बतंगड़ बेतुक : उसकी गंगा गटर अपना गटर गंगा
झल्लन पास आया और बिना बोले-निहारे अधमुंदी आंखों से बगल में बैठ लिया और जब देर तक उसका कोई सवाल नहीं आया तो हमने ही पूछ लिया, ‘क्या बात है झल्लन, बड़ा बेफिकरा लग रहा है, न तो आज तू कुछ कह रहा है, न तेरे मन में कोई सवाल जग रहा है।’
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वह बोला, ‘ददाजू, अब समझ में नहीं आता कि हम बोलें तो क्या बोलें और पूछें तो क्या पूछें। हमें तो न अब सवालों में कोई तत्त दिखाई देता है और न उत्तरों में कोई सत्त सुझाई देता है। कौन सा सवाल जवाब में ईट-पत्थर ले आएगा पता नहीं रहता और कौन सा उत्तर सवाल की ऐसी-तैसी कर जाएगा इसका भी भरोसा नहीं रहता।’ हमने कहा, ‘हम तो सोचते थे कि दर्शनशास्त्र की थोड़ी बहुत जानकारी हमारे ही पास है पर लगता है अब तू भी दार्शनिक हुए जा रहा है इसीलिए ऐसी लटपटी-अटपटी बातें जुबान पर लाये जा रहा है।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, अपने इस लोकतंत्र के र्ढे-ढांचे को थोड़ा भी समझ जाएंगे तो पक्के तौर पर आप भी बड़े दार्शनिक हो जाएंगे। आप किसी भी तरह का कोई सवाल बनाओगे या किसी भी तरफ उंगली उठाओगे तो सवाल चाहे कितना भी सही हो पर उत्तर में गाली ही पाओगे।’ हमने कहा, ‘तू किसकी बात कर रहा है, हमारे कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है। किसने सवाल उठाकर गाली खायी है जो तुझे पच नहीं पायी है?’ झल्लन बोला, ‘अरे वही अपनी झांसी की रानी। जो उसे गटर दिखा उसे गटर बता दिये और गटर में रहने वालों ने पहाड़ सर पर उठा लिये। आखिर उन्हें समझना चाहिए कि उसे कोई-न-कोई गंदगी नजर आयी है, तभी न उसे गटर बतायी है।’ हमने कहा, ‘वे अपने गटर को गंगा समझते आ रहे थे इसलिए इस मर्दानी के कुबोल उन्हें नहीं सुहा रहे थे।’ झल्लन बोला, ‘तो अब बताइए ददाजू, हम झांसी की रानी को सच मानें या जो उसे लताड़ रहे हैं उन्हें सही जानें।’ हमने कहा, ‘इसमें कौन-सी बड़ी नजाकत है, जो तुझे सही लगे उसे सही बता और जो गलत लगे उसे गलत बता, सीधी सी बात है।’ झल्लन बोला, ‘बात इतनी सीधी भी नहीं है जितनी आप समझ रहे हैं, इसका अंदाजा इससे लगाइए कि सीधी सी बात पर कितने लोग बमक रहे हैं। अगर किसी को कहीं गटर बहता हुआ दिख रहा है और वह बहते गटर को गटर कह रहा है तो उसकी बात समझी जानी चाहिए या फिर लट्ठ लेकर उसके पीछे पड़ जाना चाहिए।’
हमने कहा, ‘देख झल्लन, यह इक्कीसवीं सदी का अग्रगामी समाज है जो बहुत आगे बढ़ गया है, इस समाज में गटर और गंगा के बीच का फर्क मिट गया है। जो लोग गटर में रह रहे हैं, गटर के किनारे बैठ अपनी जिंदगी चला रहे हैं, गटर में घुसकर ही रोजी-रोटी कमा रहे हैं, वे अपने गटर को गटर क्यों बताएंगे, उन्हें तो अपने गटर में गंगा के धारे ही नजर आएंगे।’ झल्लन बोला, ‘सही पकड़े हो ददाजू, हमारा यह समाज बहुत आगे बढ़ गया है, तरक्की की हजारों सीढ़ियां एक साथ चढ़ गया है। इसे अपने गटर गंगा नजर आते हैं और दूसरे की गंगा में इसे गटर दिख जाते हैं। अब तो आज की राजनीति में भी यही सबक सिखाया जा रहा है कि गटर को गंगा और गंगा को गटर बताया जा रहा है, फिर इसी राजनीति से देश भी चलाया जा रहा है।’ हमने कहा, ‘सही बात है झल्लन, ‘अब किसी के गटर को गटर बताने का जमाना नहीं रहा, गटर और गंगा में जो फर्क करता था अब हमारे पास वो पैमाना भी नहीं रहा। अगर आप किसी के गटर को गटर बताएंगे तो अपने गटर को गंगा समझने वाले के हाथ मार ही तो खाएंगे।’
झल्लन बोला, ‘सच बताइए ददाजू, क्या इस हालत का आगे कोई हल निकल पाएगा और अगर यही हालत रही तो आपको नहीं लगता कि हमारा लोकतंत्र ही मर जाएगा?’ हमने कहा, ‘तो क्या तुझे अभी भी लोकतंत्र जिंदा नजर आता है, जो तेरे मन में इसके मरने का डर बार-बार सताता है? एक लोकतंत्र जिंदा लोगों के सहारे जिंदा रहता है और जिस समाज में जिंदा लोग मुर्दा हो जाते हों उसमें लोकतंत्र कहां बचता है।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, इसी बात ने तो हमारे दिमाग में बवाल कर दिये थे, कई दार्शनिक सवाल सामने खड़े कर दिये थे। आखिर उन्नत समाज के इस युग में किसी के गटर को गटर क्यों कहा जाये, उसके गटर को गंगा बताकर उसे भी खुश रखा जाये और खुद भी खुश रहा जाये और जब गटर और गंगा का फर्क मिट ही गया है तो इसे चुपचाप स्वीकारा जाये।’
हमने कहा, ‘अच्छा तो तेरे मन से अब गटर और गंगा का फर्क निकलता जा रहा है तभी तू इतना बेफिकरा नजर आ रहा है?’ वह बोला, ‘तो आप ही देखिए ददाजू, अगर किसी के गटर को गटर कह देंगे तो सौ दुश्मन खड़े हो जाएंगे, पर आप गटर का कुछ नहीं कर पाएंगे। इसीलिए हम सोचा है कि हर गटर को गंगा बताते जाइए और बिना दंगे-फसाद के चैन की जिंदगी जीते जाइए।’
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