मीडिया : नेता, भीड़ें और मीडिया

Last Updated 16 Jan 2022 12:23:43 AM IST

पहले तो मीडिया के कई चैनलों ने कई दिन तक अभियान चलाया कि चुनाव रैली बंद करो। तीसरी लहर से बचना है तो रोड शोज भी बंद करो।


मीडिया : नेता, भीड़ें और मीडिया

मीडिया में बैठकर बहुत से ज्ञानियों ने बार-बार चेताया कि बंगाल के चुनावों के दौरान सभी दलों ने कोरोना नियमों की धज्जियां उड़ाई, इसलिए कोरोना की दूसरी लहर इतनी मारक रही। तीसरी लहर दरवाजे पर खड़ी है। ओमीक्रोन पैर पसार रहा है। इसलिए पांच राज्यों के चुनावों की रैलियों  की भीड़ों पर अंकुश लगाया जाएगा तभी काम चलेगा।
इसे मीडिया की चेतावनी कहें या कि चुनाव आयोग की समझ कि जब उसने चुनावों की तिथियां घोषित कीं तो कोरोना महामारी को रोकने के लिए रैलियों आदि पर भी पाबंदी लगा दी। प्रचार के वैकल्पिक तरीकों पर भी जोर दिया और कहा कि दल और उनके नेता कोरोना नियमों का पालन करते हुए यानी मास्क लगाकर, वाजिब दूरी रखकर, घर-घर जाकर प्रचार कर सकते हैं। ‘वर्चुअल रैली’ करके या ‘ऐपों’ के सहारे अपना ‘ऑनलाइन’ प्रचार भी कर सकते हैं।
लोगों को उम्मीद थी कि आयोग की व्यवस्थाओं का  दलों पर अपेक्षित असर होगा लेकिन गत शुक्रवार के दिन ही चुनाव आयोग की व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ती दिखीं। सपा की एक बड़ी रैली में भाजपा को छोड़कर आए नेताओं का सार्वजनिक स्वागत किया गया व भाषण भी दिए गए। मंच पर यों तो बड़े-बड़े अक्षरों में ‘वचरुअल रैली’ लिखा था लेकिन इन शब्दों के अलावा सब कुछ ‘एक्चुअल’ यानी वास्त्विक रैली की तरह था : मंच के सामने दो-चार हजार की भीड़ थी जिसमें अधिकांश लोग बिना मास्क सटकर बैठे थे। मंच की कुर्सियों पर पर दो-ढाई दर्जन नेता विराजे थे।  एक दूसरे को साफे बांध रहे थे।

उन्होंने न कायदे से ‘मास्क’ लगाए थे न ‘सुरक्षित दूरी’ का खयाल रखा था। नेताओं और भीड़ एक दूसरे की पूरक थी जैसे ही कोई चुटीली बात कही जाती, सामने बैठी भीड़ हल्ला करती थी। कुछ पहले तक रैलियों को बंद करने का अभियान चलाने वाले चैनल भी इसे लाइव दिखाते रहे। चैनलों द्वारा भीड़ का विरोध सिर्फ ऊपरी था न कि उनके दिल से निकला था। कारण यह कि मीडिया स्वयं ‘भीड़ पसंद’ है। बिना उसके उसकी रोटी-रोजी नहीं चल सकती। इसीलिए चाहकर भी यह भीड़बाजी बंद नहीं की जा सकती।
‘भीड़ संस्कृति’ हमारा पसंदीदा सांस्कृतिक व्यवहार है। घर बैठे लोगों को टीवी  चैनलों में दिखती भीड़ें एक ओर डराती है कि कहीं कोरोना न फैला दें, दूसरी ओर ऐसी भीड़ें कोरोना से डरते हमारे मनों को  बाहर निकलने के लिए उकसाती भी हैं। भीड़ें ऐसा ही दोहरा अनुभव देती हैं : एक ओर डराती हैं, तो दूसरी ओर हिम्मत भी बंधाती हैं। भीड़ का मनोविज्ञान अपनी राजनीति के मनोविज्ञान से मिलता-जुलता है, और मीडिया के मनोविज्ञान से भी मिलता-जुलता है। तीनों एक दूसरे के अनुपूरक लगते हैं।
भीड़ का तर्क इस तरह से चलता है : नेता को भीड़ चाहिए। भीड़ को नेता चाहिए। मीडिया को भीड़ चाहिए। भीड़ को मीडिया चाहिए। भीड़ें अच्छा शो बनाती हैं। भीड़ें हमारे अकेलेपन को मिटाती हैं। भीड़ में शामिल आदमी एक दूसरे को न जानते हुए भी एक दूसरे को आश्वस्त सा करता है कि हम सब एक अनुभव के ‘शेयर होल्डर’ हैं। इसलिए चाहकर भी कोई भी नेता भीड़ को ‘न’ नहीं करता। भीड़ उसकी ‘पौष्टिक खुराक’ है। जितनी बड़ी भीड़, उतना ही बड़ा नेता। जितना बड़ा नेता उतनी ही भीड़।
मीडिया भी इसी नियम से काम करता है : जितनी भीड़ उतने दर्शक। भीड़ कैमरा प्रिय होती है। जिधर कैमरा होता है। भीड़ उधर देखती है। वह मीडिया के दृश्य में अपने को देखना चाहती होती है, और मीडिया इसी भीड़ को बनाकर-जुटाकर-दिखाकर अपना पेट पालता है। इसलिए जब चैनल कह रहे थे कि रैली बंद करो तो वे रैली बंद करने के लिए कहकर रैली का भाव बढ़ा रहे थे।
मीडिया अक्सर ऐसी ही ‘उलटबांसी’ से काम लेता  है कि जिसका वह विरोध करता है, वही मूल्यवान बन जाता है। यों हम में से लाख कोई कोरोना से डरे लेकिन कौन चाहता है कि सब कुछ खामोश, निचाट और निशब्द हो जाए? हम एक भीड़वादी ही नहीं, एक हल्लावादी समाज भी हैं, जिसे हर समय शोर हो-हल्ला पसंद है। अगर भीड़ न हो-हल्ला न हो तो कैसे जिएं? इसलिए लाख ‘बंद’ करें, रैली तो होंगी क्योंकि भीड़ों के बिना नेता, नेता नहीं और नेता के बिना भीड़, भीड़ नहीं और दोनों के बिना मीडिया, मीडिया नहीं।

सुधीश पचौरी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment