मध्य प्रदेश : जनादेश पर भारी ’ऑपरेशन‘

Last Updated 27 Mar 2020 05:12:52 AM IST

यह कोई संयोग ही नहीं था कि कोरोना वायरस से बचाव के तकाजों से संसद का बजट सत्र समय से पहले खत्म किए जाने के चंद घंटों में ही शिवराज सिंह चौहान को चौथी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई जा चुकी थी।




मध्य प्रदेश : जनादेश पर भारी ’ऑपरेशन‘

बेशक, इस तरह महज पंद्रह महीने में भाजपा की सत्ता में वापसी हो गई और लगातार पंद्रह साल राज्य में सत्ता से बाहर रही कांग्रेस एक बार फिर सत्ता से बाहर हो गई। चाहें तो इसे 2018 आखिर में मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में भाजपा की चुनावी हार खास तौर पर हिंदीभाषी भारत में विधानसभाई चुनावों में भाजपा की हार के सिलसिले को, जो पिछले महीने दिल्ली में हुए चुनाव में उसकी हार तक जारी था, पलटने में भाजपा के ‘आपरेशन कमल’ की कामयाबी भी कह सकते हैं।
लेकिन, इस कामयाबी की भारतीय जनतंत्र को क्या कीमत चुकानी पड़ी है, इसका कुछ अंदाजा उस संयोग की क्रोनोलॉजी से लगाया जा सकता है, जिसका हमने शुरू में जिक्र किया है। कोरोना वायरस की रोकथाम के जरूरी उपाय के तौर पर पूरे देश में लॉक डॉउन, यहां तक कि कथित ‘जनता कर्फ्यू’ लागू कराए जाने और विपक्षी सांसदों के बार-बार इस खतरे को देखते हुए, संसद का अधिवेशन खत्म किए जाने की मांग करने के बावजूद, संसद का सत्र समाप्त नहीं किया गया क्योंकि मध्य प्रदेश में ऑपरेशन कमल को कामयाब कराने के लिए यह जरूरी था। छह मंत्रियों समेत कमलनाथ सरकार के समर्थक 22 विधायकों के भाजपा-शासित कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में रिसॉर्ट में जा छुपने और भाजपा के माध्यम से विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफे भेज देने के बाद मध्य प्रदेश के स्पीकर ने कोरोना के खतरे के आधार पर विधानसभा की बैठक और इस तरह ‘आपरेशन कमल’ की सफलता भी, दस दिन यानी 26 मार्च तक टालने की कोशिश की थी। स्पीकर के फैसले को पलटवाने और तुरंत विधानसभा में बहुमत का परीक्षण कराने के लिए भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका डाली थी उसकी सफलता के लिए, सांसदों को खतरे में डालते हुए भी, संसद का अधिवेशन जारी रखा जाना जरूरी था।

जाहिर है कि मप्र में भाजपा की सत्ता में वापसी सुनिश्चित करने के बाद, संसद के अधिवेशन की जरूरत भी खत्म हो गई। मोदी सरकार का सक्रिय आशीर्वाद, भाजपा की मध्य प्रदेश में सत्ता में वापसी के लिए जरूरी तो था, लेकिन अपने आप में काफी नहीं। उसे काफी बनाया कांग्रेस के विधायकों में से थोक के हिसाब से दल-बदल कराने के भाजपा के ‘आपरेशन कमल’ ने। इसीलिए तो मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद चौहान ने सबसे पहला काम तो अपनी पार्टी की सदस्यता त्याग कर भाजपा की सदस्यता लेने के वाले 22 पूर्व विधायकों के प्रति ‘आभार प्रकट’ करने का ही किया। उन्हें भरोसा भी दिलाया कि ‘उनके विश्वास को कभी टूटने नहीं’ दिया जाएगा। यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। कांग्रेस से इस थोक दल-बदल और इस तरह चौहान की सत्ता में वापसी में धुरी की भूमिका अदा करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को वह कैसे भूल सकते थे? चौहान ने उनका हार्दिक आभार जताया, अभिनंदन किया और ‘सदैव मिलकर कार्य करते रहने’ का संकल्प भी जताया। 
जाहिर है कि इन्हीं सब हथकंडों के जरिए और दलबदल कानून को पूरी तरह से धता बताते हुए सिर्फ पंद्रह महीने पहले मध्य प्रदेश की जनता द्वारा चुनाव के जरिए किए गए फैसले को पलटा गया है। 2018 के आखिर में हुए विधानसभाई चुनाव में मध्य प्रदेश की जनता ने भाजपा को विपक्ष में बैठने का आदेश दिया था और कांग्रेस की सीटें करीब दोगुनी हो जाने के अर्थ में कांग्रेस के पक्ष में फैसला दिया था। हालांकि 114 सीटों के साथ कांग्रेस शुरू से 109 सीटों वाली भाजपा से साफ तौर पर आगे थी, फिर भी उसके 230 सदस्यीय सदन में बहुमत के अंक से दो सीट पीछे रहने के सहारे भाजपा ने किसी भी जोड़-जुगाड़ से दोबारा सत्ता में पहुंचने के लिए काफी हाथ-पांव मारे भी थे। लेकिन चंद महीनों में होने जा रहे लोकसभाई चुनाव से ऐन पहले मोदी की छवि पर अच्छा असर न पड़ने की चिंता से मोदी-शाह जोड़ी ने उस समय इन कोशिशों को बढ़ावा नहीं दिया।
बहरहाल, आम चुनाव में दोबारा जीत के बाद और मोदी-शाह जोड़ी के खुद भाजपा समेत देश भर में सत्ता पर अपना कब्जा पहले से भी ज्यादा मजबूत कर लेने के बाद, जोड़-जुगाड़ का वह संकोच हवा हो गया। उल्टे चुनाव में हार के बाद भी हर जगह किसी भी तिकड़म से सत्ता पर काबिज होने की भाजपा की हवस, जो मोदी-1 में गोवा, मणिपुर, मिजोरम से लेकर मेघालय, उत्तराखंड तक में खुलकर सामने आई थी, मोदी-2 में और भड़क उठी है, जिसके निशाने पर अब अपेक्षाकृत बड़े राज्य हैं। इस सिलसिले की शुरुआत कर्नाटक से हुई थी और अब मध्य प्रदेश में जो कुछ हुआ है, पिछले साल की जुलाई के आखिर में परवान चढ़े कर्नाटक के ‘आपरेशन कमल’ का ही दूसरा संस्करण है। यह दलबदल कानून को बेमानी बनाते हुए थोक में दलबदल कराने की तिकड़म का ही दूसरा नाम है। भारतीय जनतंत्र का दुर्भाग्य है कि चुनाव में पांच साल के लिए जनता के फैसले की हिफाजत करने के लिए बनाए गए दलबदल विरोधी कानून को सबके देखते-जानते हुए धता बताने के इस खेल में देश में सत्ता में बैठी पार्टी तो शामिल ही है और जैसा कि मध्य प्रदेश के खेल के सफल होने तक संसद का सत्र खींचे जाने से साफ है, इस खेल में विधायिका को भी घसीट लिया गया है।
इसके ऊपर से, जैसा कि मप्र प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से साफ है, न्यायपालिका भी जनतंत्र का मखौल बनाए जाने पर अंकुश लगाने में लगातार विफल हो रही है। इससे पहले कर्नाटक में सामूहिक इस्तीफा देने वाले दलबदलू विधायकों की विधानसभा की सदस्यता समाप्त करने के जरिए मौजूदा विधानसभा के कार्यकाल के दौरान उनके दोबारा चुनाव लड़ने पर रोक लगाई थी, सुप्रीम कोर्ट ने रोक हटाकर उनके वर्तमान विधानसभा में ही भाजपा के टिकट पर चुनकर फिर से पहुंचने का रास्ता खुलवाया था। जाहिर है कि मप्र के ऑपरेशन कमल-2 के लाभार्थियों को कर्नाटक के अपने समकक्षों जैसे लाभ मिलेंगे।
जब देश में सत्ता पर काबिज राजनीतिक शक्ति, जिसने अपने हाथों में अकूत धनबल भी जमा कर लिया है और जो सिर्फ नौकरशाही तथा विधायिका ही नहीं, तमाम संस्थाओं को अपने इशारे पर नचा रही है, चुनाव में जनता द्वारा चुनी गई विपक्षी सरकारों को हटाकर सत्ता हथियाने पर आमादा हो, तो उसका हाथ कौन पकड़ सकता है? शायद न्यायपालिका ही। लेकिन, शीर्ष न्यायपालिका यह जिम्मेदारी पूरी करने में लगातार विफल हो रही है। तभी तो ऑपरेशन कमल जीत रहे हैं और कहना न होगा कि जनादेश हार रहा है।

राजेन्द्र शर्मा


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