विश्लेषण : कहां जा रहा हमारा लोकतंत्र

Last Updated 04 Nov 2019 05:49:25 AM IST

पिछले दिनों महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के नतीजे आए, तब राजनैतिक कार्यकर्ताओं को झटका लगा कि जनता आखिर चाहती क्या है?


विश्लेषण : कहां जा रहा हमारा लोकतंत्र

कुछ ही महीने पूर्व लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन को बड़ी सफलता मिली थी। इस सफलता से भारतीय जनता पार्टी के मंसूबे का बढ़ जाना अस्वाभाविक नहीं था। लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव जनता के अलग ही मूड का परिचय दे रहे हैं। कहा जा सकता है कि भारतीय जनता के मन में कोई दुचित्तापन  है। केंद्र और राज्य के लिए उसकी पसंद अलग-अलग है।

2014 में भी लोक सभा चुनाव के कुछ ही समय बाद दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जनता ने भाजपा को धूल चटा कर अपनी प्रवृत्ति का परिचय दिया था। 2019 लोक सभा चुनाव  के पहले हुए विधानसभा चुनावों में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जनता ने जिस मिजाज का प्रदर्शन किया था, उससे विपरीत उसने लोक सभा चुनाव में किया।
इसका एक अर्थ बहुत कुछ स्पष्ट भी है। वह यह कि जनता समझ गई है कि राजनैतिक दलों के विचारों में कोई खास अंतर नहीं है। इसलिए केंद्र और राज्य में उसे जो अच्छा लगता है, उसे वह अपनाना चाहती है। कोई यह मान ले कि उस पार्टी की पराजय से हमेशा के लिए उसका खात्मा हो गया, तो वह मुगालते में है।

कांग्रेस मुक्त भारत की बात करने वालों को हरियाणा और महाराष्ट्र में मिली उसकी थोड़ी-ही सही बढ़त से सबक लेनी चाहिए। कांग्रेस खत्म नहीं हो गई है। वह लौट भी सकती है, यदि वह चाहे। महाराष्ट्र विधानसभा की कुल 288 सीटों में से भाजपा-शिवसेना को 2014 के विधानसभा में कुल 185 सीटें मिली थीं। भाजपा को 122  और शिवसेना को 63। इस दफा उन्हें पिछली दफा से 23 सीटें कम मिली हैं।
हरियाणा  में  भी पिछली दफा के मुकाबले उसे सात सीटें कम मिली हैं। वही कांग्रेस पंद्रह से बढ़ कर इकतीस पर चली गई है। नतीजों से पता चलता है, वह और अच्छा कर सकती थी। यह अलग बात है कि हरियाणा में भाजपा सरकार बनाने में सफल रही है। मगर वहां वह राजनैतिक और नैतिक रूप से हार चुकी है, यह तो कोई भी मानेगा। महाराष्ट्र में भी उसकी हेकड़ी को लगाम लगी है।

शिवसेना में जो महत्त्वाकांक्षाएं हिलोर मार रही हैं, उसका कांग्रेस -एनसीपी ने यदि 1978 की इंदिरा गांधी की तरह इस्तेमाल किया, तो भाजपा को विपक्ष में बैठना पड़ सकता है। लेकिन अब हम उन इलाकों में झांकें, जहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बंगाल में तो 2021 में चुनाव होंगे, लेकिन दिल्ली, झारखंड और बिहार में साल भर के अंदर  होने हैं। दिल्ली और झारखंड में तो तुरंत। क्या इन प्रांतों में भाजपा को वैसी भी सफलता मिल पाएगी जैसी महाराष्ट्र और हरियाणा में मिली है? दोनों प्रांतों में उसे अपने बूते का बहुमत नहीं है। महाराष्ट्र में बहुमत के लिए 145 और हरियाणा में 46 चाहिए। उसे आए हैं 105 और 40। यदि इन दोनों जगह वह जोड़-तोड़ कर सरकार चला भी लेती है, तो कठिनाइयां तो होंगी ही। दिल्ली में केजरीवाल हैं और लोग यह मान कर चल रहे हैं कि वह भाजपा को टक्कर देंगे। इसलिए कि नागरिक जीवन को संभालने, खास कर शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में उनके कार्यों की प्रशंसा उनके विरोधी भी करते हैं।

झारखण्ड में भाजपा की सरकार है। परंतु वहां उसे मुश्किलें होंगी, यह कहा जा रहा है। प्रतिपक्ष का राजनैतिक ध्रुवीकरण वहां होगा और यह ठीक ढंग से हुआ, तो भाजपा मुश्किल में पड़ सकती है, क्योंकि रघुवर दास सरकार विवादित स्थितियों में है। पार्टी के भीतर भी अंतर्कलह है। उनका गैर आदिवासी होना भी एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि झारखंड का निर्माण ही आदिवासी संस्कृति और राजनीति को केंद्र में रख कर हुआ था। अभी बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार  ने इन दोनों राज्यों में भाजपा से अलग हो कर चुनाव लड़ने का एलान किया है। इसके गहरे मतलब हैं। झारखंड और दिल्ली में जेडीयू का चुनाव लड़ना भाजपा के लिए कितना नुकसानप्रद होगा यह तो चुनाव बाद पता चलेगा, किंतु इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि बिहार एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं है।

हालांकि भाजपा नेता और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट कर दिया है कि बिहार में अगला चुनाव वह नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ेंगे। राजनीति का अदना जानकार भी बता सकता है कि शाह की मंशा क्या है? दरअसल, वह नीतीश को अपने चंगुल से बाहर नहीं करना चाहते। पूरी हिन्दी पट्टी में नीतीश ही एक ऐसे नेता हैं, जिस पर भाजपा विरोध की राजनीति संघनित हो सकती है। इस संभावना को वह बनने देना नहीं चाहेगी। वह नीतीश को तब लताड़ेगी, जब उनका सत्व खत्म हो चुकेगा। लेकिन चुनाव में अभी काफी देर है।

राजनेताओं की घोषणाओं का कुछ खास अर्थ आज की राजनीति में नहीं रह गया है। कभी भी और कोई भी पलटी मार सकता है। बिहारी  राजनीति की अपनी कुछ विशिष्टता है। 2015 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं अमित शाह ने भाजपा के लिए 185+ का लक्ष्य रखा था। निश्चित ही उनने 2014 के लोक सभा चुनाव नतीजे को ध्यान में रख कर यह लक्ष्य रखा होगा। लेकिन उनके एनडीए को आए 58 मात्र। महागठबंधन और एनडीए में तकरीबन आठ फीसद मतों और 120 सीटों का फासला था। इसीलिए दूध के जले अमित शाह इस दफा मट्ठा भी फूंक कर पी रहे हैं। अभी पांच विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में एनडीए को पराजय हासिल हुई है। नीतीश की पार्टी केवल एक सीट निकाल सकी। इससे बिहारी वोटरों की मन:स्थिति का परिचय मिलता है। अपने उग्र राष्ट्रवाद और हिन्दू-केंद्रित राजनीति के बल पर भाजपा का बहुत समय तक वोट हासिल नहीं कर सकती। मुल्क की आर्थिक स्थिति खराब है। इससे राजनीति निरपेक्ष नहीं रह सकती। फिर जनता इतनी होशियार है कि उसके लिए आवश्यक नहीं कि केंद्र और राज्य में वह एक ही पार्टी को वोट करे।

लोक सभा चुनाव के वक्त भी ओडिशा में जो नतीजे आए थे वह केंद्र और प्रांत के लिए अलग-अलग थे। मेरी दृष्टि में तो यह स्वस्थ राजनीति के संकेत हैं। इसमें बुरा कुछ भी नहीं है। संभव है जनता की यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे हमें संसदीय राजनीति से राष्ट्रपति प्रणाली की ओर मोड़ दे और हमें संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह की प्रणाली अपनानी पड़े। लेकिन यह बहुत आगे की बात भले हो, अभी कुछ दशकों तक संभव नहीं है। लेकिन चुनावों के नतीजे जनता की इसी प्रवृत्ति को रेखांकित कर रहे हैं।

प्रेम कुमार मणि


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