दिल्ली-शिक्षा : रिपोर्ट कार्ड वैसा नहीं
बीते तीन सालों में देश में जब भी सरकारी स्कूलों की बात आई तो सबसे अधिक चर्चा दिल्ली के सरकारी स्कूलों की ही हुई। स्विमिंग पूल, जिम, आलीशान बिल्डिंग की तस्वीर लोगों के लिए सुखद आश्चर्य का विषय बनीं।
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आम आदमी पार्टी (आप) के शब्दों में कहें तो जिसने देखा, उसे लगा कि दिल्ली में सचमुच शिक्षा क्रांति हो गई। दिल्ली की शिक्षा पर किए काम को आप अपनी विशेष उपलब्धि मानती है। लेकिन हकीकत इतनी सुहावनी नहीं है, जो बताई जा रही है।
दिल्ली देश का संभवत: एकमात्र ऐसा राज्य होगा जहां र्वल्ड क्लास शिक्षा के तमाम दावों के उलट लगभग आधे बच्चे आज भी नौवीं कक्षा में ही फेल कर दिए जाते हैं। कुछ यही हाल 11वीं का है, जहां बड़ी संख्या में बच्चे हर साल फेल हो रहे हैं। बात केवल फेल-पास तक सीमित नहीं है। एक अघोषित नीति के तहत फेल बच्चों को दोबारा परीक्षा देने से भी वंचित किया जा रहा है। सत्र 2017-18 में ही डेढ़ लाख से अधिक बच्चे कक्षा 9 से 12वीं तक की परीक्षा में फेल हुए थे। इनमें से केवल 52,582 ही दोबारा नामांकन लेने में सफल रहे। बाकी के 1,02,854 यानी 66 फीसद बच्चों को दोबारा नामांकन ही नहीं लेने दिया गया। अधिक प्रभावित दसवीं-बारहवीं में 91 फीसद फेल हुए बच्चे थे, जिन्हें नामांकन नहीं लेने दिया गया। यह बात एक सत्र तक सीमित नहीं है। ऐसी स्थिति किसी और राज्य में होती तो कोहराम मच जाता। शिक्षा क्रांति की आड़ में देश की राजधानी में ही बिना किसी शोर-शराबे के लाखों बच्चे चुपचाप स्कूली शिक्षा से वंचित किए जाते रहे। दिल्ली सरकार बारहवीं के परिणाम पर अपनी पीठ थपथपाना नहीं भूलती। परीक्षा परिणामों का अध्ययन करें तो सरकारी स्कूलों का औसत परिणाम बीते एक दशक से हमेशा अच्छा ही रहा है। 2005 में दिल्ली के सरकारी स्कूल प्राइवेट स्कूलों से 13 अंकों से पीछे थे, लेकिन धीरे-धीरे न केवल उनकी बराबरी की बल्कि 2009 और 2010 में लगातार उन्हें पछाड़ा भी है।
पास-फेल के आंकड़े को एक तरफ रखकर आंकड़े देखें तो बारहवीं में बैठने वाले बच्चों की संख्या बीते दो दशकों से लगातार बढ़ती जा रही थी, वह आप की सरकार बनने के बाद से ही बड़ी तेजी के साथ घट रही है। 2005 से 2014 तक परीक्षा में बैठने वाले बच्चों की संख्या 60,570 से बढ़कर 1,66,257 हो गई थी, वह 2015 के बाद हर साल घटते-घटते 2018 में 1,12,826 तक पहुंच गई। क्या यह चिंताजनक स्थिति नहीं है! बारहवीं के परिणाम पर वाहवाही लूटने की कोशिश करते लोग दसवीं के खराब परिणाम पर चुप्पी साध लेते हैं। वे यह कभी नहीं बताते कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों के परिणाम प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले में कहीं नहीं टिकते। पिछले साल 20 अंकों के अंतर से सरकारी स्कूल पीछे थे, इस बार रिजल्ट में आंशिक सुधार के बावजूद 21 अंकों से पीछे हैं। 2001-02 में 45 अंकों से पीछे रहने वाले दिल्ली के जिन सरकारी स्कूलों ने 2013 के परिणामों में प्राइवेट को पछाड़ा था, आज दो सालों से राष्ट्रीय औसत से भी काफी कम परिणाम दे रहे हैं। बावजूद कोई जिम्मेवारी लेने को आगे नहीं आ रहा। 2018-19 में आई दिल्ली के इकॉनोमिक सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ रही है, सैकड़ों स्कूलों में प्राथमिक कक्षाएं शुरू हुई। फिर भी नामांकन लगातार घट रहे है। वहीं प्राइवेट स्कूलों की संख्या घटने के बावजूद नामांकित बच्चों की संख्या बढ़ रही है। दिल्ली की जनसंख्या बढ़ने के बावजूद कुल नामांकित बच्चों की संख्या घट रही है। लगता है कि दिल्ली में आज भी अनेकों बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित हैं।
जब दुनिया विज्ञान एवं तकनीकी के अध्ययन पर जोर दे रही है, दिल्ली के एक-तिहाई से भी कम सरकारी स्कूलों में विज्ञान की पढ़ाई उपलब्ध है। संसाधन की कमी का बहाना बनाकर बच्चों को सामाजिक विज्ञान के विषयों को पढ़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। गणित की तो स्थिति यह है कि 2020 में दसवीं की परीक्षा हेतु पंजीकृत दिल्ली के 73 फीसद बच्चों ने बेसिक मैथ चुना है, इस डर से कि कहीं गणित में फेल न हो जाएं। पच्चीस फीसद बजट के साथ हजार स्कूलों को बेहतर ढ़ंग से चलाने की उम्मीद तो की ही जा सकती थी। अफसोस! बीते 5 सालों में न तो बजट के पूरे पैसे इस्तेमाल हुए, न ही चुनावी वादे के अनुसार 500 नये स्कूल खुले। न नामांकन बढ़े, न परिणाम सुधरे। लगभग आधे पद खाली होने के बावजूद 17,000 शिक्षकों की बहाली का वादा तक याद नहीं रहा।
बस गिने-चुने स्कूलों की तस्वीरें दिखाकर बताने की कोशिश हो रही है कि शिक्षा में क्रांति आ गई है। दिल्ली के सरकारी स्कूल विश्वस्तरीय हो गए हैं।
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