सरकारी विद्यालय : बस्ते से आगे का बोझ

Last Updated 17 Jan 2019 04:40:34 AM IST

बजट भाषण के दौरान किये संकल्प को मूर्त रूप देने के प्रयास के क्रम में केन्द्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति ने एकलव्य आवासीय विद्यालय को खोलने की सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है।


सरकारी विद्यालय : बस्ते से आगे का बोझ

पचास फीसद से अधिक आदिवासी आबादी वाले हर प्रखंड में ऐसे विद्यालयों को खोलने की योजना है, जहां कम से कम बीस हजार आदिवासी निवास करते हैं। एकलव्य आवासीय विद्यालय समावेशी विद्यालयी शिक्षा के विकास की दिशा में एक बड़ा कदम है। समावेशी विद्यालयी शिक्षा को गति देने के लिए अन्य पिछड़े समूहों के बच्चों के लिए भी ऐसे विद्यालय खोलने की जरूरत है। कुपोषण का जन्म से ही शिकार हो रहे आदिवासी बच्चे शिक्षा ग्रहण करने के लिए स्वस्थ और तैयार हों, हमें इस दिशा में भी प्रयास करना होगा। भूखी गर्भवती आदिवासी महिलाओं को स्वस्थ बच्चों के प्रजनन के लिए सुविधा मुहैया कराने की जरूरत है। शायद देश संवेदनशील हो कि गर्भवती, भूखी आदिवासी माताओं को भोजन जुटाने के लिए आराम की स्थिति में होने के समय भी काम करना होता है। देश में अन्य पिछड़े वर्गो की स्थिति भी बेहतर नहीं है। पिछड़ेपन की एक प्रकृति है कि जो पिछड़े हैं, उनमें भी पिछड़ेपन की कई श्रेणी हैं। जो वर्ग पिछड़ा है, उस वर्ग में महिलाएं पुरुषों की तुलना में और पिछड़ी हैं।

बस्ते के भार को घटाने की यशपाल समिति की अनुशंसा भी गति पाने की स्थिति में है। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने राज्यों को इस आशय का निर्देश जारी किया है। यह निर्देशित किया गया है कि पहली और दूसरी  कक्षा के विद्यार्थियों को किसी प्रकार का गृह-कार्य नहीं दिया जाए। राज्यों को यह सलाह दी गई है कि बस्ते के भार के निर्धारण के लिए तेलंगाना प्रतिरूप  को अपनाएं जिसमें कक्षावार बस्तों के भार को तय किया है। भार की सीमा कक्षा एक और दो के लिए डेढ़ किलो, कक्षा तीन से पांच के लिए दो से तीन किलो, कक्षा छह और सात के लिए चार किलो, कक्षा आठ और नौ के लिए साढ़े चार किलो तथा कक्षा दस के लिए पांच किलो निर्धारित की गई है। यह भी केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय का अच्छा कदम है कि कक्षा एक और दो में गणित और भाषा के अतिरिक्त कोई अन्य विषय नहीं पढ़ाया जाए, कक्षा तीन से पांच में भाषा एवं गणित के अतिरिक्त सिर्फ पर्यावरण पढ़ाया जाए। इन कक्षाओं के लिए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् की मानक किताबों के अतिरिक्त अन्य किताब या अधिगम सामग्री लाने के लिए विद्यार्थियों पर विद्यालय कोई दवाब न डाले। निर्णय से निजी विद्यालयों  की  मनमानी पर तो रोक लगेगी ही साथ  ही उनकी अतिरिक्त आमदनी पर भी असर पड़ेगा, किन्तु विद्यार्थियों एवं उनके माता-पिता कई प्रकार की समस्याओं से उबर सकेंगे।
यद्यपि बस्ते के भार को कम करना एक प्रभावकारी एवं क्रान्तिकारी कदम है, किंतु बस्ते के भार से अधिक जरूरी है कि विद्यार्थियों के बोझ को कम किया जाए जिसकी प्रकृति सिर्फ शारीरिक नहीं है-मनोवैज्ञानिक एवं शैक्षिक भी है। पहाड़ा याद करना, कविता याद करना या फिर गणित एवं भाषा संबंधी अन्य तथ्यों से संबंधित थोड़ा सा कार्य बच्चों को दिया जा सकता है, यह ध्यान रखते हुए कि इन कार्यों के सम्पादन में उन्हें किसी की सहायता अपेक्षित न हो। खेल-खेल में पढ़ाई, पढ़ने की आदत का निर्माण, माता-पिता से मिलने वाली शैक्षिक सहायता के अभाव को दूर करना आदि भी विद्यालय की जवाबदेही है। विद्यालय की समय-सारिणी में एक पीरिएड गृह-कार्य का रखा जा सकता है; जहां स्वतंत्रतापूर्वक न कर सकने योग्य कार्य को करने में अध्यापक बच्चों की सहायता करें। थोड़ा-सा कार्य जो स्वतंत्रतापूर्वक किया जा सके घर के लिए भी देना अच्छा होगा, क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत आज भी प्रासांगिक है। पढ़े-लिखे माता-पिता अपने बच्चों से तो कार्य करा लेंगे और अनपढ़ माता-पिता की संतान पिछड़ती चली जाएगी। विद्यालय के क्रिया-कलापों में भी शारीरिक श्रम से संबंधित कार्य एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन को कक्षा-कक्ष में होनेवाली पढ़ाई के अतिरिक्त सम्मिलित करना होगा। शिक्षा से शारीरिक अथवा क्रियात्मक तथा भावात्मक विकास भी करना ही होगा,  क्योंकि शिक्षा सिर्फ  ज्ञानात्मक पक्ष के विकास तक सीमित नहीं हो सकती। गांधी ने शिक्षा के माध्यम से ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं  क्रियात्मक विकास की बात कही है और थ्री-एच की शिक्षा इसका प्रमाण है। गांधी का एडुकेशन फॉर थ्री-एच हैण्ड, हर्ट और हेड क्रमश: क्रियात्मक, भावात्मक एवं ज्ञानात्मक पक्ष से संबंधित है। बस्ते के भार से अधिक महत्त्वपूर्ण विद्यार्थियों के बोझ को कम करना है, जो तभी संभव है जब शिक्षा की प्रकृति न केवल समावेशी हो, बल्कि सर्वागीण भी हो। तात्पर्य शिक्षण में ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक क्रिया-कलापों को एक संतुलित प्रतिनिधित्व मिले।
सरकारी विद्यालयों में सुरक्षा के चाक-चौबंद इंतजाम की सरकारी योजना भी प्रशंसनीय है। सरकारी विद्यालयों में अब निजी विद्यालयों की तर्ज पर चौकीदार की तैनाती की जाएगी और इस क्रम में बाउंड्रीवॉल जैसे इंतजाम किये जायेंगे। राज्यों से इस बाबत जानकारी मांगी गई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक इस योजना में अभी देशभर के सभी सरकारी विद्यालयों को शामिल किया गया है। सूत्र यह बताते हैं कि देश के चौदह लाख सरकारी विद्यालयों में से ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद ज्यादातर विद्यालय खासकर प्राइमरी विद्यालय सुरक्षा का कोई मापदंड पूरा नहीं करते। बाउंड्रीवाल या  चौकीदार से ज्यादा जरूरी कार्य अभी शेष हैं; सरकारी विद्यालयों की गुणवता एवं विकास के लिए। पीने के स्वच्छ पानी की व्यवस्था, एकल शिक्षक वाले विद्यालयों को उत्क्रमित करना, शिक्षकों की  संख्या बढ़ाकर छात्र अध्यापक अनुपात को सुधारना, शौचालय की व्यवस्था करना, और फिर बालिकाओं के लिए अलग से शौचालय बनाना, पुस्तकालय की व्यवस्था करना आदि क्या गार्ड एवं चारदीवारी से कम जरूरी है? यह भी सुखद है कि नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा तैयार है और इसके पांच स्तंभ उपलब्धता, सामथ्र्य, निष्पक्षता, गुणवत्ता और उत्तरदायित्व है। परीक्षा योजना के मसौदे की नहीं, अपितु क्रियान्वयन की है। अपेक्षा है पूर्व की शिक्षा-नीतियों की तुलना में हम अपने विद्यालयों में इस नीति को प्रभावी ढंग से लागू कर सकेंगे।

डा. ललित कुमार


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