स्वास्थ्य : ऐसे कैसे सुधरेगी सेहत!
हाल ही में पेश किए गए आम बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वास्थ्य मंत्रालय को 69 हजार करोड़ रुपये का आवंटन किया है, जो पिछले साल दी गई 62398 करोड़ रु पये की राशि से अधिक है।
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हालांकि, हमें नहीं भूलना चाहिए कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपनी विभिन्न योजनाओं पर अमल के लिए एक लाख 17 हजार करोड़ रु पये की मांग की थी, लेकिन उसे उतना पैसा नहीं मिल पाया। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि देश स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लक्ष्यों को कैसे हासिल कर पाएगा? क्या हम देश के नागरिकों की सेहत को महज आयुष्मान योजना के भरोसे छोड़ देंगे?
केंद्र सरकार को समझना होगा कि स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाओं का पूरे देश, खासकर ग्रामीण इलाकों में विस्तार करना होगा और इसके लिए सरकार को बजट में कम-से-कम सवा लाख रु पये का प्रावधान करना चाहिए था। बल्कि होना तो यह चाहिए था कि वित्त मंत्रालय को स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा मांगी गई राशि से कहीं अधिक धन मुहैया कराना चाहिए था। गौर करने वाली विशेष बात यह है कि सरकार ने इस बार दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के बजट में भी भारी कमी की है। पिछले साल की तुलना में इस बार एम्स के बजट में 109.69 करोड़ की बड़ी कमी दर्ज की गई है। यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली एम्स में मरीजों की बहुत भारी भीड़ रहती है। लिहाजा, सरकार को जहां ऐसे अस्पताल का बजट बढ़ाना चाहिए था, इसका बजट कम कर दिया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि भारत में करीब 1500 व्यक्तियों पर केवल एक डॉक्टर है जबकि यह अनुपात 1000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर का होना चाहिए।
आंकड़ों के मुताबिक, इस समय हमारे देश में 4.3 लाख डॉक्टरों की जरूरत है। ऐसे में देश में डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने और 1000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की सख्त जरूरत प्रतीत होती है। देश में स्वास्थ्य सेक्टर की स्थिति कितनी गंभीर है इसे भारतीय चिकित्सा संगठन (आईएमए) के एक बयान से समझा जा सकता है। आईएमए के मुताबिक, कई बार तो ऐसी स्थिति हो जाती है कि एक ही बेड पर दो-दो मरीजों को रखना पड़ जाता है और डॉक्टर काम के बोझ के तले दबे रहते हैं। वहीं हाल ही में नीति आयोग ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और विश्व बैंक के तकनीकी सहयोग से ‘स्वस्थ राज्य प्रगतिशील भारत’ शीषर्क से एक रिपोर्ट जारी किया था। रिपोर्ट से पता चला कि आजादी के 70 सालों के बाद भी स्वास्थ्य संबंधी मामलों पर हमारा रवैया कितना उदासीन रहा है। ऐसे में सरकार को समझना होगा कि स्वास्थ्य क्षेत्र में अभी किस तरह से काम करने की जरूरत है। साथ ही इसमें सुधार के लिए स्थिर प्रशासन, महत्त्वपूर्ण पदों को भरा जाना तथा स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की कितनी जरूरत है। राज्य स्वास्थ्य सेवाओं पर केवल अपने जीडीपी का औसतन 4.7 प्रतिशत खर्च करते हैं जबकि इसे बढ़ाए जाने की जरूरत है।
स्वास्थ्य बजट बढ़ाने से इसमें सुधार की भरपूर गुंजाइश नजर आती है। नीति आयोग के एक सदस्य ने कहा भी था कि केंद्र सरकार को सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए, जबकि राज्यों को स्वास्थ्य पर राज्य जीडीपी का औसतन 4.7 प्रतिशत से बढ़ाकर 8 प्रतिशत खर्च करना चाहिए। सरकार ने भले ही बजट में सेहतमंद भारत का संकल्प व्यक्त किया हो और सेहत के मोर्चे पर शिद्दत से काम करने का इरादा जताया हो, लेकिन देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। यह नहीं भूलना चाहिए कि ग्लोबल हेल्थकेयर सर्विसेज तक पहुंच और उनकी गुणवत्ता के मामले में भारत 145 वें पायदान पर है।
195 देशों की इस सूची के मुताबिक स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भारत अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान से भी पीछे है। यह जानकारी दुनिया की प्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिका ‘द लांसेट’ में हाल में प्रकाशित एक अध्ययन में सामने आई थी। निश्चित रूप से भारत जैसे एक विकासशील देश के लिए यह चिंता का विषय है। जहां हमारा देश हर क्षेत्र में तरक्की की नई इबारत लिख रहा है और नित नई सफलता अर्जित कर रहा है वहीं स्वास्थ्य के मामले में बांग्लादेश जैसे देश से भी भारत के पीछे रहने को किसी मायने में सही नहीं ठहराया जा सकता। ऐसे में देश के नागरिकों के सेहत में सुधार और बेहतरी के लिए सरकार को बजट बढ़ाना ही होगा और उसे अन्य कदम उठाने ही होंगे।
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