड़े अंकित किए जाएंगे।
इसमें जाति, धर्म, व्यवसाय के साथ निवासियों से जुड़ी अन्य जानकारी भी सूचीबद्ध की जाएंगी। पांच लाख से अधिक कर्मचारियों के सहयोग से यह कार्य मई महीने के अंत तक पूर्ण करने की लक्ष्य निर्धारित किया गया है। ज्ञात हो कि केंद्र सरकार द्वारा मनाही के बाद राज्य सरकार ने अपने खर्च पर जातिगत सर्वे कराने का निर्णय लिया था जिसमें लगभग पांच सौ करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।
राज्य के सभी दल इस निर्णय में शामिल थे और इसके पक्ष में विधानमंडल दो-दो बार सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेज चुका था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि राज्य की जनसंख्या की सामाजिक-आर्थिक जानकारी शीघ्र ही उपलब्ध होंगी और ये आंकड़े केंद्र सरकार को भी भेजे जाएंगे। उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने इसे ऐतिहासिक कदम बताते हुए इसे लगातार रोकने के लिए भाजपा को गरीब-दलित विरोधी बताया।
वहीं नेता प्रतिपक्ष विजय कुमार सिन्हा ने इसे करदाताओं के पैसे की बर्बादी बताया और कहा कि इससे जातियों के बीच तनाव पैदा होंगे। कई मीडिया चैनल इसे मंडल-कमंडल के चश्मे से भी देखने की कोशिश कर रहे हैं, और इसके राजनैतिक इस्तेमाल पर चर्चा करने-कराने में व्यस्त हैं। आम तौर पर जानकारी और आंकड़ों से वही डरता है, जो भ्रम में जीना चाहता है। सांच को आंच क्या? गांव या पंचायत स्तर पर हर कोई अपने पड़ोसी की जाति की जानकारी रखता है। जातिगत जानकारी भर से से टकराव की स्थिति बन जाए, यह बात समझ से परे है। तथ्य है कि जिस गांव में एक ही जाति के लोग हैं, वहां कोई टकराव नहीं होता। जाति की जानकारी होने मात्र से सामाजिक संबंध और भाईचारा बिगड़ जाए, ऐसा कोई समाजशास्त्रीय दावा नहीं करता।
सनद रहे कि बिना जाति के भारतीय समाज या यूं कहें कि सनातन समाज की बनावट को समझना नामुमकिन है। दरअसल, जातिगत संरचना गैर-बराबरी पर आधारित है, और यही अन्याय का व्याकरण भी है। वर्ण व्यवस्था में संप्रभु वर्ग है, जिसने सदियों से सत्ता, सम्मान और संसाधनों पर वर्चस्व बनाकर रखा था। फलस्वरूप समाज का बहुसंख्यक हिस्सा अमानवीय शोषण का शिकार रहा है। पहली जातीय जनगणना 1931 के अनुसार हिंदू समाज का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा शोषित रहा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी इन शोषित समूहों ने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद की थी।
संविधान सभा में भी इस पर खुल कर बहस हुई थी और इसे दूर तथा दुरुस्त करने के उपचार भी इंगित किए गए। यही कारण है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण के माध्यम से मुख्यधारा में लाने के लिए क्रमश: 15 फीसदी और 7.5 फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था की गई। स्वतंत्रता के बाद से ही इनकी गिनती भी पहली भारतीय जनगणना से ही होती रही है। संविधान निर्माताओं ने समाज के एक अन्य बहुसंख्यक हिस्से को भी सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्ग के रूप में चिन्हित किया था जिन्हें मुख्यधारा में लाना सरकार की भावी जिम्मेदारी थी।
केंद्र सरकार ने 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा आयोग का गठन भी किया जिसकी रिपोर्ट 1955 में संसद के पटल पर रखी गई। लेकिन राष्ट्र-निर्माण के रास्ते में बाधा का हवाला देकर उस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। दो दशक पश्चात जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा आयोग गठित किया। मंडल आयोग ने 1980 में ही पिछड़ों को मुख्यधारा में लाने के लिए 40 सूत्री अनुशंसापत्र सरकार को सौंप दिया था। इससे पूर्व बिहार सरकार ने 1970 में मुंगेरी लाल आयोग का गठन किया जिसने 1977 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट को कर्पूरी ठाकुर ने लागू किया था।
इन तीनों आयोगों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट में जातिगत आंकड़ों की आवश्यकता का जिक्र किया। वर्तमान आंकड़े होते तो रिपोर्ट को तर्कसंगत और वैज्ञानिक बनाने में सहायक होते। विकासवादी दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो 1931 की जातीय जनगणना की जगह पर सरकार वर्तमान आंकड़ों के आधार पर नीतिगत योजनाएं बनाए तो उसके यकीनन परिणाम बेहतर हो सकते हैं। साथ ही, समाज के समावेशी विकास का पथ भी अधिक प्रशस्त होगा। इसलिए जातिगत जनगणना की मांग या कवायद ज्यादा तार्किक और समसामयिक प्रतीत होती है।
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