आपातकाल : इतिहास की गलत व्याख्या
इधर कुछ वर्षो से सोशल मीडिया पर मध्यकालीन भारत से लेकर आजादी की लड़ाई तक के इतिहास पर कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं कि किस तरह एक विचारधारा के इतिहासकारों ने इतिहास लिखने में भेदभाव किया।
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जहां तक 1857 के बाद की इतिहास की परतों की बात आती है तो इसमें गलत-सही या तथ्यों को जानबूझ कर दूसरी तरफ मोड़ देने का खेल भी पकड़ में आ जाता है।
1900 से 1947 तक तो ज्यादा तोड़मोड़ की संभावना ही नहीं बनती। मगर किसी संदर्भ को ज्यादा प्रचारित कर किसी संदर्भ को गौण तो किया ही जा सकता है और 1942 के अंतिम यलगार तो प्रत्यक्ष रूप से सामने है ही कि उस निर्णायक लड़ाई में अग्रणी कौन रहे। इसी तरह से वर्तमान में भी आपातकाल पर कई तरह के प्रचार हुए और वह प्रचार देश में वैसे समय किया गया जब देश में इमरजेंसी में प्राप्त शक्तियों का उपयोग करते हुए संविधान के तहत देश के तमाम लोगों और संस्थाओं के मौलिक अधिकारों पर भी पाबंदी लगी हुई थी। हमारे मौलिक अधिकारों में ‘अभिव्यक्ति की स्वत्रंतता और आजाद प्रेस’ भी हैं, जिन्हें उस समय खत्म कर दिया गया था। तमाम प्रेस और प्रकाशन समूह ‘प्रेस सेंसरशिप’ से गुजर रहे थे। सरकार के पक्ष के अलावा आप कुछ लिख ही नहीं सकते थे और अगर कुछ विरोध में लिख दिया तो जेल के दरवाजे किसी भी समय आपके लिए खुल सकते थे।
इमरजेंसी की घोषणा के बाद से ही लगातार 18 महीने तक सरकार के इशारे पर हर पत्र-पत्रिका या सिनेमा के माध्यम से यही प्रचार किया गया कि विपक्ष ने देश में अशांति और अराजकता का माहौल पैदा कर दिया था, जिसके चलते देश पर इमरजेंसी लगानी पड़ी पर आजाद भारत का यह झूठ का सबसे बड़ा पुलिंदा था।
1971 की जीत के बाद तो श्रीमती इंदिरा गांधी ने 72 के विधानसभा चुनावों में हर तरफ जीत की पताका फहरा दी थी। कश्मीर से कन्याकुमारी तक तो उनका ही राज था। माना कि उनके एक मुख्यमंत्री की नासमझी से गुजरात में 1973 के अंत से छात्रों के एक छोटे प्रदशर्न ने बाद में विकराल रूप ले लिया और अंत में उन्हें वहां दुबारा चुनाव कराने पड़े। दूसरी तरफ बिहार में भी छात्र आंदोलन की शुरुआत हो गई और मार्च, 74 में पुलिस द्वारा गोलीकांड से बिहार के कोने-कोने से छात्र सड़क पर निकलने लगे और राजनीति से संन्यास ले चुके बूढ़े जयप्रकाश नारायण को फिर घर से बाहर निकल कर नेतृत्व की डोर पकड़नी पड़ी। जयप्रकाश आंदोलन ने जितनी तेज लपटें दिखाई उसकी लौ बिहार में मुख्यमंत्री परिवर्तन के बाद धीमी होने लगी थी। कुछ लोग तो समझौते के पक्ष में भी होने लगे थे। अचानक ही 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया। उन्हें संसद की कार्रवाई में हिस्सा लेने से भी रोक दिया। इस खबर ने देश की राजनीति में तो जैसे भूचाल ही ला दिया। उसी रात करीब 8 बजे गुजरात में हो रहे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की शिकस्त की खबर मिली और साथ ही निवर्तमान मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल की हार की भी खबर प्रसारित हो गई।
इन खबरों पर जब तक विपक्ष एकत्रित होकर इंदिरा गांधी पर हमलावर होता कि अचानक में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा कर दी और रातोंरात जो नेता जहां थे, वहीं से उनकी गिरफ्तारी शुरू कर दी। कहने का तात्पर्य यह है कि क्या गुजरात की एक साल पहले की घटना या बिहार आंदोलन के चलते देश में आपातकाल की घोषणा हुई या इंदिरा गांधी को अदालत से पदच्युत करने से? क्या लगातार 18 महीने तक यहां के मीडिया और लेखकों के माध्यम से एक गलत बात का प्रसार-प्रचार नहीं किया गया?
कम से कम जिस राजनैतिक और सामाजिक व्यक्ति ने यह समय देखा है, उसे तो याद ही होगा न कि देश में, बिहार को छोड़ कर, किसी भी राज्य में कम से कम फरवरी, 1975 से तो कोई आंदोलन तक भी नहीं हो रहा था? झूठा इतिहास परोसने का तो यह हम सबके सामने का ज्वलंत उदाहरण है। वैसे भी रामजन्म भूमि वाले मुकदमे में तो देश के तमाम इतिहासकारों को भूगर्भ विद्वानों की मेहनत और रिपोर्ट ने झूठा करार ही दिया।
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