दिल्ली चुनाव : भाजपा बनाम केजरीवाल
दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार अपने परवान पर है। एक समय लग रहा था कि पूरा चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए एकपक्षीय जैसा है।
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मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में लहर जैसा वातावरण था। कांग्रेस ने लोक सभा चुनाव में जोर लगाया और दूसरे स्थान पर पहुंच गई। किंतु शीला दीक्षित के देहांत के बाद कांग्रेस फिर पुराने कोमा में पहुंच गई।
निजी स्तर पर कुछ नेताओं की लोकप्रियता अवश्य है, लेकिन पार्टी के नाम पर कांग्रेस बिल्कुल निष्प्रभावी है। भाजपा के आम कार्यकर्ता भी मानने लगे थे कि कांग्रेस संघर्ष में नहीं है तो हमारे लिए मैदान फतह करना मुश्किल है। यह मानिसकता आप को वॉकओवर देने वाली थी। किंतु गृह मंत्री अमित शाह द्वारा चुनाव का नेतृत्व अपने हाथों लेने के बाद भाजपा के अंदर तथा उसके समर्थकों के बीच नई तरह का आलोड़न हुआ है। जब पार्टी का दूसरा शीर्ष नेता इतने आक्रामक तरीके स्वयं प्रचार में कूदता है, जनता के बीच जाकर पैम्फलेट बांटता है तो कार्यकर्ताओं में जोश आता ही है। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभाएं भी हो रही हैं। इस तरह दिल्ली के चुनाव में अब संघर्ष दिख रहा है। तो फिर होगा क्या? क्या भाजपा बाजी मार लेगी या आप की सत्ता बरकार रहेगी? कांग्रेस की स्थिति क्या होगी? 2015 के विधानसभा चुनावों के अनुसार विचार करें तो आप के सामने भाजपा कहीं नहीं है। 54.30 प्रतिशत मत के साथ 70 में से 67 सीटें जीतने वाली पार्टी को पराजित करना आसान नहीं हो सकता। दूसरे स्थान पर रही भाजपा को 32.10 प्रतिशत मत के साथ केवल तीन सीटें मिली थीं एवं कांग्रेस को केवल 9.60 प्रतिशत मत मिला था।
भाजपा को विजय पानी है तो 13 प्रतिशत मतों की बढ़ोतरी करनी होगी। लोक सभा चुनाव में भाजपा ने 56.50 प्रतिशत मत के साथ सभी सात सीटें जीत ली थीं। लेकिन लोक सभा एवं विधानसभा चुनाव में कई बार मौलिक अंतर परिणामों को प्रभावित करते हैं। मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल का चेहरा है जबकि भाजपा में सामने कोई चेहरा नहीं है। अध्यक्ष मनोज तिवारी अपने कार्यकाल में केजरीवाल को राजनीतिक रूप से दबाव में लाने में कभी सफल नहीं रहे। प्रधानमंत्री मोदी भाजपा के लिए अवश्य तुरु प का पत्ता हैं लेकिन दिल्ली में लोगों को मुख्यमंत्री का चुनाव करना है, प्रधानमंत्री का नहीं। मतदाताओं का यह मनोविज्ञान पिछले साल हुए तीनों विधानसभा चुनावों में दिखा है।
भाजपा इसे समझ रही है, इसीलिए उसने प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी है। दिल्ली में भाजपा का इस तरह का हल्लाबोल चुनाव प्रचार कभी नहीं देखा गया। केजरीवाल का नारा है कि हमने काम किया है तो वोट दो। अमित शाह कहते हैं कि उन्होंने पांच साल किया तो कुछ नहीं, लेकिन जो काम हमने किया उसे अपने नाम से बधाई हो का पोस्टर जरु र लगा रहे हैं। सच है कि 2015 के विधानसभा चुनाव के घोषणा पत्र को देखें तो केजरीवाल सरकार फिसड्डी साबित होगी। 90 प्रतिशत से ज्यादा वायदों की मुख्यमंत्री चर्चा ही नहीं करते।
70 विधानसभाओं के लिए अलग-अलग घोषणाएं हुई थीं, 20 महाविद्यालय एवं 500 विद्यालय, झुग्गी की जगह पक्के मकान, सभी बसों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए माशर्ल, मुफ्त वाई-फाई, सीसीटीवी कैमरे आदि ऐसे अनेक वायदे हैं, जिन पर उनके पास जवाब कुछ नहीं है। हालांकि मोहल्ला क्लिनिक, अस्पतालों की स्थिति में सुधार से स्वास्थ्य सेवाएं थोड़ी सुधरी हैं। चुनाव नजदीक आते ही उन्होंने सीसीटीवी कैमरे भी लगवाए। बावजूद अन्य वायदे घोषणा पत्र में ही रह गए। यही नहीं भ्रष्टाचार के विरु द्ध जिस अन्ना अभियान से केजरीवाल नायक बनकर उभरे थे, उस पर उन्होंने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया। चिदम्बरम को चोर बताने वाले केजरीवाल उनके खिलाफ कार्रवाई पर खामोश रहे। रॉबर्ट वाड्रा से लेकर शरद पवार तक पर उनकी खामोशी हैरत में डालने वाली है। आंदोलन तथा पार्टी की स्थापना से लेकर जीत में भूमिका निभाने वाले प्रमुख साथियों को या तो बाहर किया गया या ऐसी स्थिति पैदा की गई जिससे वे स्वयं बाहर चले जाएं। पार्टी में वही है जिनके लिए केजरीवाल का हर शब्द अंतिम है। एक नायक के व्यक्तित्व में इतनी बड़ी गिरावट उनके पूरे चरित्र को कठघरे में खड़ा करती है। चुनाव में यह सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए किंतु भाजपा उठा इस मामले में विफल रही।
केजरीवाल की राजनीति में तुरूप का इक्का बिजली-पानी तथा महिलाओं के लिए बसों में मुफ्त यात्रा का निर्णय है। इन तीन कदमों से केजरीवाल भाजपा पर भारी पड़ गए। भाजपा ने इसकी काट के लिए संकल्प पत्र में साफ किया है कि सत्ता में आई तो बिजली-पानी के शुल्क में कटौती जारी रहेगी। भाजपा ने भी लुभावने वायदे किए हैं। दो रु पये किलो आटा से लेकर लड़कियों के लिए साइकिल और स्कूटी आदि। ऐसा नहीं है कि भाजपा के अनुकूल धारा 370 हटाकर कश्मीर का पूरा चरित्र बदलने, आतंकवाद विरोधी कानून में संशोधन, तीन तलाक विरोधी कानून, नागरिकता संशोधन कानून आदि विषयों से लोग प्रभावित नहीं हैं। शाहीन बाग का धरना एवं जेएनयू से जामिया तक के हंगामे ने भी उसके समर्थकों को पक्ष में खड़ा किया है किंतु बिजली, पानी का शुल्क और महिलाओं की मुफ्त यात्रा सब पर भारी थे। हां, अब माहौल जरा बदला है। अनिधकृत कॉलोनियों को अधिकृत करने की घोषणा के प्रचार का भी थोड़ा असर है। भाजपा के पक्ष में एक अंकगणित की ओर कम लोगों का ध्यान जा रहा है। दिल्ली में भाजपा के 62 लाख 28 हजार 172 सदस्य हैं, जो कुल मतदाताओं 1.46 करोड़ का 42.4 प्रतिशत है। 2015 के विधानसभा चुनाव में 67. 12 प्रतिशत मतदान हुआ था। इतना ही मतदान हआ तो कुल 98 लाख 43 हजार 732 मतदाता मत डालेंगे।
भाजपा के सदस्य उसके पक्ष में मतदन करते हैं तो वह 63.27 प्रतिशत मत पा लेगी। हालांकि 2015 के चुनाव में सदस्यों के पूरे मत पार्टी हासिल नहीं कर पाई थी। भाजपा के 2015 में 44,45,172 सदस्य थे जबकि मत मिले केवल 28,90,485। 2019 के सदस्यता अभियान में भाजपा ने 10 लाख के लक्ष्य के मुकाबले 17,83,000 नये सदस्य जोड़े हैं। ये नये सदस्य भाजपा के पक्ष में आ जाते हैं, तो पासा पलट सकता है। भाजपा के लिए परीक्षण का मामला भी है कि उसके अपने सदस्य उसे मत देते हैं, या केजरीवाल की आभा में चुनाव में मोदी के चेहरे को नजरअंदाज करते हैं।
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