आर्थिक मंदी : एक्शन में आइए सरकार !
बहुत जल्दी ही आर्थिक मंदी देश के शासन में राजनैतिक लड़ाई का रूप लेने जा रही है। मंदी से राजस्व वसूली में आई गिरावट के बाद केंद्र ने राज्यों की हिस्सेदारी में कटौती शुरू कर दी है।
![]() आर्थिक मंदी : एक्शन में आइए सरकार ! |
उसने विलासिता की चीजों पर जीएसटी के ऊपर लगने वाले उपकर वसूलने के बाद भी राज्यों के हिस्से के लगभग बीस हजार करोड़ रुपये नहीं दिए हैं। मामला सिर्फ भुगतान न करने या देरी का नहीं है। केंद्र ने यह भुगतान न करने का पत्र राज्यों को लिखा है, और राजस्व में आ रही गिरावट को इसकी वजह बताया है, जबकि जीएसटी कानून के अनुसार राज्यों का हिस्सा रोका नहीं जा सकता। केरल समेत कई राज्यों ने विरोध किया है, और होने वाली जीसटी कौंसिल की अगली बैठक में यह मुद्दा जोर-शोर से उठने की उम्मीद है। कई राज्यों के राजस्व में इतनी कमी आ गई है कि वे अपने कर्मचारियों का वेतन देने में परेशानी महसूस करने लगे हैं। राज्य राजस्व वसूल कर सिर्फ अपने अधिकारयों-कर्मचारियों के ऊपर खर्च करें यह मुश्किल तो है ही विलासिता की चीजों और सिगरेट-शराब जैसी चीजों पर नया उपकर लगाकर और वसूली करें यह भी आसान विकल्प नहीं है।
मुश्किल यह है कि ऐसी स्थिति आने और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे भाजपा नेताओं के खुलकर बोलने के बावजूद सरकार अभी भी मंदी का खंडन ही कर रही है। जिस दिन जीडीपी अर्थात सकल घरेलू उत्पादन के विकास दर में छह साल का सबसे निचला स्तर आ जाने की खबर आई, उससे ठीक एक दिन पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण संसद में यह बात बहुत जोर-शोर से कह रही थीं कि विकास दर में कुछ कमी जरूर आई है पर मंदी नहीं है। इसके साथ ही वे अपनी तरफ से दिखाई जानी वाली मुस्तैदी की चर्चा भी कर रही थीं और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में तेजी लाने वाले कदमों का जिक्र कर रही थीं। तीसरी तिमाही की गिरावट का सबसे डरावना पक्ष यह है कि करखनिया उत्पादन में गिरावट शुरू हो गई है, और संरचना क्षेत्र में मंदी पहुंच गई है। कोयले की मांग में चौथाई तक की कमी दिखने लगी है तो बिजलीघरों का प्लांट लोड फैक्टर पचास फीसद के नीचे आ गया है, और रेलवे का ऑपरेटिंग रेश्यो दस साल के निचले स्तर पर आ गया है। बाद में वित्त मंत्री की तरफ से नहीं, सरकार की तरफ से बयान आया कि चिंता की कोई बात नहीं है।
पर यह चिंता की बात है। आर्थिक गिरावट के लिए बहुत ज्यादा आंकड़े देकर इस चर्चा को बोझिल करने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह बताना जरूरी है कि विकास दर में एक फीसद गिरावट का व्यावहारिक मतलब प्रति व्यक्ति आय में सौ रु पये से ज्यादा (103 रु पये) की कमी होना है। और इस कमी का मतलब प्रति व्यक्ति खर्च और खपत का कम होना है। और इन दोनों परिघटनाओं का मतलब आर्थिक कामकाज और उत्पादन में गिरावट है।
अब यहां एक और आंकड़े की चर्चा जरूरी है। सरकार ने खपत में आने वाली गिरावट को बताने वाले आंकड़ों को जारी नहीं किया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, जो हमारी काफी पुरानी और प्रतिष्ठित एजेंसी है और जिसका दुनिया भरोसा करती है, के अनुसार 2011-12 और 2017-18 के बीच हमारी सामान्य खपत में 3.7 फीसद, ग्रामीण इलाकों की खपत में 8.8 फीसद और खाद्य पदाथरे की खपत में 10 फीसद की गिरावट आई है। सरकार का कहना है कि ये आंकड़े अविसनीय हैं क्योंकि ऐसा होता तो गरीबी और बेकारी आसमान पहुंच गई होती। सरकार की मंशा साफ होती और उसे आंकड़ों की विसनीयता पर शक होता तो भी उसे इन्हें जारी करना चाहिए था क्योंकि ज्यादा जानकार लोग उनकी गलतियों को पकड़ें और अन्य उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर उसके सही-गलत होने का अन्दाजा लगाएं। मुश्किल यह है कि यह सरकार अकेले इसी आंकड़े से ही नहीं डरती-यह आंकड़ों से डरती है। और इसी के चलते इसने जीडीपी की गणना की जो नई खला शुरू कराई उसे लेकर जानकारों में काफी विवाद था। पिछले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रहमण्यम तो ढाई फीसद का मार्जिन देकर ही गणना करने की सलाह देते हैं। और सिर्फ उनकी ही बात नहीं है, आज सरकार द्वारा दिए जाने वाले सारे आंकड़े ही संदिग्ध हो गए हैं।
वित्त मंत्री और सरकार के लोग मंदी का खंडन करें या अभी भी विकास दर के आसमान चढ़ने की उम्मीद पालें और पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना पालें पर इस बार के बजट के बाद से सरकार ने कई खेप में जो कदम उठाए हैं, उनसे साफ है कि वह मंदी को आते देखकर अपनी तरफ से कोशिश कर रही है। कोई चाहे तो इस तत्परता पर खुश हो सकता है, लेकिन यह सवाल उठाना ही होगा कि जब नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के बाद से ही मंदी साफ दिखने लगी थी, तब से ही कदम क्यों न उठाए गए। पिछला अंतरिम बजट तो चुनाव की छाया में पेश हुआ लेकिन नियमित बजट देते हुए भी निर्मला जी को मंदी क्यों नहीं दिखी। और बजट के बाद से ही कम से कम पांच पैकेज के रूप में घोषित इन कदमों ने अगर बजट के सारे ‘सुपर रिच’ विरोधी तेवर को ढीला कर दिया है, तो फिर बजट में बेकार में ऐसे कदम उठाने का ताव दिखाने की क्या जरूरत थी। और यह सवाल भी उठाना ही होगा कि मंदी को देखते हुए भी कदम उठाने में इतनी देरी क्यों (एक कारण तो चुनाव में आर्थिक मंदी को मुद्दा न बनने देने की मंशा हो सकती है) हुई और क्या इस देरी ने मंदी से लड़ना और मुश्किल नहीं बना दिया। और मंदी को स्वीकार न करके भी सरकार जो कदम उठा रही है, वह मंदी से लड़ने की उल्टी दिशा है। कई बार लगता है कि यह समझ का फेर या गलती न होकर अपने प्रिय लोगों का खजाना भरने और बाकी सभी को भगवान भरोसे छोड़ने की सोची-समझी रणनीति है। आर्थिक सलाहकार सलाह न मांगे जाने से परेशान होकर भाग रहे हैं, और सारे फैसले अनपढ़ लोग ले रहे हों तो इसे मात्र समझ का फेर मानना भी मूर्खता ही होगी।
सरकार का खंडन-मंडन चुनाव के हिसाब से ठीक हो सकता है, लेकिन जब हर कहीं से आर्थिक विकास दर गिरते जाने की खबर आ रही है तो पांच ट्रिलियन की इकॉनमी लाने का दावा करने वाली सरकार को कुछ चीजें स्वीकार करके गंभीर कोशिश शुरू करनी चाहिए। वह गंभीरता सिरे से गायब है।
| Tweet![]() |