प्राकृतिक खेती : आजीविका और पर्यावरण के बरक्स

Last Updated 18 Jan 2023 01:43:42 PM IST

भारत जैसे विकासशील और किसान बहुल देशों में बड़े सवाल हैं कि क्या छोटे किसान टिकाऊ तौर पर निर्धनता व अभाव दूर कर सकते हैं, अपना आर्थिक आधार मजबूत कर सकते हैं?


प्राकृतिक खेती : आजीविका और पर्यावरण के बरक्स

इस दृष्टि से ऐसे कुछ छोटे व सीमांत किसानों का अनुभव प्रेरणादायक रहा है, जिन्होंने प्राकृतिक खेती को अपना कर महज एक-दो एकड़ से 10 हजार रुपये औसतन प्रति माह (या उससे अधिक) आय प्राप्त की। और अपने परिवार का पोषण सुधारा, मिट्टी की गुणवत्ता सुधार कर आय-प्राप्ति का टिकाऊ  आधार भी प्राप्त किया।

लिधौरा ताल गांव (जिला टीकमगढ़, मध्य प्रदेश) में बालचंद अहिरवाल ऐसे ही किसान हैं, जिन्होंने दो एकड़ के खेत में सब्जी, फल, दलहन व अनाज उत्पादन का ऐसा मेल किया है जिसमें रासायनिक खाद या कीटनाशक का उपयोग किए बिना सस्ती-स्वावलंबी तकनीक से मिट्टी की गुणवत्ता सुधारी जा सकती है। बालचंद सभी खर्च निकलने के बाद डेढ़ से दो लाख रुपये नकद की सालाना आय भी अर्जित करते हैं। आदर्श प्राकृतिक कृषक पुरस्कार प्राप्त बालचंद अपने दोनों बेटों को उच्च शिक्षा इसी 2 एकड़ के खेत से दिलवा पा रहे हैं (गणित हानर्स व नर्सिग की शिक्षा)। ‘सृजन’ नामक संस्था से संपर्क में आने के बाद बालचंद ने फल-सब्जी का ऐसा मेल (मल्टी लेयर) सीखा जिसमें हरी सब्जियों, कंद खाद्य, बेल सब्जियों व फलदार वृक्षों को इस तरह उगाया जाता है कि वे एक-दूसरे के लिए सहायक हों।

सृजन ने उन्हें प्राकृतिक कृषि केंद्र स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जिससे वे प्राकृतिक खाद गोबर, गोमूत्र आदि से तैयार करते हैं। पौधों की रक्षा की दवा स्थानीय तौर पर उपलब्ध विभिन्न पत्तियों (नीम, धतूरा, सीताफल) आदि के घोल से तैयार कर लेते हैं। गांव के जो किसान यह घोल तैयार करने में असमर्थ हैं, बालचंद इन्हें अतिरिक्त मात्रा में तैयार करके कम कीमत पर उपलब्ध करवाते हैं। इसी जिले के धिधौरा गांव में फूलाबाई, सरमन चदार एक समय कर्जग्रस्त थे पर प्राकृतिक खेती, बहुस्तरीय बगीचे-बाग की राह अपना कर वे मात्र एक एकड़ के खेत से ही संतोषजनक आजीविका कमा रहे हैं।

ऐसे कितने ही किसान सृजन के टीकमगढ़ कार्य क्षेत्र में प्रयासरत हैं। छोटे खेत और बगीचे में विभिन्न अनाज, दलहन, फल, सब्जी आदि का उत्पादन, पौधों की पहचान रखते हुए उनकी रक्षा करना रचनात्मक-रोचक कार्य है। जैव विविधता भरी प्राकृतिक खेती का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि मिट्टी और मौसम की सही पहचान के साथ फसल का उचित मिशण्रव अनुकूल फसल-चक्र अपनाया जाए ताकि फसल एक-दूसरे की सहयोगी हों। इसके लिए कुछ प्रशिक्षण जरूरी हो सकता है, पर साथ में किसान रोज ही कुछ नया सीखता है व पड़ौसी किसानों के साथ विमर्श से ज्ञान आगे बढ़ता है।

इसे ध्यान में रखते हुए ‘सृजन’ के विभिन्न गांवों में प्राकृतिक कृषि केंद्र (बायो रिसोर्स सेंटर) भी स्थापित किए गए हैं-जहां बालचंद, फूलाबाई जैसे अनुभवी किसान प्रशिक्षण देने का कार्य भी करते हैं। इस खेती का महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि स्थानीय बीजों व फसलों की किस्मों को एकत्र किया जाए। इस संदर्भ में भी किसानों को आत्मनिर्भर बनाया जाए। उत्तराखंड के ‘बीज बचाओ आंदोलन’ जैसे प्रयासों ने इस संदर्भ में सही राह दिखाई थी। पूरी दुनिया से यह सबक सामने आ रहा है कि जब तक बीज के संदर्भ में किसान आत्मनिर्भर नहीं होगा तब तक अन्य क्षेत्रों में भी आत्मनिर्भरता आगे नहीं बढ़ सकेगी।

आज दुनिया में एक बड़ी बहस यह है कि खेती के सही विकास की दिशा क्या है? अमेरिका जैसे देशों ने जो मॉडल अपनाया है, उसमें बड़े बिजनेस हितों का कृषि और कृषि भूमि पर नियंत्रण निरंतर बढ़ रहा है, अपेक्षाकृत छोटे व मध्यम स्वतंत्र किसान निरंतर विस्थापित हो रहे हैं। कृषि विकास की वैकल्पिक राह, जो बालचंद व फूलाबाई दिखा रहे हैं, में छोटे व मध्यम  किसान पर आधारित कृषि ही सर्वोत्तम खेती के रूप में स्थापित होती है-रचनात्मक व टिकाऊ  आजीविका की दृष्टि से, प्रकृति की रक्षा की दृष्टि से, मिट्टी को बेहतर करने और पानी की बचत की दृष्टि से।

बहस का एक अन्य मुद्दा जुड़ा है कि जलवायु बदलाव के दौर में किस तरह की कृषि व्यवस्था ठीक रहेगी। अमेरिका में जिस तरह की बड़ी कंपनियों की खेती है, उसमें रासायनिक खाद, कीटनाक खाद व फॉसिल ईधन का अत्यधिक उपयोग होता है यानी ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन अत्यधिक है। बालचंद, फूलाबाई जैसे भारत के छोटे किसान जिस प्राकृतिक खेती का प्रसार कर रहे हैं, उसमें ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन है ही नहीं और है तो न्यनूनतम, जीरो के बराबर, दूसरी ओर इससे जो मिट्टी बेहतर होती है और अधिक पेड़ लगते हैं, उससे वायुमंडल से ग्रीनहाऊस गैस सोखने की क्षमता बढ़ती है। यह जलवायु बदलाव कम करने या मिटिगेशन का पक्ष है।

दूसरा पक्ष जलवायु बदलाव एडाप्टेशन या अनुकूलन का पक्ष है, जिसका अर्थ यह है कि जलवायु बदलाव के दौर के अधिक विकट व अचानक बदलाव वाले मौसम का सामना करने में वह सस्ती, आत्मनिर्भर, टिकाऊ,  बेहतर मिट्टी, कम पानी के उपयोग वाली खेती अधिक सक्षम है। स्पष्ट है कि भारत व अन्य विकासशील देशों में ऐसी ही कृषि नीतियां अपनानी चाहिए जो छोटे किसानों व पर्यावरण रक्षा के अनुकूल हों।

भारत डोगरा


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