मीडिया : भारत के ‘बेटे-बेटियां’
इन दिनों भारत के स्वकथित ‘बेटे-बेटियों’ ने ऐसी आफत मचाई हुई है कि समझ नहीं आता किसे सही मानें, किसे गलत? दो दिन पहले ‘भारत की एक बेटी’ ने ‘भारत के एक बेटे’ को ललकारा कि ‘उखाड़ ले जो उखाड़ना है’।
मीडिया : भारत के ‘बेटे-बेटियां’ |
उधर भारत का बेटा भी भारत का बेटा ठहरा। उसने भी बेटी का दफ्तर उखड़वा कर कह दिया कि ‘लो उखाड़ दिया’! इस पर भारत की बेटी ने कहा कि आज तूने मेरा दफ्तर तोड़ा है, कल तेरा घमंड टूटेगा। टुच्चे अंहकारों की मारी इस तरह की डायलागबाजी में जितनी वीरता रही उससे अधिक ‘कामेडी’ रही। लड़ते बेटे-बेटियों में जो जीतता दिखता था उस पर हम हंसते थे लेकिन जो हारता था उस पर रोते न थे!
जब ‘भारत’ का प्रतीक मेहनत से ‘कमाया’ नहीं जाता और जब उसे कुछ उठाईगीरे यों ही ओढ़ पहन लेते हैं, तो भारत अपने मानी खो देता है, भारत अपने मानियों से रिक्त हो जाता है और ‘भारत’ एक शब्दभर रह जाता है। इन दिनों हम इसी तरह के दैनिक ‘कॉमिक फासिज्म’ में जीते हैं, जो ऊपर से ‘मनोरंजक’ लगता है, लेकिन अंदर से ‘डराता’ है क्योंकि यहां किसी किस्म के ‘नागरिक-नियम’ लागू नहीं होते। समकालीन पत्रकारिता के नाम पर कुछ जोकरों द्वारा नित्य बनाया और बेचा जाता यह ‘कॉमिक फासिज्म’ ऊपर से हंसाता है, अंदर से रुलाता है।
इन दिनों हम एंकर या रिपोर्टर नहीं सत्ता के ‘हुब्रिसों’ यानी ‘अहंकृत चंडताओं’ को एक दूसरे से टकराने की कामेडी देखते हैं। इसमें जो कमजोर पड़ता है, ‘खीझता’ दिखता है और जो जीतता है, ‘भुजाएं फड़काता’ दिखता है और जो चतुराई में इनका भी बाप है, वह मुस्कुराता रहता है। इन दिनों हम ऐसे ही ‘उठाईगीर मीडिया’ के बीच हैं। जिसे देखो वही ‘उठाईगीरी’ में लगा है। कोई ‘भारत की बेटी’ बन जाता है। कोई ‘भारत का बेटा’ और कोई कभी ‘देश’, कभी ‘एक सौ तीस करोड़ जनता’ बन जाता है और कभी-कभी ‘दुनिया’ ही बन जाता है! ये सब प्रतीकों की एक प्रकार की ‘उठाईगीरी’ है, जिसमें इन दिनों सिर्फ नेता नहीं, मीडिया के कई बड़े एंकर शामिल हैं।
इसे कहते हैं ‘प्रतीकों’ की खुले आम ‘चोरी’ ओर सीनाजोरी! कोई पूछे कि किस ‘भारत’ ने तुमको अपना ‘बेटा’ अपनी ‘बेटी’ चुना? किस समय ‘एक सौ तीस करोड़ जनता’ ने अपना ‘मालिक’ बनाया और ‘दुनिया के लोगों’ ने अपना ‘स्वामी’ बनाया? यह सब ‘नजिंग’ का कमाल है, ‘शब्दों की हेराफेरी’। शब्दों की सफाई का कमाल है कि इन दिनों कोई भी दो टके का बंदा माथे पर भारत को चिपका लेता है और इस तरह अपने को ‘महान’ बनाने का भ्रम पालने लगता है। शब्दों की जादूगरी से खबरों को दमदार बनाने की यह भाषा, विज्ञापनों वाली ‘हड़पू भाषा’ है, जो अपने ब्रांड की ‘पोजीशनिंग’ के लिए हर बड़े विचार या बड़े प्रतीक को अपने साथ चिपका लोगों को बेवकूफ बनाती है।
फिल्म मिस्टर इंडिया का ‘मिस्टर इंडिया’ इसी तरह बनाया गया था, लेकिन वह कहानी में बना था। पुराने हीरो मनोज कुमार भी अपनी फिल्मों में ‘भारत’ ही बना करते थे, लेकिन खबर चैनलों के एंकरों खबरों के साथ कभी खुद को ‘राष्ट्र’, कभी ‘देश’, कभी ‘भारत’ या ‘एक सौ तीस करोड़ जनता’ बना लेते हैं या कोई हीरोइन अपने को ‘भारत की बेटी’। यह प्रतीकों को ‘हड़पना’ नहीं तो और क्या है?
भारत जैसे प्रतीक की ‘हड़पलीला’ अरसे से चली आ रही है और हम अब इसके इतने आदी हो चले हैं कि कोई ऐतराज तक नहीं करते कि भारत की इस मुफ्त की लूटमार को बंद करो। आप इतनी बड़ी जनता के पर्याय कब से हो गए? किसने हक दिया कि आप इतने बड़े राष्ट्र, इतने बड़े भारत को जब चाहें सूट टाई की तरह पहन लें? जब चाहें उसे जेब में रूमाल की तरह ठूंस लें और जब चाहें अपनी नाक पोंछने लगें। अब तो हम इस लूटमार के इतने आदी हो चले हैं कि हमें यह लूटमार भी ‘नेचुरल’ लगती है, ‘स्वाभाविक’ और ‘मनोरंजक’ लगती है।
‘इंडिया’ के ‘प्रतीक’ की सबसे पहली लूटमार ‘महाभारत’ सीरियल के साथ हुई। इसे तब मक्खन के एक नये ब्रांड के लॉन्च ने शुरू किया था, जो ‘महाभारत’ सीरयल के बीच-बीच में अपने को ‘स्वाद इंडिया’ कहा करता था। तब से अब तक ‘भारत’ ‘सीमेंट’ से ‘सरिया’ तक न जाने क्या-क्या बन चुका है और पिछले दिनों तो एक नये ब्रांड के दूध ने ‘भारत की बेटियों’ पर एक गाना ही बना दिया, जो अब भी बजता रहता है और हम उसे आनंद से सुनते रहते हैं। यह सब भारत के प्रतीक का पापूलर कल्चर के क्षेत्र में आकर एक आइटम मात्र बन जाना है, जो किसी भी आलोचना से ‘परे’ निकल जाता है और ‘देश प्रेम’ भी एक ‘आइटम’ बन जाता है!
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