हिंदी : अपने ही देश में दोयम दरजा

Last Updated 14 Sep 2020 12:18:16 AM IST

किसी भी संप्रभुता संपन्न राष्ट्र के चार मुख्य अवयव होते हैं-(1) भूखंड (2) नागरिक (3) स्वशासन और (4) भाषा। विश्व में प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक राष्ट्रभाषा होती है परंतु भारत में कुल 22 माननीय राज्य भाषाएं हैं (भारतीय संविधान की अष्टम सूची में उल्लिखित)। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है अगर हम भारत को राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा हो सकती है।’


हिंदी : अपने ही देश में दोयम दरजा

किसी भी राष्ट्र की सर्वाधिक प्रचलित एवं स्वेच्छा से आत्मसात की गई भाषा को राष्ट्रभाषा कहा जाता है।  
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए तथा सरस्वती दयानंद ने वैदिक संस्कृति को समूचे देश में प्रसारित करने के लिए तथा स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने में हिंदी को ही अपनाया था। बाल गंगाधर तिलक एवं गांधीजी ने पुरजोर  आवाज बुलंद की कि जो लोग अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा दे रहे हैं वे देश के दुश्मन हैं। इंडियन नेशनल अधिवेशन 1925 में प्रस्ताव पारित कर सभी प्रादेशिक कांग्रेस समितियों को हिंदी में कार्य करने का निर्देश दिया गया। देश के सर्वाधिक लोगों द्वारा हिंदी बोली वह समझी जाती है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा के रूप में 14 सितम्बर को सर्वसम्मति से स्वीकार करके संविधान के 17 वें भाग में समाहित कर लिया। इसलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। 26 जनवरी 1950 से संविधान पूरे देश में लागू हो गया।

संविधान के अनुच्छेद 343 में सर्वसम्मति से हिंदी को राजभाषा का दरजा दिया गया है। अनुच्छेद 344 से 351 तक इसके विकास के लिए संवैधानिक व्यवस्था की गई है, परंतु यह दुर्भाग्य है कि अभी तक हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी  है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा में अंतर है। राजभाषा का अर्थ है राजा या राज्य की भाषा-वह भाषा, जिसमें शासन या शासन का काम होता है और राष्ट्रभाषा वह है, जिसका व्यवहार राष्ट्र के सामान्य जन करते हैं। जो भी भाषा राजभाषा के पद पर आसीन होती है लोग उसी में शिक्षा पाना आवश्यक समझते हैं। रोजी-रोटी, सामाजिक प्रतिष्ठा और भौतिक लाभ के लिए युवा वर्ग में उसी भाषा का बोलबाला होता है। यह दुर्भाग्य है की राजनीतिक स्वार्थ के चलते विदेशी भाषा होने के बावजूद अंग्रेजी में कामकाज को विशेष महत्त्व दिया जाता है तथा राजभाषा के रूप में अपने सम्मान को प्राप्त करने के लिए हिंदी को निरंतर संघर्ष करना पड़ रहा है। भारत में ऐसा दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव के कारण हुआ है वरना दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण ही तुर्की टर्किश और जर्मनी में जर्मन भाषा रातों-रात लागू कर दी गई। आज भी जबकि हिंदी को देश की राजभाषा घोषित कर दिया गया है तब भी कामकाज में अंग्रेजी को विशेष महत्त्व मिल रहा है। उल्लेखनीय है कि संविधान के अनुच्छेद 344 (1) के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा संविधान के प्रारंभ से 5 वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात ऐसे प्रारंभ से 10 वर्ष की समाप्ति पर अपने आदेश से कुछ बिंदुओं पर अध्ययन के लिए एक आयोग गठित किए जाने का निर्देश था। इस आयोग में एक अध्यक्ष के अतिरिक्त आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी सदस्यों को शामिल किए जाने का प्रावधान था। 344 (1) के निर्देश  के अनुपालन में राष्ट्रपति ने वर्ष 7 जून 1955 को बीजी खेर की अध्यक्षता में 27 सदस्यीय आयोग बैठाया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 27 जुलाई 1956 को प्रस्तुत की। परंतु इस रिपोर्ट के प्रकाशित होते ही देश के दक्षिणी भाग मुख्यत: तमिलनाडु में हिंदी को राजभाषा बनाए जाने का तीव्र विरोध हुआ। आयोग के रिपोर्ट/सिफारिशों पर संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट 8 फरवरी 1959 को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत कर दी।
समिति के इस रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति ने 27 अप्रैल 1960 को अधिसूचना द्वारा आदेश जारी किया। अनुच्छेद 349 (1) के अंतर्गत शासकीय कार्यों से संबंधित कुछ खास विषयों पर भाषा प्रयोग संबंधी विधि/अधिनियम बनाने का प्रस्ताव राष्ट्रपति के आदेश बिना किसी भी सदन में नहीं लाया जा सकता। राष्ट्रपति के उपरोक्त आदेश 1960 के क्रम में ही अनुच्छेद 343 (3) और अनुच्छेद 349 (1) के अंतर्गत राजभाषा अधिनियम 1963 बना, जिसकी धारा 8 के तहत सरकार को इस अधिनियम को लागू करने के लिए नियम बनाने का अधिकार मिला। इसी अधिकार के तहत राजभाषा नियम 1976 बने, जो 1987, 2007 और 2011 में संशोधित भी हुए। अत: स्पष्ट है कि अनु. 343 (3) एवं 349 (1) सह पठित राजभाषा अधिनियम की धारा 3 (5) के बाद अब हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में लागू करना लगभग असंभव हो गया है।

राकेश त्रिपाठी


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