सामयिक : जहरीले बयानों के मायने
हाल की दो तथाकथित धर्म संसद से आए कुछ वक्तव्य न धर्मसम्मत थे और न ही उन्हें संसदीय मर्यादा के अनुकूल। ऐसा नहीं है कि धर्म संसदों में धर्म अनुरूप बातें नहीं हुई; पूरी हुई।
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दूसरी ओर ऐसी बातें कही गई, जिन्हें कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। महात्मा गांधी को उत्तेजक शब्दों से खलनायक बनाना, उनकी हत्या को जायज ठहराना तथा नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करना समझ से परे है। रायपुर से संत कालीचरण नाम के व्यक्ति ने स्वयं कहा भी कि वह अपने को संत नहीं मानते, पता नहीं उन्हें क्यों बुला लिया गया है।
आश्चर्य की बात यह है कि जब तक कालीचरण महाराज बोलते रहे किसी ने उन्हें टोका नहीं। इसी तरह हरिद्वार के धर्म संसद से एक समुदाय के विरुद्ध ऐसी आवाजें निकली, जिसकी वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी है। हरिद्वार में एक समुदाय के विरुद्ध नफरत का बयान देने वाले तीन व्यक्तियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज हुआ तो रायपुर संसद में गोडसे को प्रणाम करने वाले संत कालीचरण गिरफ्तार हैं। हां, उनकी गिरफ्तारी पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मतभेद हुआ है। मध्य प्रदेश सरकार का कहना है कि कालीचरण ने जो बोला वह गलत था, लेकिन मध्य प्रदेश से गिरफ्तारी में प्रोटोकॉल का पालन नहीं हुआ। हरिद्वार का मामला तो सर्वोच्च अदालत तक भी जा चुका है। तो देखिए देश का शीर्ष न्यायालय इस मामले में क्या करता है? हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से कालीचरण महाराज पर देशद्रोह का मामला दायर करना राज्य की शक्ति का खतरनाक दुरुपयोग है।
विडंबना देखिए कि देश का एक वर्ग, जो लंबे समय से देशद्रोह कानून के विरु द्ध आवाज उठा रहा था, उसके मुंह सील गए हैं। कालीचरण के विरुद्ध उसने झंडा उठा लिया, लेकिन देशद्रोह पर एक शब्द बोलने के लिए तैयार नहीं। इस तरह के वैचारिक अपराध की प्रतिक्रियाओं में अतिवादी विचार ही पैदा होंगे। सही है कि स्वयं को साधु, संत, साध्वी, संन्यासी मानने वालों को कम-से-कम अपनी विचार प्रक्रिया तथा अभिव्यक्ति में शब्दों पर नियंत्रण होना चाहिए। आत्मनियंत्रण नहीं है तो ऐसे लोग साधु संत नहीं माने जा सकते। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि उन्हें अपनी बात करने का हक नहीं। यह भी नहीं कि अगर उन्हें कोई मजहब, समुदाय, व्यक्ति या व्यवस्था गलत लगता है तो उन्हें बोलने का अधिकार नहीं। अवश्य बोलें, लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि वे जो कुछ बोल रहे हैं उसके अर्थ क्या हैं, उसका असर क्या होगा और उसका भारत और बाहर संदेश क्या जाएगा। यह किसी व्यक्ति के समझ और नासमझ तक सीमित भी नहीं रहता। इसका गलत संदेश जाता है तथा कुछ हलकों में भय भी पैदा होता है जिनका निहित स्वार्थी तत्व गलत लाभ उठाते हैं। गांधी जी की हत्या को जायज वही मानेंगे जिन्हें न देश, समाज की समझ है और न सच्चाई का पता। ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो इन्हें फासिस्ट, उग्र हिंदुत्व ब्रिगेड, फ्रिंज एलिमेंट, कम्युनल एलिमेंट आदि नाम देते हैं। ऐसे लोगों के बयान उनके लिए अपने को सही साबित करने के आधार बन जाते हैं।
ऐसा करने वाले भूल जाते हैं कि साधु संतों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो इस भाषा को स्वीकार नहीं कर सकते। हिंदुत्व में आस्था रखने वाले भी बड़ी संख्या में है जो ऐसी सोच के विरु द्ध हैं। हर विचार और समुदाय में कुछ नासमझ, विक्षिप्त, अतिवादी विचार वाले होते हैं और इनको उसी रूप में लिया जाना चाहिए। इन मामलों को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है मानो भारत में हिंदुत्व विचारधारा में आस्था रखने वालों की यही सोच और शैली है। यह गलत है। ध्यान रखिए, रायपुर धर्म संसद के पूर्व ही हरिद्वार धर्म संसद से आए उत्तेजक बयानों के बाद एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने जो कुछ कहा उसमें सीधी धमकी है। उन्होंने कहा कि हम मुसलमान वक्त से मजबूर जरूर हैं, लेकिन कोई इसे भूलेगा नहीं। समय बदलेगा, जब योगी मठ में चले जाएंगे और मोदी पहाड़ों में तब तुम्हें (पुलिस को) कौन बचाएगा? अपने भाषण में ओवैसी ने उत्तर प्रदेश पुलिस को डराने-धमकाने के लक्ष्य से एक मामले का भी उल्लेख किया। उन्होंने कानपुर देहात के रसूलाबाद इलाके के पुलिस इंस्पेक्टर गजेंद्र पाल सिंह की चर्चा की और कहा कि उसने बुजुर्ग रफीक अली की दाढ़ी नोची। हालांकि ओवैसी के भाषण की आलोचना हुई, लेकिन जिस तरह हरिद्वार धर्म संसद का मामला उठाया गया वैसा ओवैसी के संदर्भ में नहीं था।
सच यह है कि जिस रफीक को ओवैसी ने 80 वर्षीय बताया वह 60 वर्ष का है और बेचारा नहीं अपराधी है जो जेल की हवा खा रहा है। उस पर अनेक मामले दर्ज हैं, जिनमें एक दलित की गाय की हत्या करने, डकैती, लूटपाट, जमीन हथियाने, हत्या के प्रयास आदि शामिल हैं। मीडिया ने सामने लाया कि उसने अपनी बहू को निकाल दिया था। महिला आयोग ने मामले में दखल दिया। पिछले मार्च में आयोग के सदस्य बहू को लेकर उसके घर गए तो उसने हंगामा शुरू कर दिया। आयोग के सदस्यों के साथ पुलिस थी, जिसमें इंस्पेक्टर गजेंद्र और सिपाही थे। उसने उन पर पड़ोसियों के साथ हमला कर दिया। हमला इतना उग्र था कि इंस्पेक्टर गजेंद्र की पिस्तौल मोबाइल सब छीन लिये गए। सिपाहियों को इतनी बुरी तरह मारा गया कि वे सब कानपुर अस्पताल लाए गए। उनकी पिटाई कितनी थी इसका अंदाजा इसी से लगाइए कि उन्हें अस्पताल में दो महीने रहना पड़ा।
ओवैसी का मामला न सर्वोच्च न्यायालय गया न धर्म संसद के उत्तेजक बयानों को फ्रिंज एलिमेंट का प्रमाण बताने वालों के लिए आज यह कोई मुद्दा है। लोकतांत्रिक समाज में किसी की आलोचना हो सकती है। हमारे देश में तो ईश्वर की भी आलोचना होती है। बहरहाल, दो धर्म संसदों से आए वक्तव्यों को देखने के बाद भविष्य में आयोजकों, स्थानीय पुलिस प्रशासन, सरकार, जागरूक वर्ग सबको सचेत रहना होगा ताकि इसकी पुनरावृत्ति न हो। धर्म संसद में वक्ताओं का चयन ध्यानपूर्वक किया जाए तथा अगर कोई व्यक्ति सीमा का अतिक्रमण करता है तो उसे तुरंत रोका जाए। दूसरी ओर सत्ताधारी दल इस तरह शक्ति का अतिवादी उपयोग न करें। सच कहा जाए तो यह कानून का नहीं विचार का मामला है और इसे विचार के स्तर पर ही निपटना चाहिए।
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