बॉब-अल-मंडेब: अशांति खतरनाक

Last Updated 22 Sep 2019 05:39:49 AM IST

पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम दर्शाता है कि बॉब अल-मंडेब की खाड़ी बेहद अशांत है। यह अशांति वैश्विक राजनीति में यह कोई निर्णायक भूमिका निभाएगी या नहीं, अभी कहना मुश्किल है।


बॉब-अल-मंडेब: अशांति खतरनाक

बीती 14 सितम्बर को यमन के शिया विद्रोही ग्रुप हूती ने ड्रोन और मिसाइलों के जरिए जिस तरीके से सऊदी अरब के अबकैक प्लांट और खुरैस ऑयल फील्ड्स को निशाना बनाया, उस पर कुछ सवालिया निशान हैं तो हैं ही, लेकिन उसमें किसी ग्लोबल गेम की गंध भी आती हुई महसूस हो रही है। हालांकि इस हमले की जिम्मेदारी स्वयं हूती विद्रोहियों ने ली है लेकिन अमेरिका हूती की बजाय ईरान को दोषी मान रहा है क्योंकि न केवल वह बल्कि उसके सहयोगी हूतियों को ईरान सरोगेट संतान मान रहे हैं। कहीं यह अमेरिका-ईरान युद्ध की पटकथा लेखन की शुरुआत तो नहीं?
दरअसल, हूती विद्रोहियों द्वारा किए गए हमलों के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने ट्विट किया कि ऐसे कोई सुबूत नहीं हैं कि ड्रोन यमन से आए थे। इस पर ईरानी विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया में पोम्पियो के आरोप से इनकार के साथ ही यह भी कहा कि इन आरोपों के जरिए ईरान के खिलाफ भविष्य में कदम उठाने के लिए जमीन तैयार की जा रही है। शायद यह सच भी है क्योंकि पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र के इनवेस्टीगेटर्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हूतियों के पास फील्डेड ड्रोन हैं, जिनकी रेंज 1500 किमी के आसपास है। यह रेंज तो अबकैक और खुरैस तक पहुंचने के लिए पर्याप्त है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि हूती दोनों अरब संयंत्रों पर हमला करने में सक्षम थे। फिर भी उंगली ईरान की तरफ, जिसके खिलाफ अमेरिका के पास कोई सबूत नहीं है।

आखिर क्यों? जरा इतिहास में झांके। इस टकराव की जड़ें 1930, 1960, 1990 और 2000 के दशक तक जाएंगी। 1930 के दशक में जब सऊदी अरब का पुनरुत्थान हो रहा था तो उसके समर्थित इमाम यमन का उत्तर और दक्षिण में भौगोलिक सांस्कृतिक विभाजन कर रहे थे। कमोबेश विभाजन की इस मनोदशा या विखण्डित यमनी राष्ट्रवाद से या फिर विखण्डित सांस्कृतिक/धार्मिक राष्ट्रवाद से यमनी अभी सम्पन्न है। यही विभाजन बाहरी ताकतों को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान करता है और गृहयुद्ध को ताकत देता है। दरअसल, 1960 के दशक में जो सऊदी अरब समर्थन वाले इमाम के लड़ाकों और मिस्र के समर्थन वाली रिपब्लिन ताकतों के बीच तो लम्बा गृह युद्ध चला था, उसने 1968 में यमन गणराज्य की स्थापना का अवसर तो प्रदान किया मगर इसने यमन में क्वासी ट्रेडीशनल यानी अर्धपरम्परा वाली विदेशी दादागीरी को भी अवसर प्रदान कर दिया। अंतिम रूप से यूनाइटेड रिपब्लिकन ऑफ यमन की स्थापना1990 के दशक में हुई और अली अब्दुल्ला सालेह सत्तारूढ़ हुए जो 2012 तक सत्ता में रहे। इस बीच 2004 में शिया मिलीशिया अंसार अल्लाह ने राष्ट्रपति अली अब्दुल्लाह सालेह के खिलाफ जैदी पंथ के मुखिया हुसैन बदरेद्दीन अल-हूती के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया, हालांकि सफलता नहीं मिली। लेकिन अरब स्प्रिंग के दौरान जब ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया में बैठे तानाशाहों के पतन का सिलसिला शुरू हुआ तो सालेह भी सत्ता नहीं बचा पाए और उन्हें अपने सदर्न डिप्टी अब्दरब्बू मंसूर हादी का सत्ता सौंपनी पड़ी। परंतु 2014 में अल-हूती ने हादी को भी सत्ता से बेदखल कर दिया इसलिए उन्हें रियाद में शरण लेनी पड़ी।
ध्यान रहे कि मार्च में 2015 सऊदी अरब के नेतृत्व में एक सैन्य गठबंधन बना, जिसने अल-हूती के खिलाफ ‘ऑपरेशन डेसीसिव स्टॉर्म’ नाम का सैन्य अभियान शुरू किया। इस गठबंधन में आठ देश शामिल थे और अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस खुफिया ट्रेनिंग, हथियार आपूर्ति और तकनीक मुहैया करा रहे थे। किंतु फिर भी यह असफल रहा। आज की स्थिति यह है कि संयुक्त अरब अमीरात इस गठबंधन से हटना चाहता है। सवाल उठता है कि क्यों सऊदी अरब सफल नहीं हो पाया? इसलिए कि ईरान हूतियों के साथ खड़ा है? या फिर इसलिए कि एक तो इस संघर्ष को शिया बनाम सुन्नी बना दिया गया है? या फिर इसलिए कि सऊदी अरब अपनी साम्राज्यवादी इच्छा को त्याग नहीं पा रहा है और वह यमन पर आधिपत्य चाहता है? या फिर इसलिए कि अमेरिका सोमालिया में सैन्य अड्डा न बना पाने के बाद अब यमन पर निगाह गड़ाए बैठा है? उत्तरी इन्हीं में से किसी एक में है।

रहीस सिंह


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