क्यूएस रैंकिंग : ..तभी रहेंगे अव्वल

Last Updated 07 Jul 2020 03:39:19 AM IST

पिछले दिनों क्वांटम सैटिस (क्यूएस) र्वल्ड यूनिर्वसटिी रैंकिंग के आने के बाद शिक्षा से जुड़े लोगों में इस रैंकिंग को लेकर काफी कौतूहल रहा।


क्यूएस रैंकिंग : ..तभी रहेंगे अव्वल

भारतीय विश्वविद्यालयों में कितने विश्वविद्यालय इस रैंकिंग में सम्मिलित हो सके और सम्मिलित हुए तो उनका स्थान क्या है? क्यूएस जिन मानकों को विश्वविद्यालय रैंकिंग की गणना में प्रयुक्त करता हैं वे विशुद्ध माने जाते हैं।
यदि भारतीय विश्वविद्यालयों के संदर्भ में क्यूएस रैंकिंग को हम देखें तो इस रैंकिंग में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे ने 172वां  स्थान प्राप्त कर रैंकिंग में भारत के सर्वश्रेष्ठ संस्थान के अपने स्थान को लगातार तीसरे वर्ष बनाए रखा है। आईआईटी रु ड़की 383वें स्थान के साथ यथावत और आईआईटी गुवाहाटी की रैंकिंग में 19 स्थान के सुधार के साथ इसकी स्थिति 470 वीं हुई है। यह दीगर बात है कि क्यूएस र्वल्ड रैंकिंग में विश्व के शीर्ष 500 संस्थानों में भारत के केवल 8 संस्थानों को ही स्थान मिल सका है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आईआईटी बॉम्बे भारत की एनआईआरएफ रैंकिंग में श्रेष्ठ है और पिछली बार की तरह 2021 में भी अपना स्थान बनाने में सफल रहा है और भारत की ओर से प्रथम स्थान प्राप्त शैक्षणिक संस्थान भी है, लेकिन 2020 की तुलना में 20 स्थान नीचे चला गया है। इसे इस बार वैश्विक रैंकिंग में पिछले 152वें स्थान के मुकाबले 172वां स्थान मिला है। कुल 1029 विश्वविद्यालयों की सूची में शीर्ष 500 में सिर्फ  आठ भारतीय शिक्षण संस्थानों को ही स्थान मिल पाना कई सवाल खड़े करता है।

संस्थानों की रैंकिंग को आधार बनाने के लिए जिन मांगों का प्रयोग किया जाता है वह है अकादमिक, संस्थान की साख, शिक्षक विद्यार्थी अनुपात नियोक्ता की साख, अंतरराष्ट्रीय शिक्षक अनुपात, अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी अनुपात और शिक्षकों की प्रशस्ति यानी अकादमिक  क्षेत्र में उनकी उपलब्धि और उनकी मान्यता कितनी है। इन सारी बातों पर यह रैंकिंग निर्भर करती है। भारतीय उच्च शिक्षा को विश्व स्तर पर चिंताजनक स्थिति से उबारने की दिशा में एक प्रयास मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2016 में शुरू की गई एनआईआरएफ रैंकिंग थी, जिसको लाने का उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयों को रैंकिंग की प्रतिस्पर्धात्मक संस्कृति से अवगत कराना था। बुद्धिजीवियों का एक वर्ग इस रैंकिंग के पक्ष में नहीं रहा किंतु देखने वाली बात है कि वैश्विक स्तर पर विद्यार्थियों का आव्रजन बहुत कुछ इस रैंकिंग पर निर्भर करता है। जब भी शिक्षण संस्थानों में श्रेष्ठता के आधार पर प्रवेश की बात आती है तो इन्हीं रैंकिंग को मद्देनजर रखकर ही आगे की दिशा तय की जाती है।  आज मानव प्रतिभा और कौशल की मांग आखिर कहां नहीं है? आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद वे वैश्विक रैंकिंग में संतोषजनक प्रदशर्न क्यों नहीं कर पाते? एक सामान्य प्रवृत्ति यह पाई जा रही है कि भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों का अध्ययन,अध्यापन और उद्यम जुड़ाव संबंधी मामलों में तो अच्छा प्रदर्शन रहता है, लेकिन अनुसंधान संबंधी मामलों में वे मात खा जाते हैं। इस संदर्भ में आवश्यक हो जाता है भारतीय प्रोफेसरों में शोध पत्र प्रकाशित करने के लिए उत्साह और साथ ही एक घटक जिसे ‘इंपैक्ट फैक्टर’ कहा जाता है; जोकि किसी शोध पत्र की गुणवत्ता का मानक होता है उस पर भी ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है।
इस संदर्भ में एक और बात महत्त्वपूर्ण हो जाती है  वैचारिक खुलेपन और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। अमेरिका और यूरोप के विश्वविद्यालयों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उनके बेहतर प्रदशर्न का एक प्रमुख कारण है क्योंकि ‘वैचारिकता’ पाबंदियों में  विस्तार नहीं पाती। प्रयोगशाला, पुस्तकालय आदि में शोध संसाधनों की कमी, कई बार शिक्षण और प्रशासनिक कार्यों का अधिक बोझ, शोध कार्य उपेक्षा की बढ़ती हुई संस्कृति और प्रतिनिधि संस्थानों का राजनीतिकरण, इन सब कारकों ने शोध, अनुसंधान के वातावरण पर निरंतर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले रमन मैग्सेसे अवार्ड विजेता संदीप पांडे मानते हैं कि लोकतंत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं यदि मुफ्त नहीं भी हो सकतीं तो भी उन्हें न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध होना चाहिए। यदि हमें अपनी उच्च शिक्षा को वैश्विक स्तर पर आकषर्ण का केंद्र बनाना है तो यह आवश्यक हो जाता है कि विश्वविद्यालयीय शिक्षा से जुड़े सभी लोगों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की इच्छाशक्ति जागृत हो। इस दिशा में केंद्र तथा राज्य सरकारों का सहयोग हो तभी हम वैश्विक स्तर पर अपने शिक्षण संस्थानों को गौरव के साथ प्रतिष्ठित करने की दिशा में आगे बढ़ पाएंगे।

डॉ. श्रुति मिश्रा


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