मुद्दा : शिक्षा पद्धति की यह कैसी राह!

Last Updated 24 Jul 2020 12:09:04 AM IST

जब से विश्व में सूचना प्रौद्योगिकी का डंका बजा है, हर तरफ इसकी महत्ता का गुणगान हो रहा है।


मुद्दा : शिक्षा पद्धति की यह कैसी राह!

इस तकनीक को जानने वालों को ही शिक्षित होने का प्रमाण पत्र दिया जा रहा है। इस आंधी में राष्ट्रीयता और नैतिक शिक्षा अप्रासंगिक हो चले हैं। यह खतरनाक खेल है। रोजगारपरक शिक्षा आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति भी भारतीय चिंतन परंपरा से जोड़कर यानी गुरुकुल शिक्षा पंरपरा से समन्वय स्थापित कर ही करना होगा। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली ने देश की पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था को तहस नहस कर रखा है। शायर अकबर इलाहाबादी का एक शेर है-
‘नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला और ओ मजनूं में आखिर फौजदारी हो गई।
(अरब में नज्द नाम का एक जंगल क्षेत्र है, जहां मजनूं मारा-मारा फिरता था)। गुरु कुल परंपरा से लेकर हमने आज तक शिक्षा के क्षेत्र में लंबी यात्रा तय की है। तब शिक्षा का जोर नैतिक गुणों पर होता था, शिक्षा वह होती थी जो जीवन व समाज में विद्यार्थियों को उच्च व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करे। जो कि आज नहीं है। आज तो हम रट्टू तोता पैदा कर रहे हैं। देश-विदेश में उच्च शिक्षित लोग भी एक समय ऐसा आता है जब जीवन संघर्ष में हार मानने लगते हैं।

शिक्षा पर हम जीडीपी का मात्र 2.8 प्रतिशत खर्च कर रहे हैं जबकि पश्चिमी देशों में यह खर्च 6 प्रतिशत या उससे भी अधिक है। सरकारी विद्यालयों में उपकरण, प्रयोगशालाएं और पुस्तकालयों जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। सामान्य लोग भी अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम के साथ पढ़ाने पर जोर देते हैं। निजी क्षेत्र का उद्देश्य सिर्फ मुनाफा है। शिक्षा के निजीकरण ने समाज के उच्च वगरे के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विषमता बढ़ा दी। यहां अभिभावकों का ही शोषण नहीं किया जाता, शिक्षकों को भी नहीं बख्शा जाता। कम वेतन देकर पूरे वेतन की रसीद पर साइन कराना आम बात है। शिक्षा को समाज के उपयोगी बनाना है तो हमें कुछ बिंदुओं की तरफ ध्यान देना होगा। ये बिंदु हैं-शिक्षा का माध्यम क्या हो, शारीरिक शिक्षा पर फोकस हो, तकनीकी शिक्षा की प्रधानता रहे तथा पूरी शिक्षा व्यवस्था का एक समान पाठ्यक्रम हो।  विभिन्न विषयों की शिक्षा के लिए जिस भाषा का प्रयोग होता है, वह शिक्षा का माध्यम कहलाती है। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा भी हो सकती है और दूसरी भाषा भी। इसलिए भाषा किसी-न-किसी उद्देश्य के संदर्भ में सीखी अथवा सिखाई जाती है, लेकिन मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का मुख्य उद्देश्य अपने समाज और देश में संप्रेषण प्रक्रिया को सुदृढ़, व्यापक और सशक्त बनाना होता है। स्वामीनाथन अय्यर की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के सीखने के लिए सर्वाधिक सरल भाषा वही है जो वे घर में बोली जाने वाली भाषा सुनते हैं। वास्तव में मातृभाषा सामाजिक यथार्थ है जो व्यक्ति को अपने भाषायी समाज के अनेक सामाजिक संदभरे से जोड़ती है। इसी के आधार पर व्यक्ति अपने समाज और संस्कृति के साथ जुड़ा रहता है, क्योंकि वह उसकी संस्कृति और संस्कारों की संवाहक होती है। यह पालने की भाषा होती है जिससे व्यक्ति का समाजीकरण होता है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था असमानता की शिकार है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की बात करें तो यहां पर कुल मिलाकर कई दर्जन बोर्ड हैं। छह से 14 साल की आयु के सभी बच्चों के लिए समान पाठ्यक्रम वाली एक समान शिक्षा प्रणाली लागू करने के लिए उच्चतम न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका में विभिन्न शिक्षा बोर्ड का विलय करके देश में ‘एक राष्ट्र एक शिक्षा बोर्ड’ स्थापित करने की संभावना तलाश करने का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया गया है। यह व्यवस्था लागू होती है तो ही बात बनेगी। शिक्षा का माध्यम भले ही संबंधित राज्य की शासकीय भाषा के अनुरूप भिन्न हो सकता है लेकिन 6 से 14 साल की आयुवर्ग के बच्चों के लिए शिक्षा का पाठ्यक्रम एक समान होना चाहिए। दरअसल, केंद्र और राज्यों ने संविधान के अनुच्छेद 21ए (नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा) की भावना के अनरूप देश में एक समान पाठ्यक्रम वाली शिक्षा प्रणाली स्थापित करने की दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है। इसीलिए केंद्र और राज्यों द्वारा मूल्यों पर आधारित समान शिक्षा उपलब्ध कराए बगैर बच्चे संविधान के अनुच्छेद 21ए के तहत अपने मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। आज जिस तरह की प्रगति देश दुनिया और समाज में हुई है उसमें तकनीकी और  व्यावसायिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
ब्रिटिश राज के समय सार्वजनिक भवनों, सड़कों, नहरों और बंदरगाहों के निर्माण और रखरखाव के लिए ओवरसियर के प्रशिक्षण तथा थल सेना, नेवी एवं सर्वेक्षण विभाग के लिए उपकरणों के प्रयोग के लिए शिल्पकारों एवं कलाकारों के प्रशिक्षण की आवश्यकता के कारण महसूस की गई थी। तब अधीक्षण अभियंताओं की भर्ती मुख्य तौर पर ब्रिटेन के कूपरहिल कॉलेज से की जाती थी और यही प्रक्रिया फोरमैन और शिल्पकारों के लिए अपनाई जाती थी, पर यह प्रक्रिया निम्न ग्रेड शिल्पकार, कलाकार और उप-निरीक्षक, जो स्थानीय रूप से भर्ती किए जाते थे, के मामलों में नहीं अपनाई जाती थी। इनको पढ़ने, लिखने, गणित, रेखागणित और मैकेनिक्स में अधिक कुशल बनाने की आवश्यकता के कारण आयुध कारखानों और अन्य इंजीनिरिंग स्थापनाओं से जुड़े हुए औद्योगिक स्कूलों की स्थापना की गई। तब ब्रिटिश राज ने महसूस किया कि यूरोप और अमेरिका में तेजी से इंजीनियरिंग कॉलेज खुल रहे हैं ताकि उनके नागरिकों को अच्छी शिक्षा और गणित विषयों में विशेष दक्षता मिले। ऐसे में देश का पहला इंजीनियरिंग स्कूल सिविल इंजीनियरों के लिए 1847 में रुड़की, उत्तर प्रदेश में खोला गया। तब से अब तक उत्तरोत्तर तकनीकी शिक्षा की सुविधाएं बढ़ी हैं, यह सच्चाई है। पर पहली बात तो यह है कि क्या हम सभी तकनीकी विद्यार्थियों के लिए रोजगार का इंतजाम कर पाते हैं? उत्तर न में हो गया।
हर साल बड़ी संख्या में निकलने वाले इंजीनियरिंग या टेक्निकल ग्रेजुएट उचित रोजगार नहीं हासिल कर पाते। मेडिकल साइंस में खूब विकास करने के बाद आज हमें पता है कि स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक व्यायाम अनिवार्य है। इस शारीरिक व्यायाम को अगर छोटी उम्र से ही जीवन शैली में तब्दील कर दिया जाए तो हम देश का भविष्य स्वस्थ हाथों में दे सकते हैं। सभी जानते हैं  कि प्राचीन गुरु कुल शिक्षा प्रणाली में शारीरिक शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाता था। व्यायाम का आसान और मजेदार जरिया है खेलकूद। हर खेल के पीछे विज्ञान जुड़ा है। सही ज्ञान के साथ इसे अपनाया जाए तो इसके अनेक फायदे हैं। शारीरिक व्यायाम, मनोरंजन, फिटनेस, खेलकूद, पोषण आहार, स्वच्छता आदि में हम अग्रणी हो सकते हैं।

आचार्य पवन त्रिपाठी


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