हिजाब : ‘पसंद के चुनाव’ की तात्पर्यता!

Last Updated 10 Feb 2022 12:07:18 AM IST

हाल में मैंने सोशल मीडिया पर डॉ. शशि थरूर द्वारा लिखित कर्नाटक गवर्नमेंट कॉलेज में लड़कियों के हिजाब पहन कर कॉलेज में प्रवेश पर लगी पाबंदी से संबंधित पोस्ट देखा जिसमें वे ऑक्सफोर्ड इंग्लिश की विशिष्टता लिए अपनी अनूठी शैली में हिजाब की तुलना हिंदुओं के माथे पर तिलक, सिख की पगड़ी और ईसाई द्वारा पहना किए क्रूस से करने को प्रवृत्त हुए हैं।


हिजाब : ‘पसंद के चुनाव’ की तात्पर्यता!

उनका विचार था कि हिजाब पहनने वाली महिलाओं को कॉलेजों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए तो किसी दूसरे धार्मिंक चिह्नों को भी अनुमति नहीं होनी चाहिए। कहा कि हमें महिलाओं को तय करने देना चाहिए कि उन्हें हिजाब पहनना है या नहीं, और, सामान्य तौर पर मैं आगे स्क्रॉल करना जारी रखता और उनके धर्मनिरपेक्ष रुख की सराहना करता लेकिन इन दिनों मैं सतीश चंद्र लिखित इतिहास पाठ्यों के कारण मुझमें रोपित अपने स्वयं के ज्ञानात्मक पक्षपातों पर गंभीरता से जूझ रहा हूं।
एनसीईआरटी की किताबों, जो मुझे एक बच्चे के रूप में दी गई थीं, ने मुझमें धर्मनिरपेक्षता की एक विकृत अवधारणा आसवित की, जहां अच्छा और परिष्कृत व्यक्ति होने के नाता विशेष अचेतन तुष्टिकरण से जुड़ा था, बल्कि सभी प्रकार की मुस्लिम प्रथाओं के लिए औचित्य खोजना और इस मामले में अपरिहार्य का बचाव करना ध्येय था। हिजाब! जैसा कि हमें बताया गया था, शालीनता का परिधान होता है, या कहें कि संस्कृति विशिष्ट पोशाक है, जिसे कुछ महिलाएं अपनी पसंद से चुनती हैं, जिसकी तुलना पैंट-सूट छोड़ साड़ी पहनने के चुनाव से की जा सकती है। लेकिन क्या हिजाब वाकई इतनी सीधी-सादी हानिरहित पोशाक है? या हमारी छद्म धर्मनिरपेक्षता हमें दूध को दूध और पानी को पानी कहने से रोकती है? हिजाब लैंगिक भेदभावपूर्ण प्रथाओं की परिणति है जो धार्मिंक विश्वास से सिंचित होकर नैतिक स्वीकृति और सामाजिक आज्ञाकारिता प्राप्त करता है।

हिजाब शारीरिक रूप से महिलाओं को दुनिया के साथ स्वतंत्र रूप से बातचीत करने से नहीं रोकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि हिजाब पहनने वाली महिला अपने को अलग महसूस करने हेतु धर्म द्वारा सामाजिक रूप से प्राणुकूलित होती हैं। डॉक्टर या वैज्ञानिक या व्यवसायी महिला बनना आसान नहीं है। हिजाब पहने हुए तो यह निर्विवाद रूप से और भी कठिन है। महिलाओं के लिए यह जितना कठिन होगा, शिक्षा या रोजगार के क्षेत्र में आपको उतनी ही कम महिलाएं मिलेंगी। हिजाब धर्म तंत्रानुसार बाध्यातित और मोर्चाबंद पुरुष-आधिपत्य का प्रतीक है, जिससे कुछ सरकारी कॉलेज लड़ने की कोशिश कर रहे थे। उनके प्रगतिशील इरादों को छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों के शोर-शराबे ने दबा दिया है। जो महिलाएं हिजाब पहनकर कॉलेजों में जाने की गुहार लगा रही हैं, क्या वे वास्तव में अपनी पसंद की स्वतंत्रता का प्रयोग करने में सक्षम हैं, जैसा  चितण्रथरूर ने करने की कोशिश की है। क्या वे अपने समाज के बुजुगरे को बता पातीं कि कॉलेज में हिजाब नहीं पहनना चाहतीं और तब यह एक गैर-मुद्दा होता। सच्चाई यह है कि उनके समाज के ‘बुजुगरे’ ने उन लड़कियों के कॉलेज जाने की चाहत पर, हिजाब पहनने की अपरक्राम्य अनिवार्यता निर्धारित की हुई है। महिलाएं कॉलेज के अधिकारियों से गुहार लगा रही हैं क्योंकि उनके पास उनके अपने ही सामाजिक-धार्मिंक परिवेश के खिलाफ ‘अपनी पसंद का चुनाव’ करने का कोई विकल्प नहीं है।
अपने इन तकरे के साक्ष्य के रूप में मैं उन्हीं महिलाओं में से एक के तथ्यात्मक वक्तव्य का उल्लेख कर रहा हूं, जिसमें वह कह रही है, ‘मैं अपने खुले बाल अपने भाई तक को नहीं दिखाती हूं तो गैर-मदरे को कैसे दिखाऊं।’ क्या यह वक्तव्य नहीं दर्शाता कि उक्त महिला अपने ‘बुजुगरे’ द्वारा अपने ऊपर थोपी गई दीर्घकालिक धार्मिंक बाध्यता को अपना प्रारब्ध स्वीकार चुकी है? क्या ऐसी मानसिकता लिए कोई महिला ‘अपनी पसंद के चुनाव’ की स्वतंत्रता के प्रयोग में सक्षम हो सकती है? तो! इसलिए! श्रीमान थरूर, कृपया हिजाब की ‘पसंद के चुनाव’ की तात्पर्यता के तर्क न दें! ऐसे किसी मसौदे का अस्तित्व ही नहीं है। धर्म शून्य में मौजूद नहीं होता। यह उस व्यवहार से गहराई से जुड़ा होता है, जिसे व्यक्ति प्रथा में लाता है, और यह उस समाज को गुण और चरित्र प्रदान करता है। राज्य को धर्म के दोषनिवृत्ति में दृढ़ रहना चाहिए और तुष्टीकरण की राजनीति के बहकावे में नहीं आना चाहिए। हमें एक ऐसे समाज को लक्षित रखना चाहिए जहां जेंडर-भेदभाव न्यूनतम हो और इस दृष्टिकोण से हिजाब को सिर्फ  लैंगिक सौंदर्यशास्त्र में अंतर तक सीमित नहीं किया जा सकता। थरूर जैसे लोग, जो इस परिधान के अहितकारी स्वरूप को पहचानने से इनकार करते हैं, राष्ट्र और उस समाज के लिए बहुत बड़ा नुकसान करते हैं, जिसे हम बनाने की कोशिश कर रहे हैं, और इस हेतु मैं सिर्फ  निवेदन कर सकता हूं। ज्ञानपूर्ण स्त्री और पुरु ष, चौंधियाने वाली अंग्रेजी में तर्क से नारी शक्ति की उन्नति हेतु की जा रहीं ऐतिहासिक कोशिशों को दिग्भ्रमित करने की कोशिशों को पहचानने, समझने और उन पर काबू पाने में सक्षम हैं।

गुरु प्रकाश


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