मीडिया : घृणा का व्यापार और फेसबुक
जब से ‘फेसबुक’ की एक अधिकारी फ्रांसिस होजेन ने ‘सीटी बजाने वाले’ (व्हिसिल ब्लेअर) का काम किया है! लोगों का ध्यान उसके दोगलेपन की ओर गया है!
![]() मीडिया : घृणा का व्यापार और फेसबुक |
फ्रांसिस होजेन का कहना है कि फेसबुक ने अपने उपभोक्ताओं (यूजर्स) की चिंता न करके अपने मुनाफे की चिंता की! बढ़ते ‘हेट कंटेट’ (घृणात्मक अंतर्वस्तु) को हटाने की जगह उसे जस-का-तस जाने दिया और इस तरह ‘हेट कल्चर’ (घृणा की संस्कृति) को बढाने में योगदान दिया!
एक आरोप यह भी है कि उसने तीसरी दुनिया के देशों; जैसे (भारत) की स्थानीय भाषाओं में लिखे जाने वाले ‘हेट-संदेशों’ को न संपादित किया, न आपत्तिजनक सामग्री की रोका! ऐसी सामग्री को रोकने के लिए स्थानीय भाषाओं को समझने वाले जितने एक्सपर्ट चाहिए थे, उनकी नियुक्ति नहीं की! एक सूचना के अनुसार आज भारत में फेसबुक के लगभग सैंतीस करोड़ उपयोक्ता हैं! फेसबुक ने प्रथमत: चार भाषाओं-हिंदी तमिल उर्दू बंगाली-में संदेश देने के लिए डिजिटल व्यवस्था की और अंग्रेजी के माध्यम से बाईस भारतीय भाषाओं में से बारह भाषाओं में संदेश देने की सुविधा दी, लेकिन संदेश की छलनी (संपादन प्रक्रिया) नहीं पैदा की!
फेसबुक पर एक आरेाप यह भी है कि पिछले कुछ बरसों में फेसबुक पर मुस्लिम विरोधी संदेशों में कोई 300 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई है और उसमें ‘इस्लामोफोबिया (इस्लाम का डर) हावी है! इसका कारण यह बताया जा रहा है कि फेसबुक स्थानीय शासकों को नाराज नहीं करता! अपने धंधे की खातिर वह ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे शासक नाराज हों! हमारी नजर में यह तर्क एक ‘असवरवादी तर्क’ है! यानी सोशल मीडिया भी राष्ट्रीय मीडिया की तरह सत्ता का चमचा है! जिस तरह राष्ट्रीय मीडिया सत्ता के अनुकूल रहने में भलाई देखता है उसी तरह सोशल मीडिया भी आचरण करता है! यदि ऐसे अवसरवादी तर्क को आगे बढ़ाएं तो मानना होगा कि जब इसकी सत्ता बदल जाएगी तो ऐसे ‘हेट संदेश’ बंद हो जाएंगे क्योंकि फेसबुक फिर नई सत्ता का मुंह देखकर काम करने लगेगा! लेकिन क्या इतने से हेट संदेश बंद हो जाएंगे? जी नहीं! सत्ता बदलते ही कोई अन्य समुदाय किसी दूसरे समुदाय के खिलाफ अपनी हेट निकालने लगेगा! कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा कहने वाले न राष्ट्रीय मीडिया का मिजाज जानते हैं न सोशल मीडिया के मिजाज को समझते हैं! ध्यान से देखें तो मालूम होगा कि सोशल मीडिया का अपना मिजाज ‘तुरतावादी’ और ‘सतहवादी’ है!
मनोविश्लेषक बताते हैं कि सोशल मीडिया न आदमी को केवल ‘आत्मरतिवादी’ बनाता है बल्कि ‘अतिवादी’ भी बनाता है! इतना ही नहीं सोशल मीडिया आदमी को उसके ठोस देशकल से काटकर उसे ‘साइबर स्पेस’ के ‘प्रपंच’ में दाखिल करके उसे कुछ-का-कुछ बना देता है! वहां पहुंचकर हर आदमी बिना कुछ किए-धरे तुरंत ‘ब्रह्मपद’ पा लेता है। सोशल मीडिया भी ‘बॉटस’ के जरिए उसकी ‘आत्मरति’ और उसके‘दुरहंकार को बढ़ाता रहता है! घृणा अपने को श्रेष्ठ समझने के थोथे दुरहंकार का परिणाम है और अगर समाज में भी पहले से ‘हेटीला’ वातावरण हो तो ‘हेट’ की फसल और भी लहलहाती है! यही हो रहा है! इसका कारण सोशल मीडिया का ‘तुरंतावादी’ मिजाज भी है! वह ‘तुरता’ भाव से काम करता है! इसीलिए यहां सामान्य ‘बातचीत’ भी ‘हार-जीत’ में बदल जाती है! तुरंत ही जगत को जीत लेने का वहम आदमी में एक ‘हत्यारी वृत्ति’ पैदा कर देता है! आप या तो ‘पसंद’ किए जा सकते हैं या ‘नापसंद’ और इसी ‘नापसंद’ का दूसरा चरम पद है ‘घृणा’! ‘घृणा’ इसलिए भी अधिक बिकती है क्योंकि घृणा तुरंत ध्यान खींचती है। आज का सामाजिक वातावरण भी तो ऐसा है कि प्यार की भाषा की अपेक्षा घृणा की भाषा के जरिए आप लोगों का ध्यान अधिक खींच सकते हैं!
जितने जोरदार तरीके से आप किसी से ‘घृणा’ करेंगे उतने ही आप चरचा में होंगे क्योंकि प्यार की अपेक्षा ‘हेट’ सबको चौंकाती है! हम याद कर सकते हैं कि कभी ‘आई लव यू’ कहना चौंकाता था आजकल ‘आई हेट यू’ कहना चौंकाता है! ध्यान रहे ‘हेट’ मीडिया में नहीं जन्मी! वह पहले समाज में पैदा हुई है! वह बाकी मीडिया में भी है, लेकिन फेसबुक में कुछ अधिक है! बस! और हेट की भाषा भी तो एक नई भाषा है, जिसे पकड़ना कई बार नामुमकिन होता है! इसलिए हमारा मानना है कि घृणा का बाजार जब तक है घृणा बिकती रहनी है और जब लोग घृणा से उब जाएंगे तो कोई और भाव बिकने लगेगा!
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