बोफोर्स मामले में सुनवाई : शीर्ष अदालत की रजामंदी

Last Updated 21 Aug 2019 06:17:25 AM IST

बोफोर्स मामला सुप्रीम कोर्ट में जल्द ही आने वाला है। अजय अग्रवाल की याचिका पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट राजी हो गया है।


बोफोर्स मामले में सुनवाई : शीर्ष अदालत की रजामंदी

इससे पहले देश की सबसे बड़ी अदालत ने सीबीआई की ऐसी ही याचिका गत वर्ष खारिज कर दी थी। अदालत ने कहा कि सीबीआई अपनी बात तब रख सकेगी जब अग्रवाल की याचिका पर सुनवाई होगी। वह समय अब जल्द आ रहा है।
उसी सिलसिले में वकील अजय अग्रवाल ने इसी 14 अगस्त को एटॉर्नी जनरल को पत्र लिखा। आग्रह किया कि वे सीबीआई से कहें कि बोफोर्स केस से सभी संबंधित दस्तावेज कोर्ट में दाखिल कर दे। बोफोर्स तोप घोटाले का मामला 1987 में सामने आया था।
काफी लंबे चले मामले को लेकर कई लोगों के मन में अक्सर सवाल उठता रहता है कि इतने पुराने मामले को आखिर बार-बार क्यों उछाला जा रहा है? वैसे भी बोफोर्स तोप ने करगिल युद्ध में अच्छा काम किया था। जितने कि रित का आरोप है, उससे कई गुणा धन तो जांच में लगा दिया गया। पर इसका जवाब आता है कि यह रक्षा सौदे से संबंधित संवदेनशील मामला है। इसे तो तार्किक परिणति तक पहुंचाया ही जाना चाहिए। याचिकाकर्ता और कई अन्य जानकार लोगों के दिलोदिमाग में कई सवाल हैं। अब भी अनुत्तरित। जवाब खोजने की कभी कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई। शायद कोर्ट में मिल सके। दरअसल, इस केस को कभी सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने ही नहीं दिया गया। इसके अलावा भी केस को रफा-दफा करने की समय-समय पर जितनी कोशिशें की गई, वह भी एक रिकॉर्ड है। जब भी गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो यह केस आगे बढ़ा।

कांग्रेस समर्थित संयुक्त मोर्चा सरकार के रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव ने तो एक बार सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि मैंने बोफोर्स की फाइल दबवा दी थी। सुप्रीम कोर्ट में यह बात भी आ सकती है। पूछा जा सकता है फाइल क्यों दबवाई गई? किसके कहने पर ऐसा किया गया? पीवी नरसिंह राव सरकार के विदेश मंत्री माधव सिंह सोलंकी ने एक बार स्विस विदेश मंत्री से कहा था कि आप बोफोर्स केस आगे नहीं बढ़ाएं। यह राजनीतिक मामला है। राजनीतिक उद्देश्यों से दायर किया गया है। विदेश में एक सम्मेलन के दौरान यह गुप्त संवाद जब जाहिर हो गया तो देश में सोलंकी से इस्तीफे की मांग तेज हो गई। आखिर, इसी मुद्दे पर उनका मंत्री पद चला गया। इस पर जब बदनामी हुई तो मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था। मंत्री ने ऐसा किसके कहने पर किया था? 2005 में मनमोहन सिंह सरकार के एक अफसर ने लंदन जाकर उस जब्त बैंक खाते को चालू करवा दिया था, जिसमें बोफर्स दलाल क्वात्रोच्चि के दलाली के पैसे थे। उससे पहले अटल सरकार ने स्विस बैंक की लंदन शाखा के उस बैंक खाते को जब्त करवा दिया था। सवाल है कि जब्त खाता चालू क्यों कराया गया? 2010 में भारत सरकार के आयकर न्यायाधिकरण ने कहा था कि ‘क्वात्रोच्चि और विन चड्ढा को बोफोर्स की दलाली के 41 करोड़ रुपये मिले थे। इस आय पर भारत में उन पर टैक्स की देनदारी बनती है।’ सवाल का जवाब आना बाकी है कि मनमोहन सरकार ने उनसे टैक्स क्यों नहीं वसूला?
याद रहे कि 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने बोफोर्स से संबंधित केस को समाप्त कर देने का आदेश दे दिया था। इस आदेश के खिलाफ सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में अपील तक नहीं की क्योंकि 4 फरवरी, 2004 के उस अदालती निर्णय के खिलाफ अपील का फैसला करने में ही अटल सरकार ने करीब ढाई महीने लगा दिए। उसके बाद 22 मई, 2004 को केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार बन गई। नई सरकार ने अपील के मामले को  ठंडे बस्ते में डाल दिया। हालांकि पिछली अटल सरकार के कार्यकाल के आखिरी दिनों में संबंधित अफसरों ने अपील के पक्ष में राय दी थी। पर सरकार बदलते ही उन अफसरों की राय भी बदल गई।  2005 में भी दिल्ली हाईकोर्ट ने इस केस में हिंदुजा के खिलाफ आरोप खारिज कर दिए।  सीबीआई इस निर्णय के खिलाफ भी अपील में सुप्रीम कोर्ट नहीं गई। अग्रवाल की अपील इसी केस से संबंधित है। सीबीआई के अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट के 2005 के निर्णय के खिलाफ वह सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल करना चाहती थी, पर तत्कालीन यूपीए सरकार ने ऐसा करने से रोक दिया। बोफोर्स मामले के जानकार लोगों ने तब भी कहा था कि हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ अपील के लिए अच्छा केस बनता था। यह मामला इस बार आगे बढ़ा तो यह जवाब भी आ जाएगा कि तत्कालीन सरकार ने सीबीआई के हाथ तब क्यों बांध दिए थे? सुप्रीम कोर्ट ने इस 13 अगस्त को भी यह तीखा सवाल पूछा है कि राजनीतिक मामलों में सीबीआई की जांच कमजोर क्यों हो जाती है? 
बोफोर्स सौदे की संक्षिप्त कहानी कुछ इस प्रकार है। तत्कालीन सेनाध्यक्ष के. सुंदरजी ने फ्रांस की सोफ्मा कंपनी की तोपों की खरीद की सिफारिश की थी। सोफ्मा दलाली में पैसे देने को तैयार नहीं थी। रक्षा राज्य मंत्री अरुण सिंह ने तब सुंदरजी को समझाया था कि हमेशा ऊपर की बात ही मानी जानी चाहिए। इस सवाल का भी जवाब आना है कि बोफोर्स से बेहतर तोप को नहीं खरीद कर बोफोर्स को ही क्यों खरीदा गया? बोफोर्स घोटाले को लेकर राजीव सरकार के कदम और कांग्रेसी नेताओं के बयानों से अनेक लोगों को लग गया था कि सरकार दोषियों को बचाने की कोशिश में है। इसीलिए लोगों ने 1989 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से हटा दिया। वीपी सिंह सरकार के कार्यकाल में जनवरी, 1990 में इस मामले में प्राथमिकी दर्ज की गई।
अटल सरकार के कार्यकाल में 1999 में बोफोर्स मामले में अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया पर इस बीच जब-जब कांग्रेसी या कांग्रेस समर्थित सरकार बनी, उसने मामले को दबाने की कोशिश की। बड़ा सवाल यही रहा है कि राजीव ने बोफोर्स की दलाली के पैसे नहीं लिये तो भी उनकी सरकार और बाद की अन्य कांग्रेसी सरकारों ने क्वात्रोच्चि को बचाने के लिए जोर क्यों लगाया? इतना ही नहीं, केंद्र सरकार के निर्देश पर सीबीआई ने  दिल्ली की एक अदालत में बोफोर्स मामले में आयकर अपीली न्यायाधीकरण के आदेश को अप्रासंगिक बता दिया। कहा कि इतालवी व्यापारी क्वात्रोच्चि के खिलाफ मामला वापस लेने के सरकार के रु ख में कोई बदलाव नहीं आया है।  बोफोर्स घोटाले ने 1989 में भी मतदाताओं के मानस को इसलिए अधिक झकझोरा था कि यह सीधे देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला था। याद रहे कि बोफोर्स घोटाले की फिर से जांच हुई तो अगले कुछ समय में उन सारे चुभते सवालों के जवाब सामने आ सकते हैं, जिनकी चर्चा ऊपर की गई है।

सुरेंद्र किशोर


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