मुद्दा : गरीबी है असल बीमारी
मुजफ्फरपुर में नौनिहालों के मौत का सिलसिला जारी है। अब तक बच्चों के मरने की संख्या लगभग दो सौ पहुंच गई है।
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यह पहली बार नहीं है कि इस रहस्मयी बुखार (एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम) से बच्चे काल के गाल में समा रहे हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों में प्रतिवर्ष सैकड़ों बच्चों की मौत इस चमकी बुखार से होती है। इस बार भी यह बीमारी अपना तांडव कर रहा है। न सिर्फ मुजफ्फरपुर बल्कि उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में भी इसी तरह की बीमारी से हर साल सैकड़ों बच्चों को अपनी जान गंवानी पड़ती है।
गोरखपुर में इसे ‘जापानी बुखार’ कहते हैं। पिछले साल गोरखपुर में जापानी बुखार से सैकड़ों बच्चों की जान गई थी। तब देश-दुनिया की मीडिया में ये मुद्दा सुर्खियां बना था। राजनीतिक रूप से भी ये मुद्दा काफी गरम रहा। गोरखपुर में मेडिकल सुविधा को लेकर काफी बवाल मचा था। चिकित्सकों पर लापरवाही बरतने के आरोप लगे। उनमें से कुछ चिकित्सक आज भी जेल और कानून के शिकंजे में फंसे हैं। उसी तरह सैकड़ों बच्चों के मरने के बाद मुजफ्फरपुर में भी इलाज और मेडिकल सुविधा में लापरवाही बरतने का आरोप लग रहा है। मीडिया चिकित्सकों, नर्स, दवाइयों और उपकरणों की अनुप्लब्धता को लेकर शासन-प्रशासन पर तमाम के आरोप लगा रहा है। बच्चों के इलाज में चिकित्सीय लापरवाही और जरूरी संशाधनों के अभाव की बात को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन साल-दर-साल इस बीमारी में मरने वाले बच्चों का एक दूसरा पहलू भी है, जिसे हर बार अनदेखा किया जा रहा है। यहां यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि सिर्फ इस बुखार में ही बच्चों की जान नहीं जा रही है। बल्कि हमारे देश में साल में कई बार मौत का मौसम आता है। जिस समय मुजफ्परपुर में जापानी बुखार से बच्चों की मौत हो रही है, उसी समय बिहार राज्य के ही मगध और शाहाबाद क्षेत्र में लू भी मौत का तांडव कर रहा था।
एक माडिया रिपोर्ट के अनुसार बिहार में चंद दिनों में लू से 116 लोग काल के गाल में समा गए। गया जिले के विष्णुपद श्मशान पर एक दिन में 72 लाशें दाह-संस्कार के लिए लाई गई। डोमराजा ने कहा कि एक दिन में इतनी लाशें उनके जीवनकाल में नहीं आई थीं। ये सब लू में मरने वाले लोगों की लाशें थी। जापानी बुखार और लू से मरने वाले लोगों की संख्या जोड़ दी जाए तो यह संख्या लगभग तीन सौ तक पहुंच जाती है। बुखार और लू से ही हमारे देश में मौत नहीं होती है बल्कि हर साल सैकड़ों लोग बाढ़ और शीतलहर के भी शिकार बनते हैं। क्या मौसम से मौत का कोई संबंध है? मौत और मौसम का संबंध दूसरे देशों में भले ही न हो, लेकिन भारत में तो मौसम की मार भी मौत के कुएं में पहुंचा देती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि ये मरने वाले कौन हैं? हमारे समाज में उनकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत क्या है? ध्यान से देखने पर यह मिलता है कि जापानी बुखार, शीतलहर और लू में मरने और बाढ़ में मरने वाले लोग अत्यंत गरीब वर्ग के होते हैं। जातीय हिसाब से देखें तो वे सब पिछड़े, दलित, महादलित और पसमांदा समाज के होते हैं। ऐसा बहुत ही कम देखने-सुनने को मिलता है कि कोई अमीर और सवर्ण व्यक्ति शीतलहर और लू से मर गया हो। ऐसे में यह समझ में आता है कि हर प्राकृतिक आपदा और रहस्यमयी बीमारी की चपेट में सिर्फ गरीब आता है। शीतलहर,लू और बाढ़ में मरने का असली कारण गरीबी,गैर-बराबरी और आर्थिक असमानता है। गरीबी ही असली बीमारी की जड़ है। जब तक हम गरीबी नामक इस असली बीमारी का हल नहीं निकालेंगे तब तक जापानी बुखार जैसे रोगों का इलाज संभव नहीं है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हषर्वर्धन ने मुजफ्फरपुर में अपने दौरे के समय इंसेफलाइटिस बुखार पर शोध करने पर बल दिया। श्रीकृष्ण मेडिकल कालेज में उन्होंने कहा कि ‘बीमारी की पहचान करने के लिए शोध होना चाहिए, जिसकी अभी भी पहचान नहीं है और इसके लिए मुजफ्फरपुर में शोध की सुविधा विकसित की जानी चाहिए।’ किसी भी सभ्य समाज में पढ़ाई, दवाई, रोजगार की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। मरीजों के देखभाल के लिए अस्पताल, डॉक्टर, नर्स, दवा और जांच उपकरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना ही चाहिए। लेकिन जब देश में बार-बार वर्ग-वर्ण विशेष ही किसी प्राकृतिक आपदा और बीमारी के चपेट में आ रहा हो तो इसके चिकित्सीय पहलू पर नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक पहलू पर भी ध्यान देने की जरूरत है। मेरा तो स्पष्ट मानना है कि ये सब मौतें सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी के कारण है। जब तक गरीबी और पिछड़ापन को नहीं दूर किया जाएगा तब तक हम ऐसी समस्याओं का निदान नहीं कर सकते हैं।
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