जयंती : हिंदी पट्टी में पेरियार
ईवी पेरियार रामासामी भारत के उन दार्शनिकों में अग्रणी हैं, जिनके विचारों का प्रभाव पूरे भारत में आज महसूस किया जा रहा है।
जयंती : हिंदी पट्टी में पेरियार |
फिर चाहे वे दक्षिण के राज्य हों या फिर मध्य भारत या उत्तर भारत। उत्तर भारत को हिंदी पट्टी के रूप में रेखांकित भी किया जाता रहा है। इस हिंदी पट्टी की खास बात यह रही है कि यह जितना दूर बंगाल में हुए समाज सुधार आंदोलनों से था, उतना ही दूर दक्षिण और मध्य भारत के राज्यों में हो रहे आंदोलनों से, लेकिन इतना भी दूर नहीं रहा कि प्रभावित ही नहीं हुआ।
खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश, जो हिंदी पट्टी के दो सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य हैं, में बंगाल के राजनीतिक व सामाजिक आंदोलनों का असर पहुंचा और सती प्रथा, बाल विवाह आदि कुप्रथाएं खत्म हुई। वहीं दक्षिण के राज्यों में हो रहे समतामूलक आंदोलन, जिसके प्रणोताओं में नारायण गुरु, वासवन्ना और अयप्पन सहोदरन आदि रहे, के असर से भी उत्तर भारत अछूता न रह सका। यह असर और अधिक सहज रूप से प्रभावी हुआ, जब पेरियार ने 19वीं सदी में इस युगांतरकारी बदलाव का नेतृत्व किया। यह असर किस तरह का था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार में त्रिवेणी संघ के दस्तावेज में पेरियार के विचार प्रमुखता से शामिल किए गए हैं। दरअसल, त्रिवेणी संघ का गठन 30 मई, 1933 को बिहार के शाहाबाद जिले के करगहर में हुआ। इसके संस्थापकों में सरदार जगदेव सिंह यादव, शिवपूजन सिंह और जे. एन. पी. मेहता प्रमुख रहे।
दलित और पिछड़े वर्गों के इस संगठन ने राजनीतिक और सामाजिक हस्तक्षेप किया। हालांकि राजनीति में इस संघ को अपेक्षित सफलता नहीं मिली और 1940 तक आते-आते त्रिवेणी संघ अतीत बन गया परंतु सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में इसने जो असर किया, वह आज भी महसूस किया जा सकता है। त्रिवेणी संघ ने ही जो विचारधारा और वैचारिक ऊर्जा पैदा की, उसने आजादी के बाद में बहुजनवाद और सामाजिक न्याय की राजनीतिक जमीन तैयार की, जिसमें रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव, जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम, लालू प्रसाद अलग-अलग रूपों में फले-फूले। इस त्रिवेणी संघ की वैचारिकी में पेरियार के विचार शामिल रहे। इसकी पुष्टि ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ में होती है। इसमें उल्लेखित है कि ‘जिस तरह बड़े-बड़े और शक्तिशाली राष्ट्र साम्राज्यशाही का पोषण कर छोटे-छोटे राष्ट्रों को हड़पे जा रहे हैं तथा बड़े-बड़े पूंजीपति बेचारे गरीब किसानों और मजदूरों का खूब शोषण कर अपना-अपना तोंद फुलाए जा रहे हैं, ठीक उसी तरह धर्म के ठेकेदार अपनी तोंद फुलाने के लिए, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, नरक-स्वर्ग तथा मोक्ष आदि के अड़ंगे लगा-लगा जनता को कूपमंडूक बना-बना, उसकी आंखों में धूल झोंक दिन-दोपहर लूट रहे हैं, जिसे हम कहते हैं-धार्मिंक साम्राज्यवाद। जो साम्राज्यशाही तथा आर्थिक साम्राज्यवाद से भी अधिक लोकतंत्र के लिए भयावह है, क्योंकि किसी भी उत्थान में धर्म की ईट पर दीवार चुनी जाती है।’
हम पाते हैं कि त्रिवेणी संघ, जिसने समाज के खास तबके के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को खुली चुनौती दी, के पीछे वही विचार थे, जो पेरियार के विचार थे, जबकि परिस्थितियां बिल्कुल जुदा थीं। भौगोलिक दूरी के अलावा भाषायी भिन्नता एक बड़ी समस्या थी, लेकिन ‘त्रिवेणी संघ के बिगुल’ में पेरियार के विचार शामिल रहे। फिर यही विचार रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित ‘अर्जक संघ’ के मूल में शामिल रहे। आज भी बिहार और उत्तर प्रदेश में अर्जक संघ को मानने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं और वे भारतीय समाज में व्याप्त वर्चस्ववाद को खारिज करते हैं। सवाल यह है कि पेरियार के वे कौन-से विचार हैं, जो उन्हें आज हिंदी पट्टी में प्रासंगिक बना रहे हैं। जाहिर तौर पर यह महज एक सवाल नहीं है। यह अनेक प्रश्नों का समुच्चय है, जिसमें हिंदी पट्टी के समाज में व्याप्त भेदभाव, उत्पादन के संसाधनों का असमान वितरण और धार्मिंक व सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से जुड़े सवाल शामिल हैं। दरअसल, पेरियार ने भारतीय समाज की सबसे बड़ी व्याधि को पहचान लिया था। उन्होंने भारतीय दर्शन में शामिल चमत्मकारवाद को खारिज किया था। वे मानते थे कि ‘मनुष्य को इस दुनिया में अन्य प्राणियों से बेहतर माना जाता है क्योंकि उसने ज्ञान का उपयोग करते हुए काफी उन्नति की है, लेकिन हमारे देशवासियों की स्थिति इस ज्ञान का उपयोग न करने के कारण बेहद खराब हो रही है।
यह बताते हुए कि हमारी भूमि ज्ञान की भूमि है; हम टैंक और मंदिर बनाते हैं; जबकि अन्य देशों में लोग अंतरिक्ष में उड़ते हैं और पूरी दुनिया को आश्चर्यचकित करते हैं। अन्य देशों में अकेले ज्ञान का सम्मान किया जाता है और उसी पर भरोसा किया जाता है और उसी को हर खोज का मूल आधार माना जाता है, लेकिन इस देश में लोग केवल ईश्वर में, धर्म में और इसी तरह के बकवास वाले अनुष्ठानों और समारोहों में विश्वास करते हैं।’ (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ पेरियार ई.वी.आर., संयोजन : डॉ. के. वीरामणि, प्रकाशक : दि पेरियार सेल्फ-रेसपेक्ट प्रोपेगंडा इंस्टीट्यूशन, पेरियार थाइडल, चेन्नई)। पेरियार का मानना था कि ‘तर्कवाद से पैदा हुआ ज्ञान ही असली ज्ञान है। क्या महज किताबी ज्ञान ज्ञान हो सकता है?
ऐसा क्यों है कि उच्चतम बौद्धिक प्रतिभा वाले शिक्षित व्यक्ति और वे भी जो विशेष रूप से विज्ञान में डिग्री-धारी हैं; एक पत्थर को देवता मानकर उसके आगे दंडवत होते हैं? क्यों विज्ञान में महारत हासिल करने वाले विद्वान भी अपने पापों को धोने के लिए खुद को गंदे पानी से मलते हैं? क्या उनके द्वारा पढ़े गए विज्ञान और गोबर तथा गोमूत्र के मिश्रण से अभिषेक करने के बीच कोई संबंध है?’ (वहीं) बुद्धिवाद के प्रस्तोता पेरियार कहते थे कि ‘मनुष्य को केवल विश्वास के आधार पर नहीं, बल्कि विवेक के आधार पर किसी बात पर विश्वास करना चाहिए। उसे देखना चाहिए कि जिस बात पर वह विश्वास कर रहा है, वह विवेकसम्मत भी है या नहीं। तभी वह एक आदिम अवस्था से मानव कद की ओर बढ़ता है।’ याद करिए 1970 का दशक जब बिहार में जगदेव प्रसाद ने नारा दिया था-’सौ में नब्बे शोषित हैं, दस पर नब्बे का शासन नहीं चलेगा।’ उनके इस नारे में पेरियार की वैचारिकी भी शामिल रही।
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