हिमालय दिवस : अनदेखी पड़ेगी भारी

Last Updated 09 Sep 2019 06:34:47 AM IST

भारत के पश्चिम, मध्य और उत्तर में 2,500 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला हिमालय मजबूत सैनिक के रूप में सीमाओं की रक्षा करता है।


हिमालय दिवस : अनदेखी पड़ेगी भारी

हिमालय को समझने और इसके प्रश्नों को व्यापक स्तर पर उठाने के लिए उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 9 सितम्बर को हिमालय दिवस के बहाने हिमालयी प्रश्नों की तरफ राज-समाज का ध्यान आकषिर्त करने का एक मौका अवश्य दिया हैं। हिमालय पर्वत श्रृंखला को पानी, मिट्टी व जैव विविधता के अथाह भंडार के रूप में जाना जाता है। ग्लेश्यिर पानी के भंडारण का मुख्य केंद्र हैं।
ग्लेश्यिरों के पास बुग्याल (मखमली घास) के बड़े-बड़े मैदान उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद हैं। जब बर्फ पिघल जाती है, तो इन्हीं बुग्यालों के बीच पानी जमा रहता है। विंटर गेम के लिए प्रसिद्ध औली नामक स्थान में भी बुग्याल घास हैं। इसके अलावा, वेदनी, रूपकुंड, क्यार्की, सहस्त्रताल, कूसकल्याण, दयारा, डयोडीताल, हरून्ता आदि उत्तराखंड में हजारों स्थानों पर ऐसे बुग्याल हैं जिसके पास पानी को जमा रखने की अपार क्षमता है। ये बुग्याल बर्फीले क्षेत्रों के निकट होने से बर्फ के पानी को झीलों में भी जमा करते हैं। बुग्याल एक तरह के नम क्षेत्र (वेटलैंड) के रूप में भी जाने जाते हैं। यहां पर जड़ी-बूटियों के अपार भंडार हैं। पुराने समय मे इन बुग्यालों तक केवल भेड़-बकरी को लेकर गड़रिये पहुंच जाते थे। बाद में गुज्जर समुदाय के लोग भी सैकड़ों भैंसों के साथ वहां रहने लगे क्योंकि यहां की मखमली घास पशुओं की बहुत सारी बीमारियों को खत्म भी करती है, दूध की गुणवत्ता भी बढ़ाती है। शीतकाल शुरू होते ही सभी पशुचारक बुग्यालों को छोड़कर तराई में रहने आ जाते हैं। उनका  आने-जाने का यह क्रम हर वर्ष बना रहता है। अब बुग्यालों के बीच पर्यटकों की भी बड़ी संख्या में आवाजाही बढ़ गई है। यहां तक कि ऐसे स्थानों का इस्तेमाल उत्सवों, शादी-ब्याह रचाने, निजी बेहतर जीवन के रूप में हो रहा है। ताजा उदाहरण है जून, 2019 के तीसरे सप्ताह का जब औली में गुप्ता बंधुओं की शाही सादी के कारण यहां पर्यावरण प्रदूषण की भारी समस्या पैदा हुई। हिमालयी ग्लेश्यिर, बुग्याल, जंगल के प्रति हमारी इस नासमझी ने ही हिमालय को खतरे में डाल दिया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2014 में सत्ता में आए तो उन्होंने हिमालय से गंगा सागर तक बहने वाली गंगा की निर्मलता के लिए नमामि गंगे परियोजना प्रारंभ की थी। उस समय लोगों में आशा जगी थी कि हिमालय के जल, जंगल, जमीन के संकट को समझते हुए  हिमालयी विकास का कोई नया मॉडल भी वे बना देंगे। इसके लिए हजारों हस्ताक्षरों के साथ हिमालय लोकनीति का मसौदा भी उन्हें भेजा गया था। इसी दौरान 11 जुलाई, 2014 को हरिद्वार के सांसद एवं  केंद्रीय मंत्री डॉ रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा हिमालयी राज्यों की अलग सामाजिक, राजनीतिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए  संसद में एक बहस करवा कर अलग मंत्रालय बनाने की जोरदार पहल की गई थी। इस बहस से भी आशा जगी थी कि प्रधानमंत्री केदारनाथ आपदा पुन:निर्माण में जिस तरह से रुचि दिखा रहे हैं, अब हिमालय के लिए भी अलग मंत्रालय दे देंगे। अब छह वर्ष गुजरने के बाद भी हिमालय के लिए न तो कोई अलग नीति बनी और न ही मंत्रालय बन सका है।
राष्ट्रीय हिमालय नीति अभियान ने इस विषय पर पुन:विचार करने के लिए 8 सितम्बर, 2017 को देश के सांसदों के नाम खुला पत्र जारी किया था, वह भी संसद के गलियारों में गायब हो गया है। वैसे हिमालयी राज्यों के नाम पर एक अलग मंत्रालय बनाने की बात बहुत पुरानी हैं। 17 मार्च, 1992 को योजना आयोग ने डॉ जेएस कासिम की अध्यक्षता में हिमालय विकास प्राधिकरण का खाका भी तैयार किया था। हेमवती नंदन बहुगुणा ने उत्तराखंड के विकास के लिए उत्तर प्रदेश में अलग पर्वतीय विकास मंत्रालय बनवाया था। जुलाई, 2019 के अंतिम सप्ताह में मसूरी में हुई हिमालय कॉन्क्लेव में भी हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और उपस्थित प्रतिनिधियों ने भी वित मंत्री निर्मला सीतारमण और नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के समक्ष पर्वतीय मंत्रालय बनाने की मांग की हैं। इस मांग के चलते 11 हिमालयी राज्यों ने अपने यहां के भूभाग के अनुसार कोई ऐसा विकास का मॉडल नहीं बनाया कि जिस पर उन्होंने विधानसभा में चर्चा की हो। हर बार केंद्र की निर्धारित योजनाओं व परियोजनाओं को चलाने का ही संलल्प दुहराने से मैदानी विकास का मॉडल ही पहाड़ों पर थोपा जा रहा हैं। ऐसे में कैसे हिमालय के विकास का पृथक मॉडल बन जाएगा?

सुरेश भाई


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