महिला वोटर : जुमलों से न ललचाइए उन्हें

Last Updated 09 Apr 2019 06:44:42 AM IST

यह बताने वाले बहुत से सर्वे किए गए हैं कि इस बार के आम चुनावों में औरतें मदरे के मुकाबले ज्यादा संख्या में वोट कर सकती हैं।


महिला वोटर : जुमलों से न ललचाइए उन्हें

चुनाव आयोग का कहना है कि 2012 से 2018 के दौरान देश के 30 में से 23 राज्यों के विधानसभा चुनावों में औरतों ने पुरु षों के मुकाबले अधिक संख्या में वोट दिया था। चुनावों का विश्लेषण करने वाली प्रणय राय-दोराब आर. सोपारीवाला की किताब ‘द वर्डिक्ट: डीकोडिंग इंडिया‘ज इलेक्शंस’ का कहना है कि औरतें किस तरह लोकतंत्र के पलड़ों को ऊपर-नीचे कर सकती हैं। किताब यह आकलन भी करती है कि 2014 में सिर्फ  मर्द वोट देते तो एनडीए को 376 सीटें मिलतीं-मौजूदा सीटों से 30 सीटें अधिक-और अगर सिर्फ  औरतें वोट देतीं तो एनडीए की नैय्या डांवाडोल हो जाती- उसे सिर्फ 265 सीटें मिलतीं। मौजूदा सीटों से 71 सीटें कम।

इन विश्लेषणों में भले ही महिला मतदाताओं की ताकत का एहसास कराया जा रहा हो, लेकिन राजनैतिक पार्टयिों के लिए वे अब भी बेअसर ही लगती हैं। महिला मुद्दों पर अधिकतर पार्टियां घिसी-पिटी लकीर पर ही उद्घोष कर रही हैं। राहुल गांधी के न्यूनतम आय योजना के वादे पर प्रियंका गांधी ने कहा है कि इसका सीधा फायदा औरतों को होगा। राहुल ने सरकारी नौकरियों में भी औरतों को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही है। प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि उनकी सरकार औरतों की सुरक्षा और सशक्तीकरण के लिए तमाम योजनाएं चला रही है। राजनीतिक दलों से महिला वोटरों की क्या उम्मीद है? जिसे इलेक्शन कमीशन-लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार बता रहा है, उसमें तो औरतें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगी हैं। लेकिन इसका जश्न बाद में विजेता प्रत्याशियों के घर-आंगन ही मनता है। वोटर चुपचाप रोजमर्रा के काम में लग जाता है।

इंडिया स्पेंड के एक सर्वेक्षण में पता चला था कि अवैतनिक काम किस तरह औरतों को गरीब बना रहा है। अवैतनिक काम मतलब वह सारा काम, जिसके बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता। घर का काम, बीमारों-बुजुगरे-बच्चों की देखभाल वगैरह। सर्वे में बहुत-सी औरतों ने कहा था कि वे बाहर काम नहीं करना चाहतीं क्योंकि घर के काम से ही बहुत थक जाती हैं। महाराष्ट्र की पालघर तहसील में पानी भरकर लाने में औरतों के दिन के चार से छह घंटे खर्च हो जाते हैं। यह इंफ्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं से जुड़ी समस्या है, और जब तक इस पर राजनैतिक दल ठोस काम नहीं करते, तब तक महिलाओं की जिंदगी में बदलाव होने वाले नहीं। इसीलिए गैर-बराबरी खत्म करने के राजनीतिक दलों के वादे भी कोरे वादे ही हैं।

  शहरों से लेकर गांवों तक औरतें परेशान हैं। खेती करने वाली औरतों की और बुरी स्थिति है। उन्हें तो किसान के तौर पर देखा तक नहीं जाता। हालांकि एनएसएसओ के आंकड़े कहते हैं कि कृषि क्षेत्र में 80 प्रतिशत महिला मजदूर काम करती हैं। हमारे पास इनके लिए कौन सी सोशल वेल्फेयर स्कीम है..दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण जीविकोपार्जन मिशन के अंतर्गत महिला किसान सशक्तीकरण परियोजना। पिछले साल इस उपयोजना के लिए सिर्फ 1,000 करोड़ रु पये आबंटित किए गए थे, इस साल के आवंटन के बारे में जानकारी नहीं मिली है।

औरतें राजनीतिक दलों से क्या चाहती हैं..यही न कि वे रूपक न सजाएं। दक्षिण में अक्सर महिला वोटरों को रिझाने के लिए सस्ते चावल, सोने की चेन वगैरह के रूपक सजाए जाते हैं। पर अब उनका ऐसे रूपकों से जी उचाट हो चुका है। दरअसल, सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना और फिर उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है। महिला सुरक्षा के नाम पर बने निर्भया फंड में 2013 से 2016 तक कोई पैसा खर्च नहीं किया गया। 2018-19 तक इसमें 3600 करोड़ का कॉरपस फंड था। पिछले साल सेफ सिटी बनाने के लिए 2919 करोड़ की परियोजनाओं की घोषणा हुई है। बाकी, महिला सुरक्षा के नाम पर कोई ऐलान किसी पार्टी ने नहीं किया है। न ही महिलाओं से जुड़े कानूनों में संशोधन की बात किसी ने कही है। औरतें वोटर तो बन चुकी हैं, लेकिन इनकी उम्मीदों को पॉलिटिकल पार्टयिां समझना नहीं चाहतीं।

हालांकि महिलाएं अपने वोट की ताकत समझती हैं। बिहार में जिस शराबबंदी के वादे के बाद 2015 में नीतीश कुमार महिला वोटरों के चहेते बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे, उसके जरिए भी औरतों को काफी बरगलाया गया। न शराब बिकनी बंद हुई, न औरतों के जिंदगी पर कोई असर हुआ। सो, महिला मतदाताओं को सिर्फ  टोकनिज्म से कोई फायदा नहीं होने वाला। औरतें ठोस बदलाव चाहती हैं-जमीनी स्तर पर। सिर्फ  चुनावी जुमलों से उन्हें ललचाना छोड़ दीजिए।

माशा


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