पर्यावरण दिवस : सहेजे रखनी होगी जैव-विविधता

Last Updated 05 Jun 2020 12:57:37 AM IST

प्रतिवर्ष की भांति इस बार भी हम विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं। विश्व पर्यावरण दिवस की स्थापना 1972 में मानव वातावरण के विश्व सम्मेलन के बाद की गई थी।




पर्यावरण दिवस : सहेजे रखनी होगी जैव-विविधता

तभी से पर्यावरण में जागरूकता पैदा करने के लिए प्रति वर्ष गोष्ठी तथा योजनाओं को कार्यान्वित किया जाता है। 2020 का विषय जैव विविधता का सेलिब्रेशन है। विश्व में करीब 10 लाख प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। जैव विविधता के अंतर्गत मुख्यत: तीन चीज आती हैं। पहली-प्रजाति विविधता; दूसरी-जेनेटिक विविधता; और तीसरी-पारिस्थितिकी विविधता।
जैव विविधता का हमारी जीविका सुरक्षा में अहम योगदान है। किसी भी इकोसिस्टम सर्विसेज के लिए कृषि भी जैव विविधता पर निर्भर है। लेकिन आज के समय में लोगों तथा समाज द्वारा ऊर्जा के उपयोग से जैव विविधता का नुकसान हो रहा है। मानव स्वास्थ्य भी जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी परिवर्तन के कारण परिवर्तित होता है। विश्व स्तर पर मुख्यत: भारत में मानव समाज सांस्कृतिक पहचान, बौद्धिक संपत्ति तथा रचनात्मकता भी जैव विविधता से संबंधित है। भारत जैव विविधता के मामले में धनी देश है, जहां 60-70 फीसद जैव विविधता पाई जाती है। हमारी जैव विविधता के तीन तरह के संरक्षित क्षेत्र हैं। पहला-बायोस्फियर रिजर्व जो 18 हैं। जैसे सुंदरबन, मन्नार की खाड़ी, नीलगिरि के वन जो विश्व के संरक्षित रिजर्व के अंतर्गत भी आते हैं। पौधों को लें तो इनकी भारत में 47 हजार प्रजातियां हैं, जो विश्व में पौधों के 12 फीसद के बराबर हैं। करीब 5150 प्रजातियां (फ्लावरिंग प्लांट) लुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें 2532 प्रजातियां हिमायलीन क्षेत्रों में हैं। लुप्त होने वाली इन प्रजातियों में 1782 प्रायद्वीपीय भारत के क्षेत्रों में हैं। इनमें 1500 लुप्त होने वाली प्रजातियों पर ज्यादा खतरा हैं। वन को जैव विविधतता का घर माना जाता है। लेकिन दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे देश में  21.6 फीसद ही वन हैं। वन नीति केअनुसार मैदानी क्षेत्रों में 33 फीसद और पहाड़ी क्षेत्रों में 66 फीसद वन होने चाहिए। मगर दुखद है कि उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों को छोड़कर और कहीं वन राष्ट्रीय नीति के अनुसार नहीं हैं।

हाल के दिनों में चक्रवात, पहले प. बंगाल तथा ओडिशा तथा वर्तमान में महाराष्ट्र तथा गुजरात में, ने कहर ढाया है। भारत के तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव वन हुआ करते थे, जिनमें सुंदरबन का नाम लेना आवश्यक है। हाल के वर्षो में श्रृंग (झींगा) तथा एक्वाकल्चर डवलपमेंट के लिए बहुत सारे मैंग्रोव काट दिए गए। पहले ये वन चक्रवाती हवाओं के प्रभावों को कम कर देते थे। लेकिन हाल के दिनों में इनकी खेती इसलिए की जाती है कि इसके निर्यात से लोगों को भारी कमाई होती है, लेकिन इससे लोगों का रिस्क इन तूफानों के रूप बढ़ गया है। हाल के दिनों में तमाम प्राकृतिक आपदाएं बढ़ी हैं, जिनको हम ‘लो प्रोबैल्टी लेकिन हाई इंपेक्ट’ कहते हैं। जैसे; चेन्नई की बाढ़, जम्मू-कश्मीर की बाढ़ और केरल की बाढ़। 
भारत विश्व का चौथा कार्बन उत्सर्जित करने वाला देश है, जहां हमारी 1.32 बिलियन जनसंख्या निवास करती है। लेकिन हमने 2 अक्टूबर, 2016 को गांधी जयंती के दिन ‘पेरिस समझौते’ को मान लिया। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार हमें तापक्रम को 1.5 डिग्री के अंतर्गत ही रखना है। इसीलिए हमें 2030 तक 40 फीसद ऊर्जा संसाधन हरित तथा स्वच्छ ऊर्जा से पूरा करना होगा। इसके अंतर्गत भारत स्थापित अंतरराष्ट्रीय सौर्य संगठन में बड़ा योगदान देगा। हमें विज्ञान तथा पर्यावरण के सार्वजनिक मूल्यों को ध्यान देते हुए नीति-निर्धारण करने होंगे। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की भागीदारी विज्ञान तथा पर्यावरण के समेकित अंत:संबंधों पर ध्यान देते हुए राष्ट्रीय मिशन को समेकित रूप में विकास करना होगा। जैसे; सौर्य ऊर्जा, ऊर्जा क्षमता, सस्टेनेबल हैबिटैट, जल संरक्षण, हिमालय पर्वावरण प्रबंधन, हरित भारत और सस्टेबेल खेती इसके साथ-साथ हमें कोविड-19 के बाद स्वास्थ्य सुविधाएं तथा स्वास्थ्य संचार, तटीय क्षेत्र तथा अवशिष्ट ऊर्जा को बढ़ावा देना होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के सस्टेनेबल डवलपमेंट गोल्स तथा पेरिस क्लाइमेट एक्शन तथा डिजास्टर रिस्क रिडक्शन को समेकित रूप में विज्ञान के ज्ञान को ध्यान में रखते हुए नीति-निर्धारण तथा सामुदायिक संस्थाओं जैसे पंचायत और स्थानीय शहरी संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। तभी हम भारत में खाद्य सुरक्षा, जल एवं जलवायु सुरक्षा, जैव विविधता सुरक्षा तथा मानव स्वास्थ्य को अद्भुत रूप में विकसित कर सकेंगे।

प्रो. आरबी सिंह


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