प्लास्टिक पर रोक : आमजन की सहभागिता जरूरी
नीदरलैंड में 22 लोगों पर हुए एक अध्ययन ने पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया है।
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अध्ययन के अनुसार 77 प्रतिशत लोगों के खून में माइक्रोप्लास्टिक के कण पाए गए जो न सिर्फ शरीर के अंगों के लिए खतरनाक हैं, बल्कि कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों को भी बढ़ावा देंगे। अध्ययन के अनुसार 50 प्रतिशत लोगों में पॉलीइथाइलीन टेरेफ्थेलेट (पीईटी) प्लास्टिक था, जो आम तौर पर पेय की डिस्पोजेबल बोतलों में उपयोग होता है। छत्तीस प्रतिशत लोगों में पॉलीस्टाइनिन पाया गया जिसका प्रयोग भोजन और अन्य उत्पादों की पैकेजिंग के लिए किया जाता है, और 23 प्रतिशत लोगों में पॉलीइथाइलीन मिला है, जिसका उपयोग प्लास्टिक वाहक बैग में किया जाता है।
अभी तक माइक्रोप्लास्टिक समुद्री जीवों एवं पर्यावरण में होने पर चर्चा हुआ करती थी परंतु एनवायरनमेंट इंटरनेशनल जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन ने मानव स्वास्थ्य को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। यद्यपि यह अध्ययन बहुत कम लोगों पर हुआ है परंतु इसके परिणाम ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर, हम विकास की किस दिशा में जा रहे हैं। प्लास्टिक का उपयोग हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुका है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत प्रति वर्ष 13 मिलियन टन प्लास्टिक का उपभोग करता है, जिसमें से 40 प्रतिशत प्लास्टिक का उपयोग सिंगल यूज पैकेजिंग में किया जाता है। 13 मिलियन टन में से केवल 4 मिलियन टन की रिसाइकलिंग ही हो पाती है। शेष 9 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट डिकम्पोज न होने से भूमि को बंजर बनाता है। जलने के बाद प्लास्टिक अपशिष्ट पर्यावरण को ही प्रदूषित नहीं करता, बल्कि माइक्रोप्लास्टिक कणों के रूप में मानव शरीर में भी प्रवेश कर जाता है। नदी-नालों से होता हुआ यह अपशिष्ट समुद्र तक पहुंच जाता है। महासागरों में सालाना 11 मिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा प्रवेश करता है।
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा लागू प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन अधिनियम, 2021 के अनुसार 1 जुलाई, 2022 से केंद्र सरकार द्वारा सिंगल यूज प्लास्टिक के कचरे के प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में रखते हुए इसके निर्माण, आयात, भंडारण, वितरण ब्रिकी और उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, जिसमें पॉलिस्टाइरीन और एक्सपेंडेट पॉलिस्टाइरीन वस्तुएं भी शामिल हैं। इनके अंतर्गत कटलरी, ईयरबड्स, आइसक्रीम स्टिक, प्लास्टिक के झंडे, थर्मोकॉल आदि शामिल हैं। अधिनियम में प्लास्टिक बैग की मोटाई को 50 माइक्रोन से धीरे-धीरे बढ़ा कर 120 माइक्रोन तक करना है। सरकार का उद्देश्य जूट एवं कृषि उत्पाद को पैकेजिंग विकल्प के रूप बढ़ावा देना है, जो मक्का, आलू, स्टार्च, सोया प्रोटीन, लैक्टिक एसिड जैसी नवीकरणीय सामग्रियों से बने होते हैं। देश को प्लास्टिक मुक्त बनाने के लिए अनुसंधानों पर विशेष ध्यान देने के साथ-साथ सरकार द्वारा लागू प्लास्टिक मैनेंजमेंट नीति की कमियों को भी दूर करना होगा। इसके अंतर्गत कंपनी को अपने उत्पाद की पैकेजिंग में प्रयुक्त प्लास्टिक के अपशिष्ट को एकत्र करने के लिए जिम्मेदार बनाया गया है, जिससे प्लास्टिक अपशिष्ट की रिसाइकलिंग की जा सके। इन प्रावधानों से बचने के लिए कंपनियां अन्य विकल्पों का प्रयोग करती हैं। जिस प्लास्टिक की रिसाइकलिंग के लिए महंगी तकनीकी की आवश्यकता होती है, कंपनियां उससे भी बचती हैं। सरकार के नियम एवं अधिनियम तब तक कारगर नहीं हो सकते जब तक इसमें आम आदमी की सहभागिता नहीं होगी। मानव जागरूकता से ही परिवर्तन की शुरुआत होती है। प्लास्टिक के डिब्बों में गर्म खाना, प्लास्टिक के मग और कप में गर्म पानी, चाय या काफी पीने से परहेज करना होगा। टी बैग्स, जो पॉलीप्रापलीन से बने होते हैं, पर प्रतिबंध होना चाहिए। अनुसंधान बताते हैं कि एक लीटर बोतलबंद पानी में 10.4 माइक्रोप्लास्टिक पाए जाते हैं।
जूस पीने वाले स्ट्रा में पॉलीस्टीरीन का प्रयोग होता है। आटा, दाल, चिप्स, सैसे आदि सभी चीजें प्लास्टिक के बैग्स में ही आती हैं, इनके रैपर से भी माइक्रोप्लास्टिक शरीर में पहुंचने की संभावना रहती है। समुद्री जल में माइक्रोप्लास्टिक नैनो प्लास्टिक में परिवर्तित हो जाता है। समुद्री उत्पादों के भोजन में प्रयोग से नैनो माइक्रोप्लास्टिक मानव शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक नियम-कानूनों के बावजूद इसे रोकना चुनौती से कम नहीं है। इसलिए मानव स्वास्थ्य ही प्रमुख मुद्दा होना चाहिए। स्थितियां बदलने एवं बेहतर समझ विकसित करने के लिए जन आंदोलन जरूरी है। केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका के साथ-साथ निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाना होगा जो स्थानीय स्तर पर प्रभावी रूप से कार्य कर सकें। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि प्लास्टिक नीति और प्रबंधन, मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव न डालें।
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