सरोकार : सभी तबकों को मिल सकेगी हिस्सेदारी?
प्रजातांत्रिक व्यवस्था को अर्थपूर्ण और प्रभावशाली बनाने के लिए उसमें समाज के सभी तबकों का समान प्रतिनिधित्व जरूरी है।
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तभी जनवादी प्रणाली स्वास्थ्य होगी। हाल में ही एक आसन्न विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए एक राष्ट्रीय पार्टी की एक महिला नेत्री ने पार्टी की 40 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं की भागीदारी का आह्वान किया है। यह स्वागतयोग्य है। कहा जा रहा है कि इससे सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी।
हमारे देश की संसदीय कार्यप्रणाली में समाज के सभी वगरे को साथ लेकर चलने और उन्हें समान अवसर देने की बात बार-बार दोहराई गई है। देश की आधी आबादी को न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में समान अवसर और एक समान प्रतिनिधित्व मिले; इसकी भी समय-समय पर अनुशंसा की जाती रही है। हालांकि राजनैतिक उदासीनता के चलते यह कोशिश अब तक सिफर रही है। हैरानी होती है जब देश की लगभग सभी प्रमुख पार्टयिों, जिनकी बागडोर कभी-न-कभी महिला नेताओं के हाथों रही, ने भी महिला आरक्षण विधेयक को लेकर संसद में कोई खास उत्साह नहीं दिखाया।
सोनिया, सुषमा, जयललिता, मायावती, राबड़ी, और ममता जैसी प्रभावशाली महिलाओं के हाथ में जब देश अपनी राजनैतिक बागडोर सौंपता है, तो निश्चित ही उनसे अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि किसी भी विधानसभा और लोक सभा में चुनी हुई महिलाओं की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक नहीं रही है। मतलब साफ है कि महिलाओं को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार और प्रतिनिधित्व के अधिकार से जानबूझकर दूर रखा जा रहा है। साल 1996 में विधानसभाओं और लोक सभा में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए पहली बार विधेयक प्रस्तुत किया गया था, लेकिन तब से लेकर आज तक उसे पारित नहीं किया जा सका है। इसके पीछे पुरु ष प्रधान मानसिकता साफ दिखती है। सवाल यह भी है कि क्या केवल 40 फीसद सीटों की घोषणा कर देने मात्र से समाज की आधी आबादी का समेकित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जाता है?
पार्टियों में अभी भी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सक्षम महिलाओं की ही प्रबल दावेदारी दिखती है। ऐसे में हाशिये की महिलाओं को नेतृत्व की मुख्यधारा से जोड़ना न केवल समीचीन होगा अपितु प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूत करने के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण होगा। दरअसल, किसी भी दल, समाज या जनतांत्रिक व्यवस्था में तब तक सुदृढ़ नहीं होगी जब तक उसमें समाज के सभी वगरे की महिलाओं की संतुलित भागीदारी न हो। हालांकि पंचायतों, नगर पालिकाओं और नगर निगमों में महिलाओं की यह भागीदारी तो दिखती है, लेकिन इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। आज भी समाज के कई ऐसे हिस्से हैं, जिन्हें प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित रखा गया है। देश की आधी आबादी बहुत हद तक विधानसभाओं और लोक सभा से अदृश्य है। मतलब साफ है कि प्रजातांत्रिक प्रणाली में रिसाव है, जिसे तत्काल प्रभाव से रोकना जरूरी है। यह स्थिति जनवादी मूल्यों के लिए खतरनाक है। बहरहाल, अभी तकरार नहीं तारीफ का वक्त है। देश की अन्य विधानसभा भी इससे प्रेरणा लेते हुए कुछ इसी तरह की उद्घोषणा के साथ आगे आएं तो समाज में सकारात्मक संदेश जाएगा। इससे सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की ताकत बढ़ेगी, मगर यह केवल चुनावी मौकापरस्ती न साबित हो, इसका ध्यान रखना होगा।
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