सामयिक : पक्ष-विपक्ष के बीच में

Last Updated 23 Oct 2019 05:03:50 AM IST

आज हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं, जब दो ध्रुवों के बीच में जगह की तलाश करना असंभव नहीं, तो मुश्किल जरूर हो गया है।


सामयिक : पक्ष-विपक्ष के बीच में

दो अतिवादी खेमों ने हमारे लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी है। कहा जाए कि हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच गए लगते हैं, जहां या तो आप हमारे मित्र हैं, या शत्रु वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। ताजा मामला यह है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सावरकर को भारत रत्न दिए जाने की मांग की है। भाजपा की महाराष्ट्र इकाई ने तो इस मांग को बाकायदा अपने घोषणा पत्र में शामिल किया है। दिलचस्प है कि उसने इस मांग के साथ-साथ ज्योतिबा फुले के लिए भी भारत रत्न की मांग की है। जल्द ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इस समूहगान में शामिल हो गए।
भाजपा की इस मांग के साथ जहां इसके विरोध में स्वर उठने लगे हैं, वहीं इसके समर्थन में भी आवाजें बुलंद होने लगी हैं। न्यूज चैनल्स, अखबार, पोर्टल्स, फेसबुक, ट्विटर आदि पर भी परस्पर विरोधी सूरतें देखी जा सकती हैं। हालत यह हो गई है कि आपको मध्य मार्ग अपनाने से रोका जा रहा है। किसी का मूल्यांकन समग्रता में ही हो सकता है, और होना भी चाहिए क्योंकि एकांगी व्याख्या आपको कृत्रिम, बल्कि मनोवैज्ञानिक संतोष तो प्रदान कर सकती है, लेकिन तब आपकी दृष्टि मोतियाबिंद से ग्रस्त हो जाती है। सावरकर के समर्थक उन्हें देवता बना रहे हैं, और विरोधी दानव बना कर पेश कर रहे हैं। लेकिन सावरकर न तो देवता थे और न दानव। वह भी हमारी तरह हाड़-मांस के पुतले थे, कभी सही तो कभी गलत। बहरहाल, सावरकर को भारत रत्न देने की मांग भाजपा की मासूमियत नहीं समझी जानी चाहिए।

पिछले पांच साल से महाराष्ट्र की सत्ता पर भाजपा काबिज है, और केंद्र की सत्ता पर भी, लेकिन इन वर्षो में उसने सावरकर को भारत रत्न दिए जाने की मांग कभी नहीं की। दरअसल, उसकी मांग सावरकर को सम्मानित करने से ज्यादा अपने वोट का विस्तार करना है। इस मांग के सहारे सावरकर विरोधियों को भाजपा विरोधी और अंतत: हिंदू विरोधी साबित करना चाहती है। ज्योतिबा फुले के लिए भी भारत रत्न की मांग करना उसकी राजनीतिक चाल है। इसका उद्देश्य है उन तबकों में पैठ बनाना जो पारंपरिक रूप से उसके विरोधी रहे हैं।  मराठा आरक्षण भी इसी कोशिश की एक कड़ी है। स्पष्ट है कि एक ही साथ सावरकर और महात्मा फुले के लिए भारत रत्न की मांग मूल रूप से राजनीतिक कवायद ही है।
हम जानते हैं कि आज सावरकर के सकारात्मक योगदान की बात करना जहां उदारवादियों की नजर में हिंदूत्व का समर्थन करना है, वहीं विरोध करना भाजपा और उसके समर्थकों की नजर में हिंदू विरोधी होना है। लेकिन मेरी नजर में सावरकर के सम्यक मूल्यांकन के लिए उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्ष का उल्लेख भी उतना ही आवश्यक है, जितना उनके नकारात्मक पक्ष का। अधिकांश लोग नहीं जानते कि जीवन के प्रति आधुनिक बोध रखने के कारण परंपरावादी हिंदुओं ने सावरकर की खूब आलोचना की थी।
उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘भारत यूरोप से 200 साल पीछे है, और इसका मूल कारण उसकी धार्मिंक रूढ़िवादिता है। भारत को आधुनिक दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलना है, तो उसे धार्मिंक संवाद को विराम देना होगा’। विज्ञान और मशीन के प्रति उनके मन में बड़ी प्रतिष्ठा थी। उनकी अनेक बातें आज के नव हिंदुवादियों को गवारा नहीं होंगी। सावरकर मांस भक्षण के प्रबल समर्थक रहे थे। गाय को माता कहने की उनकी आलोचना से तो सभी वाकिफ हैं। जानना दिलचस्प है कि उन्होंने गाय की तुलना गधे और सुअर से की है। वह कहते हैं, ‘यदि पुराणों में गाय की बात की गई है, तो विष्णु के वराह अवतार के रूप में सुअर की बात भी है। तब गोरक्षकों की तरह सुअर रक्षक दल भी क्यों नहीं बनाया जाए।’ गाय के शरीर में 33 करोड़ देवी-देवताओं के निवास की अवधारणा का भी उन्होंने जबर्दस्त माखौल उड़ाया। हिंदू परंपराओं की उनकी कतिपय आलोचनाएं तो इतनी कठोर हैं कि उनका जिक्र करना भी मुश्किल है। उनकी नजर में गाय महज उपयोगी जानवर है, जैसे घोड़ा और कुत्ता। वह गाय को दैविक प्राणी मानने से सर्वथा इनकार करते हैं। ऐसे में क्या यह विडंबना नहीं है कि जो भाजपा सावरकर का विनियोजन कर रही है, वही गोरक्षा के नाम पर लिंचिंग को समर्थन देती है?
सामाजिक सुधारवादी के रूप में सावरकर ने जाति व्यवस्था पर कड़े प्रहार किए हैं। वह कहते हैं कि हमारे हिन्दू भाई गाय का मूत्र तो पी सकते हैं, और गोबर भी खा सकते हैं, लेकिन आंबेडकर जैसे विद्वान का छुआ पानी भी नहीं पी सकते। हिन्दू देवी-देवताओं पर भी कड़े सवाल उठाए हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने दलितों के मंदिर प्रवेश की मांग करते हुए प्रदर्शन का भी नेतृत्व किया था। वह कहते हैं कि जिस देश की सात करोड़ दलित आबादी के साथ भेदभाव होता है, वह देश कभी प्रगति नहीं कर सकता। यह अलग बात है कि वे दलितों को अतिशूद्र ही कहते हैं। भंगियों के समर्थन में अपनी आवाज बुलंद करते हुए सावरकर सभी हिन्दुओं से गंदगी साफ करने की वकालत करते हैं। जहां तक मुसलमानों की बात है, तो अपनी पुस्तक ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ में उनकी राष्ट्रीय वफादारी की खुलकर प्रशंसा करते हैं। लेकिन हां, प्रशंसा करते समय लिखना नहीं भूलते कि ‘मुसलमान होने के बावजूद’ उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना होम किया। लेकिन आगे चलकर सावरकर का यही क्रांतिकारी व्यक्तित्व भ्रांति का शिकार हो जाता है। उनके विचारों का ऑर्गेनिक विकास नहीं होता है।
वह केवल एक हिन्दू बनकर रह जाते हैं। किसी चोर का संत हो जाना तो समझ में आता है, लेकिन कोई संत चोर बन जाए तो उसे कैसे वाजिब ठहराया जा सकता है? एक क्रांतिकारी अंग्रेजों की वफादारी करने लगता है, और उनका साथ देने लगता है। यह उनके विचार और व्यक्तित्व की फिसलन है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। ऐसे में समझना कठिन नहीं है कि भाजपा के लिए सावरकर महज हिन्दुवादी आईकॉन हैं, जिनका इस्तेमाल वह अपने सियासी लाभ के लिए कर रही है।

कु. नरेन्द्र सिंह


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