मीडिया : शाहीन बाग की मानी

Last Updated 19 Jan 2020 03:39:57 AM IST

मीडिया न होता तो शाहीन बाग होता। खबर चैनलों के लिए आज वह विरोध की एक ‘आइकॅनिक साइट’ है। सोशल मीडिया ने उसे मिथक में बदल दिया है।




मीडिया : शाहीन बाग की मानी

यह मुस्लिम बहुल इलाका है। नोएडा और सरिता विहार के बीच एक टी प्वाइंट है, जिसके ठीक पीछे कालिंदी कुंज है। तीस-पैंतीस दिनों से यहां पिछले दिनों बने ‘नागरिकता संशोधन कानून’; और आसन्न एनआरसी के विरोध में मुस्लिम औरतों का अनश्चितकालीन ‘धरना’ चल रहा है।
सड़क पर दरियां बिछी हैं। ठंड से बचाने के लिए तंबू लगा है। मंच भी बना है। माइक आदि भी हैं, और हर धरने के हिसाब से चाय-पानी, बिरयानी आदि की दुकानें भी खुल गई हैं। यों तो नागरिकता कानून का विरोध बाकी जगह लगभग खत्म हो चला है, लेकिन अगर कहीं बचा है तो शाहीन बाग में बचा है। बहुत से विपक्षी नेताओं के लिए वह ऐसी ‘गंगा’ है, जिसमें डुबकी लगाकर अपने निकम्मेपन, पापों को धोया जा सकता है। बहुतों के लिए यह तमाशा है, लेकिन बहुतों के लिए संदेश भी है कि समाज में कहीं जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है कि जो मुस्लिम गृहस्थिनें घरों से बाहर कम ही निकलती दिखा करती हैं, वे कड़ाके की ठंड में भी अचानक सड़क पर उतर आई हैं, और संग में अपने साथ  दुधमुंहे बच्चों तक को ले आई हैं।

यह एक ऐसा ‘सबॉल्टर्न-सी’ जिद से भरा दृश्य है, जिसका साहस देख एंकर-रिपोर्टर तक दंग नजर आते हैं। ऐसा लीडरलेस स्त्रीत्ववादी प्रतिरोध है, जिसे कोई अंग्रेजी पढ़ी-लिखी फेमिनिस्ट नहीं लीड कर रही बल्कि निरी घरेलू औरतें लीड कर रही हैं, और शायद इसीलिए यह प्रशासन के लिए अधिक खिझाने वाला और चुनौतीपूर्ण है। पहला धरना है जिसने इतने दिनों में किसी को एक ऐसा बहाना नहीं दिया जिससे कि उसे बदनाम और ‘आइसोलेट’ करने का मौका मिलता। यद्यपि कुछ ने आरोप लगाया है कि यह ‘पेड धरना’ है, या कि इसके पीछे विपक्ष है लेकिन उसकी धज नहीं बिगड़ी है। यह सच है कि धरने की वजह से हैवी ट्रैफिक से बजबजाती सड़क आने-जाने वालों के लिए बंद है, जिससे उनको लंबा चक्कर करके आना-जाना पड़ रहा है। शासन ने कई बार चाहा है कि धरना हट जाए या इतना सिमट जाए ताकि आने-जाने वाले ट्रैफिक को परेशानी न हो, लेकिन इस सबका कोई असर नहीं हुआ है। धरने ने अपने को निरंतर नवोन्मेषी बनाया हुआ है। यहां कभी ‘फ्रीडम’ वाले पोस्टर लग जाते हैं, तो कभी नये-नये नारे खोज लिए जाते हैं। इसी क्रम में एक शाम दो बच्चों ने नारे लगाए जो कई चैनलों के लिए चौंकाने वाले रहे। आठ वर्षीय एक बालक ने नारा लगाया कि ‘जो हिटलर की चाल चलेगा वह हिटलर की मौत मरेगा’ और दूसरा नारा था ‘इंकिलाब इंकिलाब इंकिलाब इंकिलाब। जिंदाबाद जिंदाबाद जिंदाबाद जिंदाबाद!’ इसी तरह तीन बरस के एक बच्चे/बच्ची ने अपने क्रोध को एक कैमरे के आगे कुछ इस तरह व्यक्त किया कि ‘.ज़ो हमारे मुसलमानों को सता रहे हैं दो लोग मैं उनको मारकर रहूंगा। मुझे बंदूक दे दो..।’ इसे सुनाकर एक एंकर ने अपना गहरा अफसोस जताया कि..‘बच्चों तक में इतनी नफरत क्यों भरी जा रही है। कम से कम मासूम बच्चों को तो बख्शो..!’
 जब एक एंकर ने पूछा कि आप यहां से कब हटेंगे तो उनने कहा कि वे आएं, हमारे डरों को खत्म कर दें। हमें यकीन दिला दें कि वह सब नहीं होगा जो हमें लगता है, तो हम हट जाएंगे। जब एक एंकर ने शिकायत की कि आपके धरने से दो रास्ते बंद हैं, तो एक महिला बोली कि अगर ये कानून आ गए तो हमारे तो सारे रास्ते बंद हो जाएंगे..। कहने की जरूरत नहीं कि जब डर का अभ्यंतरीकरण हो जाता है तो घर के बच्चों तक में वह समा जाता है। ये बच्चे उसी डर को कह रहे हैं, जो घर में सुनाई पड़ता है। एक ओर शिकायतें हैं, तो दूसरी ओर कोई सुनने वाला नहीं दिखता। एक ओर जिद भरी शिकायतें हैं, तो दूसरी ओर निरी चुप्पी और संवादहीनता हैं। 
टीवी की बहसों में, रैलियों में आप लाख आश्वासन दें कि ‘नागरिकता कानून’ नागरिकता देने का कानून है, किसी की नागरिकता छीनने का नहीं, लेकिन डरे हुए व्यक्ति को अगर कायदे से आश्वस्त न किया जाए तो उसका भरोसा उठ जाता है, और असंबोधित डर क्रमश: एक ‘व्याधि’ में, एक किस्म के ‘पेरानोइया’ में बदल जाता है।
एक बड़े समूह को, उसके सच या मिथ्या ‘डर’ से संवाद न करके, उसे  यों ‘अकेला’ छोड़कर आप न अपने को ‘निडर’ बना सकते हैं, और न विकास के लिए जरूरी एक ‘निडर’ समाज बना सकते हैं।

सुधीश पचौरी


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