जनसंख्या : सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है यह

Last Updated 29 Oct 2021 12:24:22 AM IST

पहले उत्तर प्रदेश में लाए गए जनसंख्या नियंत्रण विधेयक और अब सरसंघचालक मोहन भागवत के बयान के बाद जनसंख्या नीति बड़े मुद्दे के तौर पर उभरी है।


जनसंख्या : सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है यह

दरअसल, भारत में जनसंख्या को लेकर चिंता नई बात नहीं है। आजादी के तुरंत बाद 1952 में जब भारत की जनसंख्या लगभग 37 करोड़ थी तब हम शायद दुनिया के पहले देश थे जिसने जनसंख्या की स्थिरता के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया था। तब से अब तक के इतिहास को देखें तो कहना गलत नहीं होगा कि जनसंख्या नियंत्रण की जरूरत पर कमोबेश पूरे देश की आम राय है। अगर मतभिन्नता है, तो इसके तरीके पर।

जनसंख्या नियंत्रण को लेकर पूर्व के अनुभवों पर  नजर डालें तो 1951-1981 के दौर में भारत की जनसंख्या सबसे तेजी से बढ़ी। दशकों में विभाजित करके देखें तो  1951-61 के बीच जनसंख्या 1.96 प्रति वर्ष की दर से बढ़ी जो 1941-51 के बीच 1. 25 से .7 प्रतिशत अधिक थी। नतीजतन, 1961 की जनगणना में हमारी संख्या 44 करोड़ पर पहुंच गई। 1961 से 71 के बीच जहां यह 2.20 रही वहीं 1971 से 1981 के बीच अधिकतम 2.22 रही।

गौरतलब है कि 1971 से 1981 के बीच आपातकाल का वह दौर भी आया जब सरकारी स्तर पर जबरन नसबंदी करवाई गई। 1991 से 2001 के बीच जनसंख्या 21.5 प्रतिशत बढ़ी वहीं 2001 से 2011 के बीच सिर्फ  17.7 प्रतिशत रही। राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 के अनुसार 2010 तक पूरे देश की कुल प्रजनन दर 2.1 होनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और 2013 के सर्वे के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर कुल प्रजनन दर 2.3 रही। यह भी सच है कि वर्तमान में 24 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश स्थायी जनसंख्या के लिए जरूरी 2.1 प्रतिशत की कुल प्रजनन दर प्राप्त कर चुके हैं, और 9 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में यह दर 2.2  से 3.0 बीच है यानी  प्रजनन को केंद्र में रख कर बनाई गई नीतियों और उनकी सफलता पर हमारा राष्ट्रीय अनुभव मिला-जुला रहा है।

अंतरराष्ट्रीय अनुभवों के अनुसार जनसंख्या नियंत्रण के दो सबसे कारगर उपाय शिक्षा और महिला सशक्तिकरण रहे हैं, और बिहार के अनुभव भी इसी दिशा में इशारा करते हैं। 2005 में बिहार की प्रजनन दर 4.3 थी और 15 साल बाद 2020 में 3.2 थी। महिला शिक्षा के साथ जोड़ कर प्रजनन दर के आंकड़ों को देखें तो मैट्रिक तक शिक्षित महिलाओं की राष्ट्रीय स्तर और बिहार, दोनों में प्रजनन दर 2 है वहीं12वीं तक शिक्षित महिलाओं की प्रजनन दर राष्ट्रीय स्तर पर 1.7 है वहीं बिहार में 1.6 है।

दरअसल, शिक्षा प्रजनन दर को नियंत्रित करने में दो तरह से कम करती है। शादी की उम्र बढ़ा देती है तो महिलाओं को आर्थिक गतिविधियों के लिए भी प्रोत्साहित करती है। पश्चिमी  देशों में जनसंख्या और कम प्रजनन दर के पीछे कोई नीति नहीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण ही रहा है। इस अनुभव के आलोक में जनसंख्या का आनुपातिक असंतुलन धार्मिंक आधार पर देखें तो दो राय नहीं कि मुसलमानों की प्रजनन दर ज्यादा है। मगर इसके पीछे कारण क्या हैं? इसे लेकर कई प्रकार की बातें होती रही हैं। ऐसे में यह जरूर ही बहस का विषय है। पूर्वाग्रहों और बयानों से इतर तथ्यों के आधार पर देखें कि मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि की अधिकता कोई धार्मिंक या सामाजिक सोच से नहीं, बल्कि सीधा उनके शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ी है।

उच्च शिक्षित और आर्थिक रूप से सक्रिय तथा अशिक्षित और आर्थिक रूप से निष्क्रिय मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर में फर्क है यानी मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर ज्यादा होने के लिए जिम्मेदार महिला शिक्षा में मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों के बीच की चौड़ी खाई है। बिहार ने पिछले डेढ़ दशक में महिला शिक्षा में बड़ी प्रगति की है और यह प्रगति सभी समुदायों में दर्ज की गई। पिछले पांच वर्षो को ही देखें तो नियमित माध्यम से उच्च शिक्षा में लड़कियों की संख्या में 85,910 का इजाफा हुआ है। इसमें मुस्लिमो की बात करें तो शैक्षणिक सत्र 2015-16 में मुस्लिम छात्राओं की संख्या 58,037 थी जो 2019-20 में 80,567 हो गई, जो मुस्लिम छात्रों की संख्या 83,382 के लगभग बराबर है। शिक्षा का असर पड़ा और बिहार में प्रजनन दर में बड़ी कमी दर्ज हुई यानी बिहार में बिना शोरशराबे, एक ही प्रयास से मानव विकास, महिला सशक्तिकरण और जनसंख्या नियंत्रण की तीन सफलताएं प्राप्त हुई और इस बात को नीतीश कुमार ने कई मौकों पर जोर देकर कहा भी है।

जनसंख्या नियंत्रण या परिवार नियोजन पर विचार करते समय ध्यान रखना होगा कि यह कोई सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है, स्थिर जनसंख्या की दिशा में जो प्रगति बिहार ने पिछले डेढ़ दशक में प्राप्त की है, उसे ध्यान में रखते हुए नीति बनाई जाए तो वो ज्यादा स्वीकार्य और प्रभावी होगी।

तबस्सुम खातून


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