आरसेप : दोधारी तलवार के खतरे

Last Updated 06 Nov 2019 06:13:11 AM IST

भारत सरकार ने रीजनल कांप्रिहेंसिव इकनोमिक पार्टनरशिप में शमिल नहीं होने का फैसला किया है। इसके गंभीर आर्थिक-राजनीतिक परिणाम हैं।


आरसेप : दोधारी तलवार के खतरे

रीजनल कांप्रिहंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप  यानी आरसेप समझौता ऐसा प्रस्तावित व्यापक व्यापार समझौता है, जिसके लिए आसियान के 10 देशों के अलावा 6 अन्य देश-चीन, भारत, दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच साल 2013 से बातचीत चल रही थी। मोटे तौर पर आरसेप का उद्देश्य एक एकीकृत बाजार बनाने का था यानी आरसेप के तमाम सदस्य देशों को एक दूसरे के बाजार में जाने में आसानी सुनिश्चित की जा सके। भारत के अलावा आरसेप में 15 दूसरे देश हैं। जाहिर है कि अब समझौते में 15 देश रहेंगे, भारत नहीं रहेगा। यूं भारत के इस समझौते में ना रहने से इस समझौते के आर्थिक-राजनीतिक महत्त्व में कमी आएगी। फिर भी इस समझौते का अपना अलग महत्व है। भारत आरसेप में शामिल हो जाता तो फिर समग्र तौर पर आरसेप देशों का बाजार इतना बड़ा हो जाता कि दुनिया की लगभग आधी आबादी इन देशों की निवासी होती और ग्लोबल सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान एक तिहाई होता।

भारत के पास बहुत बड़ा बाजार है, आबादी  के मामले में  दुनिया का दूसरे नंबर का मुल्क होने के फायदे हैं। आबादी मतलब बाजार, जिसमें घुसने के लिए कई देश, कई कंपनियां उत्सुक होंगी। भारत की सेवा क्षेत्र में महारथ है यानी भारत सेवा क्षेत्र में कई देशों में जाकर निवेश कर सकता है, वहां मुनाफा कर सकती हैं भारतीय कंपनियां। भारत की समस्या है कि उसके पास मजबूत मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर या निर्माण सेक्टर ऐसा नहीं है जो सस्ती रेट पर बढ़िया आइटम तैयार कर सके। कुल मिलाकर स्थिति ऐसी है कि भारत जिन क्षेत्रों में आरसेप के देशों में जाकर बढ़िया कर सकता है, वहां उसे घुसने की इजाजत नहीं है, पर भारत में घुसने की इजाजत वो तमाम देश और कंपनियां चाहते हैं, जो यहां बेपनाह सस्ते आइटम बेच सकते हैं। चीनी कंपनियां इस सूची में सबसे ऊपर हैं। नोट किया जा सकता है कि अब भी जबकि आरसेप समझौता नहीं है, तब भी भारत में बिकने वाले दस स्मार्टफोनों में से सात चाइनीज ब्रांड के हैं। आरसेप जब चाईनीज आइटमों को घुसने की लगभग खुली छूट देगा तब भारत में बनने वाले आइटमों की हालत क्या होगी? सोचा जा सकता है। सच यह है कि अधिकांश व्यापार समझौतों से भारत लाभ नहीं उठा पाया है, क्यों नहीं उठा पाया, यह अलग विश्लेषण का विषय है। आसियान देशों के साथ व्यापार घाटे के आंकड़े देखें तो साफ होता है कि ग्लोबल कारोबार के मामले में भारत पिट रहा है।
2009-10 में आसियान देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा करीब 8 अरब डॉलर का था, यह 2018-19 में बढ़कर 22 अरब डॉलर हो गया यानी भारत आसियान देशों से लगातार ज्यादा आयात कर रहा है, और निर्यात कम कर पा रहा है। आरसेप में मूलत: आसियान देश ही शामिल हैं, चीन  आरसेप में अतिरिक्त खतरा है। अकेले चीन के साथ पचास अरब डॉलर से ज्यादा का व्यापार घाटा है। आरसेप समझौते का मतलब है कि चीन से तमाम आइटम आना बहुत सस्ता और आसान हो जाएगा। चीन से आने वाले 80-90 प्रतिशत आइटम सस्ते हो जाएंगे यानी सस्ते चाईनीज आइटम घरेलू भारतीय उत्पादों को बाजार से बाहर कर देंगे।
न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया से डेयरी उत्पाद सस्ते आकर भारत के आइटमों के लिए खतरा पैदा करते। पीएम मोदी धन्यवाद के पात्र है कि उन्होंने देश के दस करोड़ दूध कारोबारियों के हितों की रक्षा की। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड बहुत सस्ते डेयरी उत्पादों से भारत को पाटने क्षमता रखते, अगर आरसेप समझौता हो जाता तो। टैक्सटाइल, रसायन, प्लास्टिक के कारोबार के लोगों की भी यही  चिंता है कि सस्ते चीनी आइटम कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह ना कर दें। चीन अपने यहां आसानी से विदेशी कंपनियों को इजाजत नहीं देता। तमाम चीनी ब्रांड के फोन यहां बिक सकते हैं पर भारत की टेलीकॉम कंपनियों को व्यापक और सस्ती सेवाएं बेचने की इजाजत चीन नहीं देगा यानी चीन एक हद तो मुक्त व्यापार का समर्थक है, पर एक हद के बाद वह कतई तानाशाह देश की तरह बरताव करता है।
2011 में पीटर नवारू और ग्रेग ऑट्री की एक किताब आई थी-डैथ बाय चायना। इसमें बताया गया था कि किस तरह से चीन अमेरिकन अर्थव्यवस्था को तबाह कर रहा है, ट्रंप इस किताब से बहुत प्रभावित हुए थे। इस किताब में बताया गया था कि इन तरीकों से चीन अमेरिका को ठगने की कोशिश करता रहा है-
1) अवैध तरीके से दी जाने वाली निर्यात सब्सिडी; 2) बहुत चतुराई से चीनी मुद्रा की धोखाधड़ी; 3) अमेरिकन तकनीकी चीनियों द्वारा चोरी; 4) पर्यावरण का भारी नुकसान; 5) कामगारों की सेहत और सुरक्षा के साथ समझौता; 6) गैर-कानूनी तौर पर लगाया गया आयात शुल्क; 7) बहुत कम कीमतों के जरिए  बाजार पर कब्जा और फिर उपभोक्ताओं का शोषण;  तथा 8) विदेशी कंपनियों को चीन से दूर रखना। डैथ बाय  चायना के लेखकों का संक्षेप में आशय था कि चीन जानबूझकर अपनी करेंसी युआन को सस्ता रखता है, ताकि उसके  आइटम दूसरे देशों में सस्ते मिल पाएं। आरसेप में ना जाने की मतलब यह नहीं है कि कई भारतीय कारोबारी समझ लें कि उन्हें अपने हिसाब से महंगे और घटिया आइटम बेचने का लाइसेंस हासिल हो गया है। यह बात अपनी जगह सही है कि प्रतिस्पर्धा से उपभोक्ता का भला होता है। बहुत लंबे अरसे से कई भारतीय कारोबार बहुत आसान माहौल में काम करने के आदी रहे हैं। याद किया जा सकता है कि एक जमाने में जब भारतीय कार बाजार प्रतिस्पर्धाविहीन था, तब एंबेसडर और फीयेट जैसे कुछेक ब्रांड ही मिलते थे। एंबेसडर ने तो अपने रंग-ढंग कई दशकों तक ना बदले। प्रतिस्पर्धा  आई, तो हाल बदले।
हाल में प्रख्यात अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला की अध्यक्षता में एक रिपोर्ट आई है इस विषय पर कि निर्यात कैसे बढ़ाएं। इसमें सुरजीत  भल्ला की सिफारिशों का एक आशय यह भी है कि पहले हमें अपना घर दुरु स्त करना होगा। तमाम तरह के ग्लोबल समूह बन रहे हैं, जो आपस में व्यापार कर रहे हैं। हम लंबे समय तक अपने कारोबारियों को यह कहकर नहीं बचा  सकते कि अभी हमारे वाले तैयार नहीं हैं, उनकी लागत महंगी है। उनकी क्वालिटी बढ़िया नहीं है। आरसेप में ना शामिल होना राष्ट्रहित का फैसला है, पर कंपनियों को बेहतर ना बनाना, उन पर  बेहतर बनने का दबाव ना डालना कतई राष्ट्रहित का फैसला नहीं है। आरसेप एक दोधारी तलवार है, इसके पास जाना खतरनाक है, पर इसके मुकाबले के लिए लंबे वक्त तक तैयारी न करना भी खतरनाक है।

आलोक पुराणिक


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