आम चुनाव : फर्क है विगत और वर्तमान में
देश की प्रतिस्पद्र्धी राजनीति में 2014 का चुनाव एक निर्णायक मोड़ था। इस चुनाव में भाजपा ने 428 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे और 282 पर जीत दर्ज की थी।
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भाजपा को 1984 के बाद ऐसी पहली पार्टी बनने का गौरव हासिल हुआ जिसे संसद में स्पष्ट बहुमत मिला। इसी प्रकार भाजपा को 30 प्रतिशत से ज्यादा मत मिले। इतना वोट 1991 के बाद से किसी पार्टी को नहीं मिला था। भाजपा की यह जीत दो दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थी। एक तो पार्टी ने अपने परंपरागत गढ़ उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भारत में अपना दबदबा स्थापित करने के साथ-साथ उन क्षेत्रों में भी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की जो उसके परंपरागत आधार नहीं थे। दूसरे भाजपा न केवल अगड़ी और पिछड़ी जातियों का वोट हासिल करने में सफल रही, बल्कि अनुसूचित जातियों/जनजातियों का वोट भी उसे पर्याप्त मात्रा में मिला। इस चुनाव ने भाजपा को सच्चे अथरे में राष्ट्रीय पार्टी बना दिया।
मौजूदा चुनाव में भाजपा के सामने इस उपलब्धि को बरकरार रखने के साथ-साथ इसका विस्तार करने की भी गंभीर चुनौती है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पिछले पांच साल में पार्टी के संगठनात्मक ढांचे का कितना विस्तार हुआ है और मोदी सरकार का कामकाज कैसा रहा है। मोदी सरकार का कामकाज इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस की पराजय के पीछे उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा कार्य-निष्पादन में संप्रग सरकार के प्रति असंतोष भी एक बड़ा कारक था। साथ ही, कांग्रेस की अल्पसंख्यक परस्त छवि भी उसके लिए घातक सिद्ध हुई। ऐसे में जरूरत थी कांग्रेस में ढांचागत और नीतिगत बदलाव के साथ नया सामाजिक आधार खड़ा करने की। संगठन-नेतृत्व के स्तर पर कुछ बदलाव दिख रहा है, पार्टी की प्रचार रणनीति भी पिछले कुछ समय से बदली हुई दिख रही है।
चूंकि कांग्रेस सत्ता में नहीं है, इसलिए आर्थिक विकास और लोक कल्याण को लेकर जनता के प्रति उसकी प्रत्यक्ष जवाबदेही नहीं है। फिर भी जनता के बीच संप्रग और राजग सरकारों के कामकाज का तुलनात्मक मूल्यांकन होने लगा है। कांग्रेस ने न्यूनतम आय गारंटी योजना अवश्य पेश की है, लेकिन उसके बारे में अभी बहुत कुछ स्पष्ट किया जाना बाकी है। यही नहीं, कांग्रेस के कुछ नेताओं के भ्रष्टाचार में घिरे होने के कारण यह मसला उसका पीछा करेगा। पार्टी की अल्पसंख्यक परस्त छवि दुरुस्त करने के लिए कुछ कोशिश हो रही हैं, लेकिन वे प्रतीकात्मक ज्यादा, नीतिगत कम हैं। भाजपा ने इसको अभी से उग्रतापूर्ण लपक लिया है ताकि कांग्रेस को हिंदुत्व विरोधी दिखा सके।
संप्रग सरकार की विसंगतियों ने उदारवादी नीतियों का ही अनुसरण करने वाले नरेन्द्र मोदी को 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर उभरने का मौका प्रदान किया था। बेशक, आज मोदी सरकार का काम जमीन पर दिख रहा है, लेकिन यह वोट में तभी तब्दील हो सकता है, जब उसके लाभार्थियों को पता हो कि यह मोदी सरकार की देन है। साल भर पहले तक कई लाभार्थी इसका श्रेय राज्य सरकार या स्थानीय राजनीतिज्ञों को दे रहे थे। पिछले साल दिसम्बर में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में झटका खाने के बाद भाजपा ने अपनी सरकार के प्रति जन धारणा बदलने के लिए अथक प्रयास किए। इससे मोदी सरकार के प्रति जन धारणा जरूर बदली है, पर यह किस सीमा तक है, अभी कहना कठिन है। नहीं भूलना चाहिए कि संप्रग सरकार ने भी गरीबों के कल्याण के लिए कदम उठाए थे, लेकिन 2014 में उसकी सत्ता में वापसी नहीं हो सकी। 2014 में कराए गए एक सर्वे के मुताबिक इन योजनाओं के लाभार्थियों के एक बड़े हिस्से ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया। इनमें से बहुतों को पता नहीं था कि इसके लिए केंद्र सरकार उत्तरदायी है।
इन योजनाओं का दूसरा पहलू भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था, जो कांग्रेस की पराजय का कारण बना। आबादी का एक बड़ा हिस्सा, जिसमें मध्य वर्ग भी शामिल था, इसके दायरे में प्राय: नहीं आता था। स्वाभाविक तौर पर इनमें संप्रग सरकार के प्रति हमदर्दी नहीं थी। भाजपा ने इसका लाभ उठाया। मौजूदा मोदी सरकार इस खतरे के प्रति सचेत है। हालांकि राहुल की लोकप्रियता 2014 की तुलना में बढ़ी है, लेकिन अब भी वह मोदी की बराबरी पर नहीं हैं। इससे अन्य मुद्दों के अलावा मतदान को प्रभावित करने वाले कारक भी दब सकते हैं। ऐसे में इस रणनीति से भाजपा को फायदा होगा जैसा कि 2014 में हुआ था। इंदिरा गांधी के बाद पहली बार इस चुनाव में नेतृत्व एक निर्णायक कारक था। इसके बावजूद कांग्रेस द्वारा बार-बार मोदी पर निशाना साधने से तो यही प्रतीत होता है कि उसकी भी इसमें दिलचस्पी है ताकि सत्ता इन दोनों पार्टयिों के बीच घूमती रहे।
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