उपलब्धियां : ज्यादा डराते हैं दूसरे पहलू
सरकार की पहले सौ दिन की उपलब्धियों पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी हरियाणा की जनसभा में जो कहा, वह राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द ही घूमता है।
उपलब्धियां : ज्यादा डराते हैं दूसरे पहलू |
चाहे मामला कश्मीर का हो या चंद्रयान का। चंद्रयान की सफलता या विफलता को ऐसे पेश किया गया कि इससे राष्ट्र में जागृति आई है। कश्मीर करीब सवा महीने से अलग-थलग पड़ा है, और पाबंदियां और पहरे हटाने की बातें बार-बार मुल्तवी होती जा रही हैं। इसके विपरीत पाकिस्तान के बरक्स राष्ट्रवाद के अफसाने का जोर है। दूसरी तरफ, अर्थव्यवस्था की हालत इन्हीं सौ दिनों में तेजी से मंदी की ओर बढ़ती जा रही है। लेकिन जावड़ेकर आस्त हैं कि जीडीपी भले लगातार पांचवीं तिमाही में गिरावट का रु ख दिखाए और 5 फीसद की लाल रेखा के पास पहुंच गई है, लेकिन अर्थव्यवस्था के बुनियादी मानक अभी मजबूत हैं। हालांकि विपक्ष इन्हीं बातों की ओर सरकार का ध्यान खींच रहा है। लेकिन सरकार को उसकी बातों की फिक्र शायद नहीं है, न अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की चिंताओं से कोई साबका लगता है।
भला हो क्यों? जावड़ेकर की ही मानें तो अर्थव्यवस्था में गिरावट चक्रीय मामला है यानी खास आर्थिक क्षेत्रों में तेजी और गिरावट का एक चक्र चलता है। जैसे एक खास दौर में सीमेंट या स्टील उद्योग में गिरावट आती है, तो कुछ समय बाद तेजी आ जाती है। लेकिन जब अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र संगठित उद्योग से लेकर असंगठित काम-धंधे भी गर्त की ओर जाने लगें, कृषि क्षेत्र हांफने लगे, नौकरियों और रोजगार पर चौतरफा संकट मंडराने लगे तो उसे भला चक्रीय मामला कैसे माना जा सकता है। इसीलिए ज्यादातर बड़े अर्थशास्त्री इसे ढांचागत समस्या बता रहे हैं। मतलब कि अर्थव्यवस्था का ढांचा ही ढहता जा रहा है। बेशक, इसका कुछ लेना देना वैिक मंदी के हालात से भी है, जिससे निर्यात में भारी गिरावट आई है। लेकिन डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातार दुर्दशा कुछ और ही कहानी कहती है। विशेषज्ञों के मुताबिक इसका बहुत कुछ लेना-देना निवेश के निराशाजनक माहौल और एक मायने में पूंजी के पलायन से है।
याद करें, लगभग ऐसी ही स्थितियों के लिए पूर्ववर्ती यूपीए सरकार की तीखी आलोचना तब गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी किया करते थे। उसी अफसाने और उन स्थितियों को सुधारने के ऊंचे-ऊंचे दावे करके भाजपा और एनडीए को चुनाव में बहुमत हासिल हुआ था। लेकिन छह साल बाद भी हालात नहीं सुधरे।
दूसरे कार्यकाल में और बड़े बहुमत से आई सरकार के पहले सौ दिन में ही हालात तेजी से बिगड़ने के संकेत अब जीडीपी के नये आंकड़े देने लगे हैं। पहले कार्यकाल में सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रह्मण्यम की गणना को मानें तो 5 फीसद की जीडीपी 2 या 2.5 फीसद के आसपास बैठती है। यह हिसाब भी उन्होंने अपने हार्वर्ड के एक पेपर में पिछली तिमाही के आंकड़ा के दौर में लगाया था। लेकिन भला मोदी सरकार को चिंता क्यों हो क्योंकि वह तो ‘हार्वर्ड’ वालों के नजरिए पर नहीं, ‘हार्ड वर्क’ पर यकीन करती है। दरअसल, हुआ यह है कि मोदी सरकार बड़े जतन से अर्थव्यवस्था को आम बहस से अलग करने में सफल हो गई है। अब तक यह होता था कि जिस सरकार के तहत आर्थिक स्थिति डगमगाने लगती थी, चुनाव में वह सरकार बदल जाया करती थी। हाल के दौर में इसकी नजीर 1996 में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार और 2004 में एनडीए की वाजपेयी सरकार की विदाई में देखी जा सकती है।
अर्थव्यवस्था की हालत के अलावा सामाजिक मुद्दों पर खासी हलचल इन सौ दिनों में दिख रही है। मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। अफवाहें भी खुलकर समाज में तनाव पैदा कर रही हैं। उत्तर और पूर्वी भारत के बड़े हिस्से में बच्चा चोरों की अटकलें मासूमों की जान ले रही हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़े हैं, लेकिन सभी घटनाएं राष्ट्रवाद के आवरण में बहस और चर्चा के दायरे से मानो बाहर कर दी गई हैं, या हो गई हैं। यही नहीं, आला पदों से इस्तीफों का सिलसिला भी इन सौ दिनों में नये सिरे से शुरू हो गया। मद्रास हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश विजया के. ताहिलरमानी के इस्तीफे के बाद नीति आयोग के एक अधिकारी कशिश मित्तल ने भी सेवा को अलविदा कह दिया। इसके पहले दो अपेक्षाकृत युवा आईएएस अधिकारियों कन्नन गोपीनाथ और एस. शशिकांत सेंथिल कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ठप करने और अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी के विरोध में नौकरी छोड़ने का फैसला कर चुके हैं। इन इस्तीफों में यह संदेश भी है कि सरकार या व्यवस्था अपने फैसलों में संशोधन या बदलाव को तैयार नहीं है।
गोपीनाथ और शशिकांत ने तो लोकतंत्र पर पाबंदियों के खिलाफ ही आवाज उठाई है। जस्टिस ताहिलरमानी और कशिश मित्तल के मामले तबादले के हैं। दोनों का अरु णाचल प्रदेश तबादला कर दिया गया था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया और सरकारी सेवा से ही हट जाने का फैसला किया। बॉम्बे हाइकोर्ट में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश के नाते जस्टिस ताहिलरमानी बिलकिश बानो गैंग रेप मामले में 11 दोषियों को फांसी और उम्र कैद की सजा पर मुहर लगा चुकी हैं। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित किया गया था। यह जरूर कहा जा सकता है कि जस्टिस ताहिलरमानी के इस्तीफे से सरकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का लेना देना है। लेकिन इस्तीफों से नकारात्मक माहौल बनता है, इससे भला इनकार कैसे किया जा सकता है! मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में भी कई बड़े इस्तीफे हुए। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम तो कार्यकाल खत्म होने के बाद हटे और अर्थव्यवस्था पर सरकार के मुखर विरोधी हो गए। आरबीआई के गवर्नर रहे रघुराम राजन और उर्जित पटेल, डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की विदाई भी सहज नहीं रही। कश्मीर के मामले से ही विशेष दरजे वाले दूसरे राज्यों में बेचैनी है। शायद उन्हें आस्त करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पूर्वोत्तर के अरुणाचल जाकर कहा कि अनुच्छेद 371 को हटाने की केंद्र की कोई योजना नहीं है।
मतलब यह कि सौ दिन की उपलब्धियों के दूसरे पहलू ऐसे हैं, जो ज्यादा चिंता और डर पैदा कर रहे हैं। विपक्ष का वह आरोप भी गौर करने लायक है कि केंद्रीय एजेंसियां देश के हालात पर परदा डालने के लिए ही विपक्षी नेताओें के खिलाफ सक्रिय हैं, जबकि उतने ही संगीन आरोपों वाले भाजपा या उसके पाले में पहुंच चुके नेताओं पर मौन हैं। जो भी हो, केंद्र सरकार के सौ दिनों पर बहस जरूर होनी चाहिए।
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