उत्तराखंड : घस्यारियों को किया जाए हुनरमंद
बाबा साहेब आंबेडकर ने समाज की वर्ग व्यवस्था के विषय में एक बार कहा था कि ‘समाज एक मीनार की भांति है, जिसमें अलग-अलग मंजिलें हैं किंतु चढ़ने के लिए सीढ़ी नहीं है।
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जो व्यक्ति जिस मंजिल पर पैदा हुआ है उसे उस मंजिल पर ही मरना है।’ गरीबी स्वयं अपने आप में संताप है। गरीब मजदूर स्त्री अपना भरण-पोषण करने के लिए मजदूरी करती है, उसे कमाना है ताकि दो वक्त की रोटी जुटा सके। स्त्री किसी भी जाति की हो; उसका धर्म तो केवल सेवा करना है। मजदूर के रूप में उसका शोषण बाजार व्यवस्था करती है। हाल के दिनों में देश में विकास तीव्र गति से हुआ है, लेकिन पहाड़ी स्त्रियां आज भी इससे अछूती हैं।
पिछड़े वर्ग की समस्या शहरों से गांव में अधिक बदतर है क्योंकि वहां आज भी रूढ़िवादी सोच हावी है। अगर पहाड़ों की बात करें तो आज भी घस्यारी महिलाओं को दूरदराज के इलाकों में दूर-दूर तक घास काटने जाना पड़ता है। यहां पूंजीवाद और औद्योगिकीकरण की छाया तक नहीं आई है। गढ़वाल और कुमाऊं में घास काटने वाली महिलाओं को घस्यारी कहा जाता है। हाल ही में वहां ‘घस्यारी कल्याण योजना’ की शुरुआत भी की गई है। इससे पहाड़ों में पशुपालन करने वाली महिलाओं के सिर से घास का बोझ कम होने की संभावना है। उत्तराखंड की 70 फीसद से अधिक आबादी की आजीविका कृषि एवं पशुपालन पर आधारित है। एक अध्ययन के अनुसार चारा काटने के लिए महिलाओं को वहां 8 से 10 घंटे पैदल चलना पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि इस घास से पशुओं के दूध का उत्पादन बढ़ जाता है।
गढ़वाल से पौड़ी और रुद्रप्रयाग, कुमाऊं से अल्मोड़ा और चंपावत तक महिलाओं के सिर से बोझ कम करने की इस तैयारी में निश्चित ही स्थानीय प्रशासन और सरकार एक सकारात्मक कदम उठा रही है। घस्यारी औरतें पहाड़ों की बेस्ट इकोलॉजिस्ट हैं। शताब्दियों से उनकी मेहनत से पहाड़ों के जंगल और नदियां बच पाए, जिनके आधार पर आज पूरा उत्तर भारत जी रहा है, लेकिन आज यही स्त्रियां अपने अस्तित्व की लड़ाई से जूझ रही हैं। अंग्रेजों के जमाने से पहाड़ी समुदाय के लोगों को धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया। जल, जंगल और जमीन विस्तारित हुए। सामूहिक विस्थापन हुए, पर घस्यारी औरतें अपने मुस्तकबिल को सुधारने में नाकाम रहीं। सवाल है क्या सिर्फ योजनाओं के बूते सब कुछ ठीक किया जा सकता है। माना कि सरकारें और संस्थाएं इस दिशा में बेहतरी के प्रयास कर रहीं हैं, पर अब वक्त है घास काटने वाले हाथों में हुनर की कलम थमाई जाए, ताकि उन्हें भी कष्टकारी जीवन से मुक्ति मिले। स्त्रियों का शोषण चारों तरफ से होता है। उनका साथ देना तो दूर उनका कोई दुखड़ा सुनने वाला भी नहीं होता। शासन की व्यवस्था शायद कमजोर के लिए कार्य करना नहीं चाहती, प्रशासन की सुरक्षा बड़े लोगों को मिलती है, लेकिन गरीब मजदूर स्त्रियों की सुध कोई नहीं लेता।
पहाड़ की महिलाओं का प्रकृति प्रेम एक ठोस वस्तुगत सच्चाई पर आधारित है। यह सच्चाई है इनका निजी प्राकृतिक परिवेश। परंपरागत कार्यों का संरक्षण जरूरी है, लेकिन उन्हें नया रंग रूप दिया जाना भी आवश्यक है। समय के साथ उसमें यथोचित विस्तार की जरूरत है। घस्यारी महिलाएं कष्टकारी जीवन से बाहर निकलें और परिवर्तनशीलता व सार्थकता के साथ अपने सजीव अस्तित्व की चेतनामयी तलाश करें आवश्यकता इस बात की है।
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