व्यक्ति और आस्था का टकराव
हम जानते हैं कि हमारे भीतर की आवाज मर चुकी है। हम अपनी अंतरात्मा और स्वाभिमान को जगाना भी चाहते हैं पर चीज जिंदा नहीं हो पाती।
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हम भीतर से इतने जड़ और स्पंदनहीन हो चुके हैं कि न हमारी अंतरात्मा जगती है न हमारा स्वाभिमान। घिसटते हुए, घिघियाते हुए, अपमानित होते हुए जिंदगी बिताने की हमारी आदत हमारी स्थिति को निरीह और दयनीय बना देती है। मौजूदा स्थिति में नैतिकता का विघटन और आस्था के प्रति मोहभंग सर्वत्र दिखाई देता है।
तमिल डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर लीना मणिमेकलाई की डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘काली’ को लेकर देश में जिस तरह आक्रोश फूटा है और उसे ‘ईश निंदा’ का मामला बताकर जिस तरह लीना को तत्काल गिरफ्तार करने की मांग उठने लगी है। इसके उलट वे निशाना साधते हुए कहती हैं कि ‘संघ परिवार धार्मिंक कट्टरता से भारत को नष्ट करना चाहता है। हिंदुत्व कभी भारत नहीं बन सकता।’ अपने एक और ट्वीट में उन्होंने कहा कि कि मेरी काली हिंदुत्व का विनाश करने वाली है। हैरानी की बात है कि देश भर में प्रदर्शन और हो-हल्ले के बाद भी मणिमेकलाई टस से मस होने को तैयार नहीं। समस्त भारत की आस्था और धर्म के केंद्र में देवी दुर्गा आराध्य और अधिष्ठात्री रूप में विराजमान रही हैं। हिंदू धर्मावलंबियों ने समस्त चराचर में देवी के समस्त रूपों को समवेत और अनिर्वचनीय रूप में स्वीकारा है।
काली आसुरी शक्तियों की विध्वंसक रूप में स्त्री शक्ति की प्रतीक रही है। फिल्मकारों द्वारा आस्था और धर्म को सार्वजनिक रूप से उपहास के केंद्र में लाना अत्यंत चिंताजनक और गंभीर है। हाल के वर्षो में धर्म और आस्था के प्रतीक चिह्नों और उसकी व्यंग्यात्मक व्याख्या के दौर का चलन शुरू हुआ है, जिसे सिनेमा ने बढ़-चढ़ कर फिल्मांकित किया है। आस्था के प्रतीकों पर लगातार प्रहार के ऐसे कई मामले हैं, जहां हिंदू देवी-देवताओं को निकृष्ट और आधारहीन दिखाने की कोशिश की गई है। सवाल है कि फिल्मकारों द्वारा इसके विवादित पक्ष को ही क्यों उठाया जाता है। इसे रचनात्मक, सारगíभत और आदर्शवादी रूप में भी जनता के समक्ष परोसा जा सकता था। क्या यह तथाकथित फिल्मकारों की खोखली लोकप्रियता और छद्म शोहरत पाने की सुविचारित कोशिश है या फिर इसके लिए हमारे अपने संस्कार और समाज जिम्मेदार हैं। अनेक स्तरों पर पिछड़ेपन से आक्रांत होने के चलते हम अपनी मूल्यवान आस्था खो रहे हैं। पारंपरिक मूल्यों के प्रति हमारी विरक्ति, वितृष्णा या लापरवाही की मुद्रा कहीं हमारे धार्मिंक मूल्यों को तोड़ न दे इसका ध्यान रखना होगा। कुछ दशकों में इन फिल्मकारों और कहानीकारों के छद्म निरूपण के चलते समाज में लोगों की नैतिक आस्थाएं और विश्वास कुछ ढीले पड़े हैं।
संवेदना, दृष्टिकोण और मानसिक धरातल पर परिवर्तन की इस विकृत रेखा से हमारी पीढ़ियों के धार्मिंक धरोहर नष्ट-भ्रष्ट हो सकते हैं। हो सकता है ऐसे सतत कुप्रयास से आने वाली नस्लें धार्मिंक मान्यताओं और आस्थाओं को सिरे से नकार सकती है। इसलिए अपने अनुभव से अलग होकर हमें तटस्थ और निस्संग भाव से इस पर विचार करना होगा। लीना जैसी फिल्मकार आखिर किस रास्ते पर हमारे समाज को ले जाना चाहती हैं? अवसरवाद और छद्म लोकप्रियता की यह कंकटाकीर्ण राह हमारे अतीत के धार्मिंक मूल्यों को निगल ले; इससे पहले विकृतियों के सभी दरवाजे बंद किए जाने चाहिए।
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