बतंगड़ बेतुक : आजादी से बड़े गुलामी के गुलछर्रे

Last Updated 13 Sep 2020 03:44:59 AM IST

झल्लन आया, हमें देखते ही मुस्कुराया, फिर अपनी रगड़ी खैनी वाला हाथ हमारी ओर बढ़ाया तो हमने भी सहर्ष एक चुटका उठा लिया और ओठों के बीच दबा लिया।


आजादी से बड़े गुलामी के गुलछर्रे

वह बोला, ‘तो ददाजू, आप व्यक्ति की आजादी को उसकी गुलामी बताते हो, उलटवासियों की ये खर-पतवार दिमाग में कैसे उगाते हो?’ अपनी बात कह के झल्लन तुरत हंस दिया, और हमें भी हंसा दिया, फिर हमने सोचा कि इसने कहां गुलामी और आजादी के चक्कर में फंसा दिया। हमें अबोला देख वह बोला, ‘तो बताइए ददाजू, आपने चिठियावीरों को गुलाम क्यों बताया जबकि उन्होंने तो अपनी चिट्ठी भी आगे बढ़ायी और बुढ़िया पार्टी के पुनरुद्धार का सवाल भी उठाया?’
हमने कहा, ‘अगर चिठियावीरों को अपनी बात पर इतना भरोसा था तो उन्हें अड़े रहना चाहिए था और जो पांव उन्होंने आगे रखा था उस पर खड़े रहना चाहिए था। पर जैसे ही बुढ़िया माई के चांकुरों का शोर शुरू हुआ तुरंत पलटकर वापस आ गये और उनका जो भी मान-अपमान हुआ, सब पचा गये। अब तू सोच, उन्होंने ऐसा पलट कदम उठाया तो क्यों उठाया, वे सही थे पर उन्होंने अपनी बात को किसी अंजाम तक पहुंचाने का साहस क्यों नहीं दिखाया?’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, सीधी बात है अगर चिठियावीर ज्यादा साहस दिखाते तो माई के चांकुर कैसे सह पाते, सारे चिठियावीरों को पार्टी से निकाल बाहर करते, तब वे न घाट के रहते न घर के रहते।’ हमने कहा, ‘अब तू सही जगह आया, अब तू सही समझ पाया। आदमी को अपना अर्जित पद-प्रतिष्ठा-प्रभुत्व खोने का भय हमेशा सताता है और यह भय ही उन्हें अपने ही विवेक के विरुद्ध अपनी सुख-सुविधाओं का गुलाम बनाता है। वे विरले ही होते हैं जो असुरक्षा के भय की चिंता नहीं करते और जिस बात को वे सही समझते हैं, उसके लिए लड़ते हैं।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, हमारे इस लोकतंत्र में ऐसे लोग कहां पाये जाते हैं, इक्का-दुक्का पाये भी जाते हैं तो पगलैट कहलाये जाते हैं।’

हमने कहा, ‘यही तो हम कह रहे हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इन दिनों जितने भी शूरवीर पाये जा रहे हैं वे सिर्फ अपने-अपने दुश्मनों के विरुद्ध अपनी आजाद खुन्नस निकालने के लिए सामने आ रहे हैं। ये लोग सिर्फ गुलामी का कवच ओढ़े हुए हैं और अपने सारे रौब-रुतबे को गुलामी से जोड़े हुए हैं।’ झल्लन बोला, ‘बात पल्ले नहीं पड़ी ददाजू, थोड़ा खुलकर समझाइए और जो अक्सर बंद रहा करते हैं हमारे वे ज्ञानचक्षु खुलवाइए।’ हमने कहा, ‘तू इस लोकतंत्र के समूचे अंग-उपांगों को देख-परख ले, उन्हें थोड़ी गहराई से समझ-निरख ले तो तुझे साफ-साफ दिखाई दे जाएगा कि यहां गुलामी का विराट साम्राज्य पसरा हुआ है और हर वाक्वीर अपनी-अपनी गुलामी को सुरक्षित रखने पर उतरा हुआ है।’ झल्लन ने हमारी बात पर फिर से सर खुजाया तो हमने उसे आगे समझाया, ‘देख झल्लन, हमारे यहां न्यायपालिका है तो किस की हिम्मत है जो बिना जेल का खतरा उठाए किसी जज के गलत फैसले की आलोचना कर सके। हमारे यहां कार्यपालिका है तो बता किस मातहत की हिम्मत है जो अपने बड़े अधिकारी की गलतियों पर उंगली उठा सके, हमारे यहां विधायिका है तो बता किस पार्टी के किस कार्यकर्ता की हिम्मत है जो धकियाकर बाहर निकाले जाने का जोखिम लिये बगैर अपने नेता की मूर्खताओं और धूर्तताओं पर जुबान चला सके; हमारे यहां मीडिया है, पर चीख-चीखकर धरती-आसमान एक कर देने वाले किस उछलबच्चे की हिम्मत है जो अपने सियासी और गैर-सियासी आकाओं के गोरखधंधों की तरफ इशारा कर सके, हमारे यहां व्यवसाय है तो बता किस कर्मचारी की हिम्मत है जो अपने मालिक की खुरपेंचों और बेईमानियों पर अपनी जीभ हिला सके, और तो और यहां किस शरीफ आदमी की हिम्मत है कि अपने ही मुहल्ले के किसी गुंडे के विरुद्ध कहीं कोई शिकायत दर्ज करा सके। दरअसल, सब अपनी-अपनी गुलामी की सुरक्षा में पल रहे हैं और गुलामी की छतछ्राया में सबके कार्य-व्यापार चले रहे हैं।’
झल्लन बोला, ‘अच्छा ददाजू, अब अपनी सुनाइए, आप गुलाम हैं या आजाद हैं ईमानदारी से बताइए?’ हमने कहा, ‘यह सवाल पूछकर काहे हमारी दुखती रग दबा रहा है, जिस सवाल को हम वर्षो पहले दफ्न कर चुके हैं तू उसे फिर उठा रहा है।’ वह बोला, ‘वैसे ददाजू, हमें आप कभी आजाद लगते हो तो कभी गुलाम लगते हो, सो सोचा सीधा आप से ही पूछ लें कि आप अपने बारे में क्या कहते हो?’ हमने कहा, ‘सच्चाई यही है झल्लन कि हमसे बड़ा कोई गुलाम नहीं है और गुलामी करने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा काम नहीं है। न हम अपनी मर्जी से कुछ कर सकते हैं, न लिख सकते हैं न बोल सकते हैं, न कहीं अपने दिल के दर्द खोल सकते हैं। जिंदगी जीने की शत्रे इतनी बड़ी होती हैं जो बार-बार आजादी के सामने आ खड़ी होती हैं। अब तो गुलामी की आदत पड़ गयी है, आजादी दिल-दिमाग से झड़ गयी है।’ झल्लन बोला, ‘सच कहते हो ददाजू, यही हाल हमारा है, हमें भी आजादी की कुलबुलाहट ने मारा है। आगे से आजादी के कंटीले बीज अपने दिमाग में नहीं बोएंगे, अब हम भी गुलामी के गुलछरे के बीच लंबी तानकर सोएंगे।’

विभांशु दिव्याल


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