मीडिया : दो पत्रकारों को नोबेल शांति पुरस्कार

Last Updated 10 Oct 2021 02:58:56 AM IST

सन् 2021 के ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ की विजेता फिलीपीन्स की ‘मारिया रेसा’ हैं, जो ‘डिजिटल प्लेटफार्म’ बना कर ‘दूतर्ते’ से टकराती रहीं और रूस के ‘दिमित्री मुरातोव’ हैं, अपने अखबार के जरिए पुतिन की सत्ता से टकराते रहते हैं।


मीडिया : दो पत्रकारों को नोबेल शांति पुरस्कार

नोबेल कमेटी ने कहा कि इन्होंने अपनी पत्रकारिता से ‘सत्ता से सत्य’ कहने की हिम्मत दिखाई, अभिव्यक्ति और सूचना की आजादी को बुलंद किया, जनतंत्र के मूल्यों की रक्षा की और शांति को मजबूत किया। इन पत्रकारों ने अपने-अपने देशों की ‘सत्ता से सत्य’ कहने की हिम्मत की तो उनको दमन का सामना भी करना पड़ा। एक पत्रकार के कई रिपोर्टरों ने जान गंवाई। फिर भी इन पत्रकारों ने आदर्श पत्रकारिता का परचम लहराए रखा।

कुछ देसी पत्रकारों की नजर में, तमाम तरह के दबाव, आतंक और दमन को झेलती आज की पत्रकारिता को दिया गया यह पुरस्कार पत्रकारिता के क्षेत्र में  ‘नया मानक’ स्थापित करता है जो दुनिया के पत्रकारों के लिए प्रेरणा का स्रेत हो सकता है, लेकिन इस पुरस्कार की ‘वाह वाह’ करते हुए भी नोबेल कमेटी और उसके पक्षधरों से मामूली सा सवाल पूछने का मन करता है कि ‘सत्ता से सत्य’ कहते हुए जो ‘सत्य’ कहा गया, क्या वह ‘समग्र व सबका सत्य’ रहा या कि सिर्फ ‘एक सत्य’ रहा जिसे एक पत्रकार ‘बनाता’ रहा; या उससे बनवाया जाता रहा और जिसे किसी एक ‘प्रतिसत्ता’ को समर्पित करता रहा/करता रहता है।

जिन दिनों सत्ताएं भ्रष्ट और दमनकारी हों, उन दिनों ‘सत्ता से सत्य’ कहने वाला पत्रकार भी किसी न किसी ‘अन्य सत्ता नेटवर्क’ की सेवा करता होता है। तब काहे गाल बजावत हो भैया कि इन पत्रकारों ने ‘सत्ता से सत्य’ कहने की हिम्मत दिखाई? ‘सत्ता से सत्य कहना’ मिथकीय मुहावरा है और इसे पत्रकार तभी कहते हैं जब उनके पीछे कोई अन्य बड़ी सत्ता खड़ी होती है, या उसकी किसी ‘वैकल्पिक सत्ता’ से ‘सेटिंग’ होती है। इस तरह हर पत्रकार किसी न किसी सत्ता का ही हिस्सा होता है।

उसकी ‘तटस्थता’ ‘मिथक’ है क्योंकि तटस्थ होने का मतलब किसी एक ‘तट’ पर स्थित होना ही है। आज के दौर में जब कोई भी सम्मान ‘अहेतुकी’ और ‘बिना एजेंडा’ नहीं होता, तब इस तरह की ‘पुरस्कृत पत्रकारिता’ की ‘मिथकीय क्रांतिकारिता’ के कसीदे गाना किसी ‘नोबेल’ या ‘मैग्सेसे’ बॉस या उसके ‘एजेंट’ को खुश करने जैसा ही है वरना जरा उस लखीमपुर खीरी के पत्रकार ‘रमन कश्यप’ को ले लीजिए, जिसे भीड़ ने ‘लिंच’ कर दिया और किसी पत्रकार संस्था ने उसके लिए एक शब्द तक न बोला। कारण कि वह  दिल्ली मुंबई वाला ‘वैल कनेक्टेड पत्रकार’ न होकर स्थानीय पत्रकार भर था जबकि दानिश सिद्दीकी, जो अफगानिस्तान में ‘अमेरिकी सत्य’ कहने के लिए फौजों के साथ ‘ऐंबैडेड’ था और मारा गया जब भी भी लिखता था, भारत के खिलाफ लिखता था और इसके लिए उसके मित्र उसे कांतिकारी कहते थे। इन दिनों तो अमेरिकी पेरोल पर रहने वाले पत्रकार सबसे बड़े कांतिकारी हैं।

इस हिसाब से तो हमारे यहां भी एक से एक ‘मारिया रेसा’ और ‘दिमित्री मुरातोव’ हैं, जो मुख्य मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में हर पल ‘कठोर सवाल’ करके  सत्ता को ठोकते  रहते हैं। एकाध कथित रेडिकल पत्रकार ने सत्ता से अपनी निजी घृणा और क्रोध के सरसांव को बेच-बेच कर ‘मैग्सेसे’ पुरस्कार तक झटक लिया है जबकि सब जानते हैं कि मैग्सेसे घोर ‘एंटी कम्युनिस्ट’ था और इन दिनों तो सभी ‘क्रांतिकारी पत्रकार’ किसी न किसी ‘मैग्सेसे’ की गोद में बैठने के लिए लाइन लगाए रहते हैं।

जिस दौर में पत्रकारिता का ‘चालू मॉडल’ जब  ‘बिग बिजनेस’ का ‘मॉडल’ हो और इसी तरह की पत्रकारिता को सत्ता का ‘चौथा पाया’ कहा जाता हो तब पत्रकारिता ‘सत्ता से सत्य’ कहेगी भी तो ‘पूछकर’ कहेगी और उसी हद तक कहेगी जिस हद तक सत्ता इजाजत दे। इसके बरक्स सोशल मीडिया स्वयं समांतर सत्ता है, जहां कोई भी व्यक्ति सत्ता को चुनौती देकर किसी ‘ग्लोबल सत्ता’ का सेवा करता है। वहां कोई किसी को भी गरिया सकता है। पोल खोल सकता है और लोगों को उत्तेजित कर आंदोलन तक करा सकता है। लेकिन सोशल मीडिया की कमान जिस ‘गोरे’ के हाथ में है, वह अपना ही खेल खेलता है। अब तो स्थिति है कि सोशल मीडिया ही ‘जनतंत्र’ में अपने अनुकूल को चुनाव जिताता-हराता है। अरबों डॉलरों की कमाई भी करता है। जैसे ब्यूटी कंटेस्ट वाले ‘विश्व सुंदरी’ खोजकर नया ‘ब्यूटी मारकेट’ बनाते हैं, वैसे ही गोरे उस्ताद ‘आदर्श पत्रकार’ नाते हैं।

सुधीश पचौरी


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