राजस्व वृद्धि : कुछ और उपाय तलाशने होंगे
कोरोना महामारी ने नि:संदेह अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुंचाई है। पूरी दुनिया की आर्थिकी पटरी से उतर चुकी है।
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देश-प्रदेश की सरकारों को यह नहीं समझ में आ रहा है कि कैसे पुराने दिन वापस लाए जाएं। इस बीच शराब की बिक्री की इजाजत और पेट्रोलियम पदाथरे की कीमतों में इजाफा होने से कई सवाल भी खड़े हुए हैं। गौरतलब है कि भारत सरकार अलग-अलग टैक्स और स्रोतों से कमाई करती है। ये पैसा वो कल्याणकारी योजनाओं और विकास के कामों में खर्च करती है। मगर जिस तरह से लॉक-डाउन के दौरान ही कई राज्यों की सरकार ने अपनी झोली भरने के लिए शराब की बिक्री शुरू की और पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि की, वह चिंताजनक है।
स्वाभाविक तौर पर आज देश के सामने दो समस्या ज्यादा विकराल है। पहला कोरोना महामारी से निजात दिलाना और दूसरा अर्थव्यवस्था जो औंधे मुंह पड़ी हुई है, उसे ऊपर उठाना। कोविड-19 ने दुनिया के कमोबेश हर देश को झकझोर कर रख दिया है। और इससे उबरने का नुस्खा किसी के भी समझ से बाहर है। अर्थव्यवस्था को कैसे जीवंत बनाया जाए ज्यादा माथापच्ची इसी बात पर हो रही है। लेकिन जिस तरह से राजस्व बढ़ाने के लिए राज्य सरकारों ने शराब बेचने का फैसला लिया, वह न्यायोचित नहीं कहा जा सकता है। पूरे देश ने देखा कि किस तरह कोरोना से लड़ी जा रही लड़ाई के बीच लोगों ने शराब खरीदने के दौरान नियम-कायदों की धज्जियां उड़ाई। फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के राष्ट्रीय महामंत्री प्रवीन खंडेलवाल ने सीधे तौर पर कहा कि शराब की दुकानों को खोलना राज्य सरकारों के मानसिक दिवालियेपन और राजस्व प्राप्त करने के स्वार्थ का जीता जागता सबूत है। नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी अहम मसला है। ऐसे में सवाल तो पूछना बनता है कि जब खतरा इतना बड़ा है, तो इस तरह की लापरवाही क्यों की गई?
राजस्व बढ़ाने का जरिया भले शराब और पेट्रोलियम पदार्थ हैं, लेकिन इस वक्त सरकार को संयम और समझदारी से काम लेना था। बीते वर्ष सितम्बर में भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर राज्यों में कुल टैक्स राजस्व का लगभग 10-15 प्रतिशत हिस्सा शराब पर लगने वाले राज्य उत्पाद शुल्क से लिया जाता है, शायद इसी कारण से राज्यों ने शराब को वस्तु एवं सेवाकर के दायरे से बाहर रखा है। लॉक-डाउन में शराब बिक्री पर आंध्र प्रदेश ने 75 फीसद, दिल्ली ने 70 फीसद और उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा ने शराब की बोतल के हिसाब से टैक्स लगाया है। जिससे राज्यों को राजस्व में काफी वृद्धि देखने को मिली है। शराब के साथ-साथ पेट्रोल के दामों में भी तेजी से टैक्स का बढ़ाया जाना वो भी ऐसे समय जब देश में लोगों के पास आमदनी नहीं है, हास्यास्पद ही कहा जाएगा। वैसे भी दुनिया भर में तेल की कीमतों में काफी गिरावट आई है। वहीं सिर्फ राज्य सरकारों ने ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार ने भी एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी है। परिणामस्वरूप आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते लगभग 18 रुपये में मिलने वाला पेट्रोल 70-75 तक का हो गया है। शराब पर बढ़े हुए टैक्स का भले ही आम-जनमानस पर खास असर न पड़े, लेकिन पेट्रोल और डीजल आम आदमी का तेल निकालने वाले साबित होंगे। ज्यों ही ट्रांसपोर्ट की लागत बढ़ेगी; उसका असर उपभोक्ता तक पहुंचने वाले सामान की कीमत पर भी पड़ने लगेगा, जिससे आम आदमी की दुारियां ज्यादा बढ़ जाएगी। एक समस्या शराब की बिक्री से है। शराब की बिक्री के पहले यानी लॉक-डाउन-2 और लॉक-डाउन-3 के दौरान घरेलू हिंसा के मामले कुछ ज्यादा ही देखे गए। अब शराब की ब्रिकी से महिलाओं के खिलाफ अपराध और हिंसा बढ़ने का अंदेशा ज्यादा घना हो गया।
होना तो यह चाहिए था कि सरकारों को अपने खर्चे में कटौती करनी चाहिए थी। फ्लीट में लगी गाड़ियों में कमी करने से कुछ हद तक रुपयों की बचत होगी। साथ ही उद्योग बंदी के दौर में तमाम राज्य सरकारों को आय के दूसरे स्रोतों को बढ़ावा देना चाहिए। उदाहरण के लिए; संपत्ति कर, भू-राजस्व, टिकट और पंजीकरण शुल्क, कुछ फास्ट फूड पर स्पेशल कर लगा कर भी अपना खजाना भरा जा सकता है। इस तरह के उपाय हंगरी और मैक्सिको ने किए हैं। इसके अलावा अनावश्यक निर्माण पर रोक लगाकर और प्रधानमंत्री केयर्स फंड का उचित उपयोग करके भी जनता को राहत दे सकती है। हो सके तो सरकार को कोविड प्रभावित स्विट्जरलैंड, कनाडा, जर्मनी, डेनमार्क, जापान आदि देशों की आर्थिक प्लानिंग से भी सीखने की जरूरत है। ऐसे उपायों से ही भारत न केवल कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से निजात पा सकता है, वरन अपनी अर्थव्यवस्था को बुलंदी पर पहुंचा सकता है।
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