बाबरी विध्वंस : जनभावनाओं की अनदेखी का नतीजा

Last Updated 05 Oct 2020 01:45:44 AM IST

भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या में 28 साल पहले विवादित ढांचे का ढहाये जाने के मामले में लंबी सुनवाई के बाद 30 सितम्बर को अदालत ने फैसला सुना दिया।


बाबरी विध्वंस : जनभावनाओं की अनदेखी का नतीजा

सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले से इस मामले के प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों पहलू साफ हो गए। फैसले का प्रत्यक्ष पहलू यह है कि विवादित ढांचे के ध्वंस की घटना, राम जन्म भूमि मामले में सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा अपने वोट बैंक को साधने की राजनीति के लिए करोड़ों भारतवासियों की भावनाओं को नजरअंदाज करने का नतीजा थी, जबकि इस फैसले से परोक्ष तौर पर यह भी साफ हो गया कि अन्य महत्त्वपूर्ण मामलों की तरह इस मामले की प्रशासनिक जांच में भी तथ्यों की अनदेखी की गई।
इस फैसले पर विभिन्न मतावलंबियों की अपनी अलग राय हो सकती है, लेकिन 28 साल तक चली न्यायिक जांच के तटस्थ विश्लेषण में यह जाहिर हो गया कि तत्कालीन सरकार ने इस मामले को भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए तमाम वरिष्ठ नेताओं को आरोपित बनाने का माध्यम बना दिया। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या वास्तव में लगभग तीन दशक तक चली अदालती सुनवाई के बाद इतनी बड़ी घटना से जुड़े मामले में न्याय हो पाया? इस मामले के स्थापित तथ्य ये है कि अयोध्या में छह दिसम्बर 1992 को विवादित ढांचा ढहाया गया, देश के कुछ वरिष्ठ राजनेताओं को आरोपित बनाया गया और घटना की जांच कर रही सीबीआई, लंबी सुनवाई के दौरान इन आरोपियों के अभियोग को साबित नहीं कर पाई। नतीजा, सबूतों के अभाव में सभी आरोपित बरी हो गए।

सीबीआई की विशेष अदालत के न्यायाधीश सुरेन्द्र कुमार यादव ने अपने न्यायिक कॅरियर के अंतिम फैसले में साफ तौर पर कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए सबूत, विवादित ढांचे को ढहाने में आरोपितों की भूमिका को साबित करने में नितांत अक्षम हैं। अदालत ने विवादित ढांचा ढहाने वाले लोगों को असामाजिक तत्व करार दिया। अब इस फैसले के आलोक में नये सवाल उठ खड़े हुए कि आखिर वे ‘असामाजिक तत्व’ कौन लोग थे, जिन्होंने विवादित ढांचे को जमींदोज किया था और सीबीआई क्यों इन तत्वों की पहचान करने के बजाय आरोपित बनाए गए राजनेताओं को दोषी करार देने में अपनी ऊर्जा और समय नष्ट करती रही? शंकाओं और सवालों के बीच इस फैसले के निहितार्थ को समझने के लिए इसके कुछ प्रमुख बिंदुओं पर गौर करने की जरूरत है। अदालत ने फैसले में कहा कि विवादित ढांचे को ढहाया जाना पूर्व नियाजित नहीं था, बल्कि एक आकस्मिक घटना का परिणाम था।। नतीजा, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, महंत नृत्यगोपाल दास और उमा भारती सहित सभी 32 आरोपितों के विरु द्ध सबूतों के अभाव में अभियोग सिद्ध नहीं होता है। अदालत ने कहा कि अभियुक्तों ने विवादित ढांचे को गिराने का किसी भी प्रकार का कोई प्रयास नहीं किया था। इस बात पर भी गौर फरमाने की जरूरत है कि सीबीआई ने आरोपितों के खिलाफ इस मामले में आपराधिक षड्यंत्र रचने, दंगा भड़काने, विभिन्न समुदायों के बीच बैर भाव फैलाने और गैरकानूनी तरीके से किसी स्थान पर एकत्र होने का अभियोग लगाया था। कानूनी प्रक्रिया की सामान्य समझ रखने वालों के लिए यह समझना मुश्किल भरा नहीं होगा कि सीबीआई ने जिन लोगों के खिलाफ ये आरोप लगाए उन्हें, मामले के तथ्य एवं परिस्थितियों के मद्देनजर सही साबित करना अभियोजन पक्ष के लिए दुष्कर ही साबित होता। इससे इतर अदालत ने अपने 2000 पेज के फैसले में यह भी कहा कि आरोपितों ने गुस्साई भीड़ को विवादित ढांचे को नुकसान पहुंचाने से रोकने कोशिश की थी। इतना ही नहीं वारदात से जुड़े वीडियो और ऑडियो क्लिप को सीबीआई प्रमाणिक साबित नहीं कर पाई। और तो और सीबीआई के ही सबूतों के आधार पर अदालत ने कहा कि जो लोग ढांचे पर चढ़े थे, वे असामाजिक तत्व थे। लिहाजा, विवादित ढांचा ढहाये जाने के पीछे कोई आपराधिक षडयंत्र साबित नहीं होता है।
स्पष्ट है कि फैसले के इन बिंदुओं को देखते हुये यह कहना गलत नहीं होगा कि इस मामले में कुछ चिह्नित राजनेता खुद राजनीतिक षड्यंत्र के शिकार हो गए। मामले के कानूनी पहलुओं का आंकलन करते समय इस पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिये कि मजहब की सियासत के नाम पर भारत में सांप्रदायिक सद्भाव कायम रहने की छवि को भी नेस्तनाबूद करने का कुत्सित प्रयास हुआ। छह दिसम्बर 1992 को अयोध्या में मची अफरा-तफरी के मंजर में उन चेहरों को याद रखना होगा, जो देश में हिंदू मुस्लिम एकता के जीते-जागते प्रतीक साबित हुए।

निर्मल यादव


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